बाबू ने एक पल रुककर दोनों को देखा। शायद उन्हें विश्वास था कि इतनी बड़ी बात सुनकर कदम्ब अपना निर्णय बदल देगा लेकिन वे दोनों अब भी चुप थे, तब उन्होंने तुरुप की आखिरी चाल चली –
” एक बात और कान खोलकर सुन लो। हमारे पास जो कुछ है, उसमें से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। यहॉ से जाते ही मैं अपना सब कुछ बेटी दामाद के नाम कर दूॅगा।”
अब कदम्ब को बोलना पड़ा – ” बाबू- अम्मा शायद आपने सुना नहीं है कि हर व्यक्ति के लिये अपने बच्चे से कीमती कुछ नहीं होता है। हम दोनों के लिये भी मेरी बिटिया और उसके जीवन से कीमती कुछ नहीं है। जब आपने उसका जीवन बचाने के लिये नहीं दिया था तो अब मुझे आपका कुछ चाहिये भी नहीं।”
उसने बहुत प्यार से वीथिका का हाथ अपने हाथ में ले लिया – ” हम दोनों के चार हाथ मिलकर मेहनत करके इतना तो कमा ही लेंगे कि अपने बच्चे की अच्छी तरह परवरिश कर सकें। आपको अपनी सारी दौलत जिसको देना है, दे दीजिये।”
” और वह हिजड़ा •••••।” अम्मा बोलीं।
” अब वह हम दोनों की मॉ हैं और अपनी मॉ को अपने साथ रखकर उसकी सेवा करना हर संतान का कर्तव्य है।”
” और हम दोनों के प्रति तुम्हारा कर्तव्य भूल गये।” इस बार बाबू दहाड़े।
” आपने तो हमसे सारे सम्बन्ध खुद ही समाप्त किये हैं तो अब कर्तव्य की बात बाकी ही कहॉ रह गई।” कदम्ब का स्वर शान्त था।
इतना सुनते ही अम्मा पैर पटकती हुई बाहर चली गईं और उनके पीछे बाबू भी दोनों को आग्नेय दृष्टि से देखते हुये निकल गये।
कदम्ब और वीथिका चुप थे। गौरव ने पद्मा का हाथ पकड़ा – ” चलो, जब इन लोगों को मनमानी ही करनी है तो हमारा भी इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। रहें उस हिजड़े के साथ। आज से वीथिका हमारे लिये मर गई है।”
” इस तरह मत कहिये, वह हमारे घर की बेटी है।”
” मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है। अगर तुम इनका साथ देना चाहती हो तो यहीं रहो और कभी मेरे घर मत आना । न कभी मेरे बच्चों से मिलने की कोशिश करना।”
” भाभी, आप जाओ, मेरे लिये अपना घर बरबाद मत करो। मैं कदम्ब के साथ बहुत खुश हूॅ, इनके होते हुये मुझे कुछ नहीं चाहिये।” वीथिका भाई और भाभी के बीच व्यर्थ का कलह नहीं चाहती थी।
तभी पद्मा ने गौरव की ओर देखकर कहा – ” मुझे वाशरूम जाना है। आप बाहर चलो, मैं आ रही हूॅ।”
और बिना गौरव का जवाब सुने वीथिका से बोली – ” वाशरूम किधर है?”
” आप मेरे साथ आइये।”
” जल्दी बाहर आओ। ज्यादा देर न लगाना, नहीं तो मैं तुम्हें यहीं छोड़कर चला जाऊॅगा।” कहकर जगौरव भी सबके पीछे बाहर निकल गया।
उसके जाने के बाद पद्मा बोली – ” वीथिका, अपनी भानजी को मैं गोद में नहीं ले सकती लेकिन दूर से एक नजर दिखा दो। मैं मजबूर हूॅ कि तुम्हारे भाई का चाहकर भी विरोध नहीं कर सकती। मेरा नम्बर ले लो लेकिन फोन मत करना। मैं तुम्हें मौका देखकर खुद फोन कर लिया करूॅगी।”
” लेकिन भाभी, भइया जान गये तो •••••।”
” नहीं जानेंगे, मैं तुम्हारा नम्बर अपनी सहेली राधा के नाम से सेव कर लूॅगी।”
वीथिका ने रेशमा को आवाज देकर लकी को कमरे के दरवाजे पर लाने को कहा। लकी को देखकर पद्मा ने दूर से उसे चूमते हुये आशीर्वाद दिया – ” हमेशा खुश रहना मेरी बच्ची। जिन्दगी में खूब पढो – लिखो, उन्नति करो।”
फिर उसने अपनी अंगूठी उतार कर दरवाजे की चौखट पर रख दी।
” नहीं भाभी, यह मत करिये। भइया का मुझे कुछ नहीं चाहिये। इसे आशीर्वाद दीजिये कि यह स्वस्थ रहे।”
” यह अंगूठी तुम्हारे भइया के पैसे की नहीं है बल्कि मेरी मॉ की दी हुई है। पता नहीं हम दुबारा कब मिलें तो इससे मेरी भानजी के लिये कुछ बनवा देना। मैं अपनी भानजी को खाली हाथ कैसे देख सकती हूॅ, इसलिये इस सम्बन्ध में कोई कुछ नहीं कहेगा।”
पद्मा ने एक नजर कदम्ब पर भी डाली और कहा – ” रही आशीर्वाद की बात तो जिसके पास तुम्हारे जैसी मॉ, कदम्ब जैसा पिता और मॉ जैसी नानी हो उसका कभी बुरा नहीं हो सकता।”
” भाभी, आप भी इन्हें मॉ कह रही हैं?” वीथिका आश्चर्य में पड़ गई।
” तुम्हारी मॉ मेरी और कदम्ब की सासू मॉ हुईं तो मॉ तो हमें भी कहना ही है। चलती हूॅ, अपना ख्याल रखना।रेशमा अवाक रह गई जब पद्मा ने दहलीज को छूकर उसे प्रणाम किया – ” प्रणाम मॉ।”
रेशमा तो कुछ बोल ही नहीं पाई। बस फूट फूटकर रोते हुये हाथ उठा दिया।
पद्मा ने वीथिका को गले लगाया तो दोनों की सिसकारियां निकलने लगीं।
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मंगला मुखी (भाग-18) – ( एवं अन्तिम ) बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर