family story hindi kahani : ” साथियों…., आज मैं जो कुछ भी हूँ उसके पीछे मेरी माँ नम्रता का प्यार और उनका ममता भरा स्पर्श है।मेरी माँ ने…।” संदीप अपनी बात कहता जा रहा था और दर्शक-दीर्घा के पहली पंक्ति की सीट पर बैठी नम्रता उसे बहुत ध्यान-से सुन रही थी।अपने लिये माँ शब्द सुनना उसे बहुत अच्छा लग रहा था।कुछ वर्ष पहले तक संदीप के मुख से ‘माँ’ शब्द सुनना उसे एक गाली समान लगता था क्योंकि…।
माता-पिता की लाडली थी वह।दादी को उससे विशेष लगाव था।माँ से अक्सर कहा करतीं थीं, ” जानकी…देर से सही लेकिन भगवान ने जो लछमी तेरी गोद में दी है …वो लाखों में एक है।ऐसी सौभाग्यशाली है कि उसके जन्म लेते ही पिता के व्यवसाय में तरक्की होने लगी और देख लेना…, ससुराल जाकर पति की खुशियाँ भी दोगुनी-चौगुनी कर देगी।”
बीस बरस की होते-होते नम्रता की दादी ने उसके ब्याह के लिये ज़ोर देना शुरु कर दिया।संजोग की बात थी, अच्छा रिश्ता उसके लिये तैयार बैठा था।पिता के ही परिचित के द्वितीय पुत्र थें अखिलेश।दिल्ली में उनकी अपनी कंपनी थी।बस चट मंगनी ब्याह हो गया और वह मिस से मिसेज़ नम्रता बनकर दिल्ली आ गई।
समय बीतता गया…नम्रता आकाश और अंकिता की माँ बन गई।अखिलेश सभी का बहुत ख्याल रखते थें। अपने ऑफ़िस के बाद का वे पूरा समय अपने बच्चों के हाथ ही बिताते थें।बच्चे स्कूल जाने लगे तो उन्हें पढ़ाने और उनका होमवर्क कराने में ही वह व्यस्त हो गई।
कुछ दिनों से अखिलेश घर देर से लौटने लगे।पूछने पर वे कहते कि मीटिंग देर तक चलती रही।नम्रता ने फिर कोई ख़ास ध्यान दिया नहीं।अचानक काॅलोनी में एक बात फैली और उड़ते-उड़ते उसके कानों तक पहुँची कि अखिलेश जी का अपने ऑफ़िस के ही एक एंम्प्लाॅइ के साथ इश्क चल रहा है।सुनकर उसे विश्वास नहीं हुआ।उसने सोचा…उनकी तरक्की से ईर्ष्यावश किसी ने अफ़वाह फैला दी होगी।
इस बारे में पति से पूछने की नम्रता हिम्मत जुटा ही रही थी कि एक दिन वे घर देर रात लौटे लेकिन अकेले नहीं।उनकी गोद में एक नवजात शिशु था।वह चकित थी।पूछा तो उन्होंने बताया कि पिछले दो साल से वे और संध्या रिलेशनशिप में थे।संध्या बच्चे को जन्म देकर दो दिन बाद ही…।ये बच्चा हम दोनों का….।उसके तो पैरों के नीचे से ज़मीन ही निकल गई।इक पल को लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया हो।एक तरफ़ पति की बेवफ़ाई और दूसरी तरफ़ बिन माँ का वह नवजात।तब आकाश आठ साल का था और अंकिता छह वर्ष की मासूम।अखिलेश को छोड़ देना अपने बच्चों को सज़ा देना होता और फिर वह बच्चा….।उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी वह बच्चा रोने लगा तब वह सचेत हुई।उसने अपने मन को समझाया…..आज तो ठीक है लेकिन कल ये मेरे घर में नहीं रहेगा।
