मन को कचोटती संसद,,, – मंजू तिवारी

लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण पापा अक्सर देखते थे तो धीरे-धीरे मेरी रुचि भी पैदा हो गई और समझने लगी यह जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि है। जिनके लिए मेरे मम्मी पापा दोनों ही ने ही वोट डाला था मम्मी को राजनीतिक समझना थी इसलिए पापा जहां बताते मम्मी वहीं वोट डाल दी थी ज्यादातर हर परिवार में अभी भी यही होता है जहां पुरुष वर्ग बताता है महिलाएं वही ही वोट डालती हैं क्योंकि उनमें राजनीतिक समझ नहीं है या यह कहिए समाज पैदा ही नहीं होने देता यह कहकर कि राजनीति महिलाओं के लिए बहुत गंदी है। अगर राजनीति महिलाओं के लिए गंदी है तो इसे बनाया गंदा किसने,,,,,? क्योंकि राजनीति में अधिकतर पुरुष ही तो है।

राजनीति में अभी भी अधिकतर पुरुष ही है और पुरुष सांसद ही अधिक दिखाई देते हैं महिलाओं का प्रतिशत अभी भी 15 परसेंट ही पहुंच पाया है।

महिलाएं राजनीति में है तो यह तो राजनीतिक घराने से हैं या उच्च वर्ग से है इक्का-दुक्का महिलाएं ही वहां पर अपने आप पहुंची है उसे भी लोग अच्छी नजरिए से नहीं देखते,,,,,

एक साधारण महिला राजनीति में पहुंचेगी तब वह धरातल पर उसके लिए जो समस्याएं हैं उनकी बात कर पाएगी

संसद की कार्यवाही देखती तो जब एक पुरुष सांसद भाषण देता तो मेरी आंखें उस पुरुष सांसद के आजू-बाजू और पीछे वाली सीटों में महिलाओं को ढूंढती कहीं इक्का-दुक्का महिला सांसद ही दिखाई देती तब बाल मन सोचता ऐसा क्यों,,,,,,? 35, 40 साल के अंतराल में भी महिला सांसदों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि नहीं हो पाई यह दुखद है।

पुरुष सांसद बिल पारित करते और बहुमत से पास करा लेते जब कोई महिला विधेयक आता तो महिलाओं के अनुपात कम होने की वजह से रह जाता,,,,,, मुझे लगता यहां पर अपनी बात रखने के लिए महिलाओं की पर्याप्त संख्या नहीं है।,,,,

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राजनीति में महिला आरक्षण की बात हमेशा होती है लेकिन देने के लिए राजी कोई नहीं,,,, संसद में हमारी संख्या का कम होना,,, जहां से कानून बनते हैं जहां से हमारे हितों की बात होनी चाहिए वहां पर हमारी  उपस्थिति का अनुपात बहुत ही कम है।

अभी भी हम बेटियों का घर की चारदीवारी में शोषण हो जाता है। अधिकतर शोषण हम एक दूसरे का ही कर लेते हैं यह विडंबना है। या यूं कहिए सोच को विस्तार ही नहीं देने दिया गया पुरुष प्रधान समाज ही जिम्मेदार है। महिलाएं हमेशा शारीरिक श्रम अधिक करती है मानसिक श्रम का मौका कम दिया जाता है

देश की बागडोर आसानी से हमारे हाथ में कहां देने वाले,,, इस महत्वपूर्ण जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर ही हम कुछ कर सकते हैं।

जिस महिला को देश-विदेश राजनीतिक समझ है उसे भी समाज कम ही बर्दाश्त कर पाता है या उसका उपहास उड़ाता है।

गांव में ग्राम पंचायत में महिला प्रधान तो बना दी जाती है उनके प्रधान पति ना बने इसके लिए भी अंकुश लगाया जाता है फिर भी कहीं ना कहीं डोर महिला के पति के हाथ में ही होती है।




प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सुषमा स्वराज निर्मला सीतारमण उच्च राजनीतिक पदों पर होने के बावजूद शायद भारत की आम बेटी अपने लिए यह सपना नहीं देख सकती कि मैं भी राजनीति के उच्च पद पर  पहुंच आऊंगी उसके लिए आईपीएस बनना राजनीति से शायद आसान होगा,,,, जबकि अब भारत की बेटी के लिए आईएएस बनने से अधिक जरूरी मुझे लगता है राजनीति में आना है। यहीं से कानून पास होते हैं यहीं से विधेयक पास होते हैं और यहां पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली संख्या बहुत कम है। संख्या को बढ़ाना पड़ेगा

किसी बेटी के साथ कोई क्राइम हो जाता है तो संसद में हमारी संख्या कम है तो यहां बात आई गई हो जाती है वह बेटी क्या किसी की सगी है। बेटियों के साथ हो रहे अपराधों के लिए संसद में महिलाओं की जोरदार उपस्थिति जरूरी,,,,,,

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जबकि भारत कि राष्ट्रपति एक महिला ही है फिर भी यह कहना गलत ना होगा अभी भी भारत में महिलाओं का राजनीति में आना बहुत मुश्किल है । राजनीति में महिलाओं की संख्या बहुत कम है इस को बढ़ाना अति आवश्यक है।

कोई हमारे लिए सोचे,,, कोई हमारे हितों के लिए क्यों सोचें ,,,हम बेटियों को अपने हितों के लिए खुद सोचना होगा ऐसी जगह दस्तक देना होगा जहां से हम अपने हितों को सुरक्षित कर सके।,,,,, बेटियों के लिए राजनीतिक समझ पैदा करनी होगी यह भी हमारी जिम्मेदारी है।,,,

और मैं भविष्य के लिए ऐसी आशा करती हूं की संसद में वह दिन जरूर आएगा महिलाओं की आधी संख्या होगी कहने का मतलब आधे महिला सांसद जो अपने हितों की बात करेंगे सारे समाज के हितों की बात करेंगे क्योंकि महिला एक जननी होती है करुणामय होती है वह महिला पुरुष में कभी भी भेद नहीं करेगी और सभी के हितों की रक्षा हो पाएगी

और मुझे पूरा विश्वास है जिस तरह एक महिला के सहयोग से घर चलता आया है ठीक उसी तरह से देश भी चलेगा,,, हमारा देश और समाज उन्नति करेगा

 

मंजू तिवारी, गुड़गांव

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