“अम्मा, मैंने आपके पास जो रुपये जमा किये हैं उनमें से आज मुझे 100 रुपये दे देना।” कहकर बिंदिया फिर से अपने काम में लग गयी।
“ठीक है, जाते समय ले जाना…वैसे आज क्या बात है आज तो तू बड़ी खुश है?”
“हाँ अम्मा, आज मेरी बेटी आशा का जन्मदिन जो है आज वह पूरे 5 साल की हो गयी है और स्कूल भी जाने लगी है…”
“अरे वाह… चलो अच्छा है…उसे तुम जैसी मां और तुम्हें आशा जैसी बेटी मिल गयी… लेकिन मेरी एक बात मानो तो उस पर इतना भी खर्चा मत किया करो कि तुम्हारे हाथ खाली हो जायें…अरे उसके खाने-पीने और कपड़ों जैसी जरूरत की चीजों में ही तुम इतना खर्च कर देती हो कि अब तुम्हारी बचत भी कम होने लगी है उस पर ये स्कूल की पढ़ाई का और खर्चा… आखिर तुम कब तक ऐसे अकेले दूसरों के घरों में काम कर- करके उसका इतना खर्चा उठाओगी….अरे कम से कम ये तो सोचो कि वो कौन सी तुम्हारी बेटी है…अरे जिसने उसको जन्म दिया उसको तो इसकी परवाह नहीं थी जो फेंक दिया मरने के लिए..अब तुम उसका पालन पोषण कर रही हो यही क्या कम है जो ये पढ़ाई- लिखाई का बोझ और ले लिया…”
” देखो अम्मा एक आप ही तो हो जिन पर मुझे पूरा विश्वास है और इसीलिए मैं आपके यहाँ काम करने के बाद हर महीने पगार न लेकर आपके पास ही जमा करती रहती हूं जिससे जरूरत पड़ने पर ले सकूँ और रोज का खर्चा तो और दो घरों में काम करने की पगार में से हो ही जाता है इसलिए खर्चा की तो ज्यादा चिंता नहीं है मुझे…चिंता तो मुझे केवल इस बात की है कि आशा अच्छे से पढ़-लिख जाए जिससे उसे मेरी तरह जिंदगी न बितानी पड़े।”
“अरे बिंदिया थोड़ी सी चिंता अपनी भी कर लिया कर कभी-कभी, देख अपने शरीर को क्या हाल बना रखा है, आखिर कब तक उस दूसरे की बेटी की चिंता करती रहेगी…”
“क्या अम्मा आप भी कैसी बातें करती हो, क्या जन्म देने से ही मां का रिश्ता होता है, ममता का कोई मोल नहीं? अरे मैंने उसे जन्म से अपने आँचल की छांव में पाला है, कभी अपने से अलग नहीं किया, फिर आप बार – बार ये क्यों कह रही हो कि वो मेरी बेटी नहीं है? आशा मेरी ही बेटी है और केवल मैं ही उसकी माँ हूं। वो नहीं जो उसको जन्म देकर यहां मरने के लिए फेंक गयी थी। अम्मा अगर खून के रिश्ते ही सब कुछ होते तो आज मेरी ये स्थिति नहीं होती। मेरा विवाह करते समय मेरी माँ बाबूजी ने ये कहा था कि बेटी व्याह के बाद लड़की का ससुराल ही उसका घर होता है और यहां से डोली उठने के बाद अर्थी वहीं से उठती है…तो अम्मा आप ही बताओ जब मेरे विवाह के सालभर बाद ही मेरे पति की एक दुर्घटना में मौत हो गयी और थोड़े ही दिनों में ससुराल वालों ने मुझे मनहूस कहकर घर से बाहर निकाल दिया तो मैं क्या करती और इन सबमें मेरा क्या दोष….मायका भी बहुत दूर था और फोन की भी कोई सुविधा थी नहीं, वैसे मायके जाकर भी क्या करती जब पहले ही समझा दिया गया था कि वहां से डोली विदा होने के बाद ससुराल से अर्थी ही उठती है अतः खुद का जीवन खत्म करने की ही सोच ली थी और फिर जीने का कोई कारण भी तो नहीं था सोचा कि क्या करूंगी ऐसे जीकर ….और एक विधवा जिसका साथ परिवार ही छोड़ चुका है तो ये दुनिया क्या देगी….यही सोच विचार कर जब मैं नदी पर जा रही थी तब मुझे ये बच्ची वहीं एक कपड़े में लिपटी, रोते हुए मिल गयी जिससे मैं खुद को मारने का विचार छोड़ इसको लेकर इसका जीवन संवारने के लिए यहां आ गयी और तभी से अपना सारा जीवन इसी का कर दिया है तो मैं कैसे उसे किसी और की बेटी कह दूं। वह मेरी ही बेटी है अम्मा, केवल मेरी…और मैं ही इसकी मां हूं इसलिए अब तो मेरी हर खुशी उसी की खुशियों में है….”कहकर बिंदिया जल्दी से अपना काम खत्म करने लगी।
राधा देवी जिन्हें बिंदिया अम्मा बुलाती, ने उसे 100 रुपये देते हुए नम आंखों से कहा “बिंदिया ये लो मेरी तरफ से आशा बेटी के जन्मदिवस पर 100 रुपये…भगवान तुम दोनों को हमेशा खुश रखे। मेरी सारी उम्र बीत गयी लेकिन आज मुझे पता चला कि एक मां की ममता जन्म देने से ज्यादा पवित्र और महान होती है, केवल जन्म देने से ही एक औरत मां नहीं बन सकती….”
बिंदिया खुशी खुशी अपने घर चल दी और यहां राधा देवी सोचती रहीं कि इस दुनिया में एक तरफ कैसे लोग हैं जो अपने स्वार्थवश अपने बच्चों को ही अपने से अलगकर कचरे में फेंक देते हैं, उनमें ममता तो छोड़ो जरा सी इंसानियत भी नहीं होती और दूसरी तरफ कहां बिंदिया जैसे लोग जिनमें ममता कूट कूट कर भरी होती है कि वो दूसरे के बच्चे को भी हर हाल में खुशी से पालने का जज्बा रखते हैं….काश ऐसी ममता और इंसानियत सभी लोगों के दिलों में हो जिससे कोई बच्चा यूं सड़कों पर लावारिस न मिले क्योंकि जरूरी नहीं कि हर आशा को बिंदिया ही मिले….।।।
प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’