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नम्रता ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया, दूध में पानी मिलाकर पतला दूध उसे पिलाकर सुला दिया और खुद भी सोने का प्रयास करने लगी लेकिन उसकी आँखों में नींद कहाँ….।पति की बेवफ़ाई और उसका सबूत सामने….सबकुछ उसे बैचैन कर रहा था।उसने सोचा बच्चे को अनाथालय में देकर पीछा छुड़ा लेगी, फिर सोचा… एक आया रख लेती हूँ, साल भर का होते ही उसे अपने घर से बाहर कर दूँगी।
बच्चा आया की गोद में पलने लगा।आकाश-अंकिता को नम्रता ने रिश्तेदार का बच्चा कहकर परिचय दिया।दोनों उसे मुन्ना कहकर बुलाते और खूब खेलते।नम्रता की जगह कोई और स्त्री होती तो पति से लड़ती-झगड़ती, उसे ताने देती लेकिन नम्रता ने ऐसा नहीं किया।वह पति-पत्नी के बीच के तनाव को बच्चों पर ज़ाहिर करना उचित नहीं समझती थी, इसलिए पति से वह हाँ-ना तक ही सीमित थी।
बच्चा साल भर का हो गया, चलने लगा तब नम्रता उसे अनाथालय छोड़ने को तत्पर हुई लेकिन उसकी मासूम आँखों को देखकर वह रुक गई।समय बीतता गया।चाहकर भी उसने बच्चे को अपनी गोद में कभी नहीं।उठाया।कुछ साल पहले उसने अपनी सहेली को सलाह दी थी,” बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं फिर बच्चे-बच्चे में फ़र्क ऐसा….।” आज उसे समझ आया कि सलाह देना तो आसान है लेकिन उस पर अमल करना कितना कठिन…।
नम्रता ने अनाथालय भेजने का ख्याल छोड़ दिया लेकिन बच्चे को पुत्ररूप में स्वीकार करने के लिये वह कतई तैयार न थी।स्कूल में उसका नाम संदीप उसने ही रखा था।अखिल-अंकिता को सुनकर संदीप भी उसे माँ कहता तो उसे लगता जैसे किसी ने उसके कानों में पिघला शीशा डाल दिया हो।बच्चों के आपसी प्यार को देखकर वह चुप रह जाती।
संदीप का मासूम चेहरा देखकर और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर कई बार उसकी ममता उसे संदीप की ओर खींचती लेकिन फिर अखिलेश-संध्या का ख्याल आ जाता और वह अपने ममता को रोक लेती।किसी भी स्त्री के लिये सौत के बच्चे पर अपनी ममता लुटाना कितना कठिन होता है…ये उसे अब समझ आ रहा था।
एक दिन स्कूल से आते समय संदीप बारिश में भींग गया था।उसे खाँसी के साथ तेज बुखार हो गया था।आया उसके साथ थी, फिर भी वह माँ- माँ कहकर नम्रता को ही पुकार रहा था पर न जाने क्यों उसके कदम संदीप के कमरे तक जाकर रुक जाते।अखिलेश नम्रता के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे, वे उसके मन में चल रहे उथल-पुथल से भी भली-भांति परिचित थे।
एक दिन उन्होंने नम्रता से कहा कि बरसों बीत गये, अब तो मुझे माफ़ कर दो…मेरी उम्र ढ़ल रही है..कल मैं रहूँ ना रहूँ ….।उसने तुरन्त पति के ओंठों पर अपना हाथ रख दिया था और खूब रोई थी।बरसों से दबा उसका दर्द आँसू बनकर बह निकले थे।दोनों ने बच्चों को संदीप की सच्चाई बताई…संदीप भी अब समझदार हो चुका था।उसके लिये नम्रता ही उसकी माँ थी….उसकी ममता भरे स्पर्श पाने की ललक उसे अब भी थी।
