मैं, (मैत्री) चाय की गुमटी में अपने पति निखिल और बेटी सजल के साथ चाय पी रही थी कि अचानक एक आवाज ने मुझे चौंका दिया. पीछे मुड़कर देखा तो कुछ जाना-पहचाना-सा चेहरा दिखा. पर याद नहीं आ रहा था कहाँ देखा, कौन है ये! वो आदमी भी मैत्री को देखे जा रहा था
कि बोल पड़ा “मीतू”! मैत्री को इस नाम से केवल घर वाले बुलाते थे. इससे पहले कि मैत्री कुछ कहती वो फिर बोल पड़े, अरे हम टिंकू भैया. तुम्हारे रामवतार बाउजी के बेटे. मैत्री उनको पहचान के पैर छूने आगे बढ़ी तो भैया ने उसके पैर छू लिए. वो हमेशा ऐसे ही करते थे.
कहते थे बहन, बेटी देवी का रूप होती हैं और देविओं के पैर छूते हैं, वो पैर नहीं छुती.
फिर जैसे ही मैंने निखिल और सजल का परिचय कराया, उन्होंने इन दोनों के भी पैर छू लिए. कहने लगे आप मीतू के पति हैं तो हमारा “मान” हुए और सजल भांजी है तो ब्राह्मण स्वरुप हुई. फिर हमारा बैग उठाया और घर चलने को कहा. हमें थोड़ा असहज देख के बोले, मायके के गांव आयी हो और मायके नहीं जाओगी! मेहमान और बेटी को अपना घर नहीं दिखाओगी? चल. निखिल के हामी भरने पर हम साथ चल दिए.
रास्ते में मुझे खेत, आम का भिट्टा, महुआ का वो पुराना पेड़, भगवती माई का मंदिर, पापा का लगाया “वन” सब दिखे बस नहीं दिखी तो वो चुहड़बाजी, वो भागते दौड़ते बच्चे. भैया बीच-बीच में सब खेत-खलिहान इनको दिखाते जा रहे थे,
सबके घर बताते जा रहे थे. हम जैसे ही घर पहुंचे एक ठंडी हवा का झोंका-सा आया और आँखें नम हो गयी मेरी. बाबा, ईया, बाउजी, चाचा सब याद आ रहे थे. जरा सी देर में बहुत कुछ तैर गया आँखों के सामने. भैया अंदर जाकर अपनी बेटिओं के हाथ नाश्ता भिजवाए. बड़ी प्यारी थीं
दोनों बेटियां. भैया इसने कह रहे थे कि मैत्री, मौली (मेरी छोटी बहन) को देखकर उन्होंने भी दो बेटिओं को अच्छी परवरिश दी है. बेटे की चाह सबको थी पर भैया ने अपनी बेटिओं को ही अपना सब मान लिया और तीसरा बच्चा नहीं किया. कुछ देर बाद वो हमें चाची के घर ले गए, हमारे पुश्तैनी घर में. जहाँ हमारा बचपन बीता, किशोरवय हुए.
पापा चार भाई थे, सबसे बड़े “बड़े पापा”, फिर बाउजी, फिर मेरे पापा और सबसे छोटे चाचा. बड़े पापा सिंचाई विभाग में अधिकारी थे और अपने परिवार को लेके बनारस रहते थे, बाउजी का पढ़ने में मन नहीं लगा तो खेत संभाल लिए, मेरे पापा अध्यापक थे
और चाचा की किराने की दुकान. बड़ी मम्मी, अम्मा और चाची कम पढ़ी-लिखी थीं पर मेरी माँ ने स्नात्तकोत्तर कर रखा था. माँ का पढ़ा-लिखा होना पूरे गाँव को गर्व कराता था और हमारे घर की महिलाओं को ईर्ष्या. विशेषकर अम्मा को. जाने क्यों वो माँ से इतना चिढ़ती थी!
धीरे-धीरे उन्होंने चाची को भी अपने साथ मिला लिया. फिर वो दोनों मिलकर हर बात में माँ को जली कटी सुनाती रहती और माँ! माँ ने तो जैसे धैर्य को ही अपना लिया था. अपना काम करती और मुझे सँभालती.
फिर मेरी बहन का जन्म हुआ, माँ का काम भी बढ़ गया और दायित्व भी. पापा शहर में रहते थे, शनिवार की रात आते और सोमवार तड़के निकल जाते थे. उन्हें कुछ पता ही नहीं चल पाता था या शायद परिवार की खातिर जानकर भी अनजान बने रहते होंगे. इधर माँ की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी उधर अम्मा चाची की खुराफ़ातें.
समाज के दबाव में और दादी की पोते की चाह में माँ ने एक बार और चांस लिया. एक बार फिर उनके अंदर एक नन्हा जीव पनपने लगा. सब ठीक ही चल रहा था कि एक दिन अचानक माँ की तबीयत बहुत ख़राब हो गयी, गाँव के डॉक्टर ने शहर रेफर कर दिया.
