मनहुसीयत – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ओह्ह माँ.. तुम मना मत करना। तुमको आना ही होगा। आओगी न!

“पर बेटा, मैं बूढ़ी अपना ही काम खुद से नहीं कर पाती वहां जाकर क्या करूंगी। वहाँ और बोझ बन जाउंगी तुम लोगों के माथे पर!”

” माँ ..वो सब मैं कुछ नहीं जानता बस तुम हाँ कर दो। तुमको यहां कुछ करने की जरूरत नहीं है ,तुम्हारा रहना ज्यादा जरूरी है।  हाथ बटाने के लिए बाई रख लिया है।

माँ- बेटे का मान -मनौवल सुन रहे पिताजी ने बीच में ही टोका “- बेटा  इतना कह रहा है तो तुम्हें हामी भरने में क्या जा रहा है ।अभी उसका मन रखने के लिए हां कर दो। बाद में सोच लेना क्या करना है क्या नहीं। “

“आप समझ नहीं रहे हैं बिट्टू चाहता है कि मैं उसके पास जाकर रहूं। कितनी बार उसे समझाया कि बहू को यहीं रख जाओ। बच्चा होने तक यहीं रहेगी। जच्चा-बच्चा दोनों की देख -भाल अच्छे ढंग से होगा ।यहां पूरा परिवार है,अपना पराया सब लोग है। किसी भी चीज की कमी नहीं होगी। सबसे बड़ी बात है कि आप सर्वे-सर्वा गार्जियन मौजूद हैं। यहां कुछ भी कम-बेस होने पर सम्भाल लेंगे। पर कौन समझाये उसे एक ही जिद ठाने बैठा है कि तुम आ जाओ ! मैं क्या करूंगी  इस लाचार शरीर को वहां  ले जाकर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।” 

एक काम कर सकती हो तुम ! बिट्टू को यहां आने के लिए मनाओ। मान जाता है तो ठीक है नहीं तो छोटी को साथ लेकर चली जाना। वह साथ में रहेगी तो तुम्हारा और बहू दोनों का ध्यान रख लेगी। साथ में उसका मन थोड़ा बदल जाएगा।

पिताजी की बात सुनकर थोड़ी देर के लिए माँ खुश हो गई, लेकिन पल भर में उनके चेहरे पर एक दर्द सा फैल गया जो आंखों के कोने से आंसू बन गालों पर लुढ़क गया।

खुद को संभालते हुए बोलीं- ” किस मूंह से मैं उस वक्त की मारी चिड़िया से कहने जाऊँ कि मेरे साथ चलो जिसका घोंसला आबाद होते होते उजाड़ हो गया।  मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं उसके दर्द को कुरेदने जाऊँ और उसको कहूं कि मेरी खुशियों में शामिल होने के लिए चलो।”




पिताजी ने माँ को तसल्ली देते हुए कहा-” देखो यह सब नियति का खेल है। जो होना था सो हो गया। उसके बच्चे को इस दुनियां में नहीं आना था। कुछ न कुछ तो बहाना चाहिए था न! सो बेचारी माँ पर ही थोप दिया भगवान ने!

 एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ी….सबने यही इल्जाम लगाया कि मॉडर्न लड़की  है जान बूझकर बच्चे को हटवा दिया जबकि वह सीढियों से गिर पड़ी थी। कोई माँ कितनी ही आधुनिक और पढ़ी लिखी क्यूँ न हो वह अपने बच्चे के लिए माँ ही होती है। कहां तक ससुराल वाले उसे ढाढस बंधाते उसके दर्द को बांटते जिससे बेचारी का अपने औलाद खोने का दर्द कुछ कम हो जाता ।उल्टे इतना प्रताड़ित किया कि जीना दुश्वार कर दिया।  वह तो भला हो भाई का जो अपनी बहन को यहां जबरदस्ती से ले आया बुलाकर । नहीं तो उनलोगों के ताने और  अपने हूक से ही वह अपने आप को खत्म कर लेती। 

छोड़ो उनलोगों का करतूत याद कर मन कसैला हो जाता है। अब हमें अपनी बेटी को नयी जिन्दगी देनी चाहिए जिससे वह इस सदमे से उबर पाये।

माँ ने एक गहरी साँस ली और बेटे को फोन लगाया-” रिंग  होते ही  उधर से आवाज आई हाँ माँ…मुझे पता था तुम ना नहीं करोगी । कब आ रही हो? बताओ मैं टिकट भेज दूँ। बेटा मैं…मैं कह रही थी कि  …

माँ , ऐसे रुक- रुक कर क्यों बोल रही हो कोई प्रॉब्लम है क्या?

बेटा मैं सोच रही थी कि छोटी को भी साथ…..

अगला भाग

“मनहूसियत” (भाग दो) – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार 

 

 

 

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