कहते हैं ना कि समय बड़ा बलवान होता है।संदीप की दसवीं बोर्ड की परीक्षाएँ होने वाली थीं।वह अपनी पढ़ाई कर रहा था कि अचानक उसे कुछ गिरने की आवाज़ सुनाई थी।वह दौड़कर ड्राइंग रूम में गया तो देखा कि नम्रता बेहोश पड़ी थी।एक बार तो वह घबरा गया…क्या करे..कुछ समझ नहीं आया।अखिलेश काम के सिलसिले में शहर से बाहर गये हुए थें, अखिल दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था और अंकिता काॅलेज़ में थी।
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बिना समय गँवाये संदीप ने एंबुलेंस का नंबर डायल किया और माँ को लेकर हाॅस्पीटल पहुँचा।डाॅक्टर ने चेकअप करके बताया कि घबराने वाली कोई बात नहीं है, थोड़ी देर में होश आ जायेगा।तब उसने पिता और भाई को फ़ोन पर माँ के बारे बताया।अंकिता के लिये वह घर पर एक मैसेज़ छोड़ आया था।
होश आते ही नम्रता ने इशारे-से नर्स से पूछा कि वह यहाँ कैसे…? तब नर्स ने उसे बताया कि एक पंद्रह-सोलह साल का लड़का ही आपको यहाँ एडमिट कराया है, आपके होश में आने तक यहीं था…वो देखिये..डाॅक्टर साहब से बात कर रहा है…वो शायद आपका…।
” मे..रा छोटा बे..टा सं..दीप है..।” अस्पष्ट शब्दों में नम्रता बोली।उसके स्वर भीगे हुए थे और आँखों से अश्रुधारा बह रही थी।आज उसकी सारी नफ़रत,द्वेष, कड़वाहट हार गई और ममता जीत गई थी।संदीप ने जब उससे पूछा कि माँ…आप कैसी हैं तब वह अपने आपको रोक न सकी।बेटे को अपने सीने से लगाकर रो पड़ी।ये खुशी के आँसू थें जो माँ-बेटे की आँखों से बह रहे थे।
अखिल डाॅक्टर बनकर मुंबई शिफ़्ट हो गया।अंकिता भी अपने ससुराल चली गई।अखिलेश का स्वास्थ्य गिरने लगा।वे चाहते थें कि संदीप अपना एमबीए पूरा करके उनकी कंपनी को संभाल ले लेकिन इंसान की सभी इच्छाएँ तो पूरी होती नहीं।
संदीप के इम्तिहान में अभी दो महीने बाकी थें।अखिलेश इंतज़ार नहीं कर सके, एक रात नींद में ही हृदयगति रुक गई और वे….।जाने से पहले उन्हें सुकून था कि संदीप के पास नम्रता की ममता की छाँव है।
संदीप के इम्तिहान हुए, वह अच्छे अंकों से उत्तीर्ण ही नहीं हुआ बल्कि उसने यूनिवर्सिटी में सर्वोच्च स्थान भी प्राप्त किया था।आज दीक्षांत समारोह में उसे डिग्री के साथ गोल्ड मेडल भी दिया जा रहा था।सबने उससे पूछा कि आपकी सफ़लता का रहस्य क्या है।तब उसने कहा कि मेरी माँ है….।यही शब्द नम्रता के कानों में मिश्री घोल रहे थे।वह स्वतः मुस्कुराने लगी तभी तालियों की गड़गड़ाहट से उसकी तंद्रा टूटी।हाथ में डिग्री लिये और गले में गोल्ड मेडल पहने अपने बेटे को देखकर ममतामयी नम्रता फूली नहीं समा रही थी।
विभा गुप्ता
# ममता स्वरचित
किसी ने सच ही कहा है कि पूत कपूत हो सकता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती।संध्या के बच्चे पर अपनी ममता लुटाना नम्रता के लिये आसान न था।अपने अस्तित्व से उसे कई बार जूझना पड़ा परन्तु एक नारी के साथ-साथ वह एक माँ भी थी,इसीलिए उसकी ममता की जीत हुई।