वहाँ पता चला माँ के शरीर में जहर था. बड़ी मुश्किल से बच पायी थीं या शायद हम पर ईश्वर को दया आ गयी होगी. हाँ, पर उनका गर्भपात हो गया था. माँ ठीक तो हो गयीं पर मन से टूट चुकी थीं. उन्होंने बताया कि चाची किसी झाड़फूंक वाले का कोई प्रसाद लेकर आयी थी
और कहने लगीं इस बार बेटा ही हो इसकी मन्नत मान के आयी हूँ और ये उन्ही बाबा का प्रसाद है, खा लो. माँ ने बड़े अनमने से वो प्रसाद खाया और फिर उनकी तबीयत बिगड़ गयी. घर लौटकर पापा ने ज़ब बात करनी चाही तो सबने खूब लड़ाई की. पापा भी दुःखी थे,
वो हमें लेकर शहर आ गए. फिर दोनों ने एक नए सिरे से गृहस्थी शुरु की और हमें पढ़ाने- लिखाने, बनाने में लग गए. बाद में पता चला कि चाची ने कोई कीटनाशक मिलाकर दिया था जिसको प्रसाद बोल के माँ को खिलाया था. बस वो दिन था और आज का दिन, हम कभी गाँव नहीं गए.
पापा ही जाते थे, शादी ब्याह और किसी के देहावसान पर. हम हमेशा सोचते थे कि ऐसी भी क्या चिढ,
जलन कि आप किसी को मारने की जुगत कर दो! ये नारी सुलभ ईर्ष्या थी या नफरत! तबसे ये मनमुटाव ऐसा बढ़ा कि सब ख़त्म हो गया. उन्हें तो फिर भी कुछ पता चल जाता होगा पर उनके बारे में पापा ने कभी बात नहीं की. चुप्पी ही साधे रहे.
आज भैया ने बताया कि अम्मा को गैंगरीन हुआ था पैरों में, उँगलियाँ काट दी गयी थीं पर पूरा शरीर संक्रमित होने के कारण उनकी मृत्यु बहुत पहले ही हो गयी थी. बाउजी भी बिस्तर पकडे हुए हैं. भैया की दोनों बहनों ने मायके आना कबका छोड़ दिया है, कोई मतलब भी नहीं रखते.
चाची का बड़ा बेटा अपनी पत्नी को छोड़कर चला गया है, छोटे भाई को उसका हाथ देने की बात चल रही है. चाचा अब रहे नहीं और चाची की स्थिति भी बहुत ख़राब है, आर्थराइटिस ने पूरा बैठक कर दिया है. बहू खुद ही तकलीफ में है तो बस उनके साथ खाना पूर्ती ही कर रही है.
सच वहाँ जा के देखा तो चाची के कपड़े, बिस्तर सब गंदे थे, बदबू आ रही थी. बहू के लिए तो हम अनचाहे मेहमान थे, क्या ही कहती! चाची का छोटा बेटा ही बात करता रहा. जब हम चलने को हुए तब चाची ने हाथ जोड़ लिए और आँखों में आँसू भर के बोली
“माफ़ क दिह”(माफ़ कर देना). मैं ढाँढस बंधाकर बाहर निकल आयी. उनकी स्थिति देखकर मुझे भी दुःख हो रहा था पर ये तो उनकी नियति है, उनके बुरे कर्मों का फल. वापस लौटते समय भगवती माई का मंदिर देख स्वतः मेरे पैर उस तरफ बढ़ चले. हाथ जोड़ मैंने माँ को धन्यवाद किया और प्रार्थना की कि मेरी माँ को लम्बी आयु दें.
मैं खुश थी कि माँ ने हम दोनों बहनों को ही अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और आज हम दोनों बहने माँ पापा की देखभाल अच्छे से कर रहे हैं. आज चाची के दोनों बेटे जिन पर वो खूब नाज करती थी, दोनों ने उनसे बात करना, ध्यान रखना बंद कर दिया है.
अम्मा का छोटा बेटा रेलवे में गार्ड है, वही अपनी पसंद की लड़की से शादी कर के घरवालों से सम्बन्ध ख़त्म कर चुका है. बस टिंकू भैया अलग हैं, वो अच्छे हैं और अपनी माँ की गलती पर शर्मिंदा भी हैं. कुल मिलाकर सबसे सुखमय जीवन मेरी माँ का है. पर यहाँ तक आने के लिए माँ ने बड़ी कठिन तपस्या की है, बहुत मेहनत की है, बहुत कुछ खोया भी है.
दोस्तों, जीवन में रिश्ते और अपने बहुत जरूरी हैं. अपनापन भी रहता है, मन मुटाव भी होता है, पर कभी भी मन मुटाव को इतना न बढ़ने दे कि रिश्ता ही ख़त्म हो जाये. रिश्तों से हम हैं, हमसे रिश्ते.. फिर भी अगर मन मुटाव ज्यादा बढ़ जाये तो अलग हो जाये पर किसी को नुकसान न पहुंचाएँ.
पूजा गीत
#मनमुटाव