” बस माँ…अब बंद करो अपना ये नाटक…जब देखो…।” कहते हुए विवेक ने दही की कटोरी नीचे फेंक दी और बेसिन का नल खोलकर अपने हाथ धोने लगा।देविका जी सकपका गई।कुछ गिरने की आवाज़ सुनकर वंदना किचन से बाहर आई…एक तरफ़ खड़ी अपनी सास को उसने देखा…फिर फ़र्श पर गिरी दही की कटोरी देखी तो वह गुस्से- से चिल्लाई,” ये क्या तरीका है..माँजी का तो अपमान किया ही है आपने और अन्न देवता का भी…।
तीन साल पहले वंदना जब इस घर में बहू बनकर आई थी,तब उसने देखा कि अक्सर ही उसके ससुर अपनी पत्नी को अपमानित करते हैं।उसे बड़ा अजीब लगा था।कभी-कभी विवेक भी अपनी माँ को झिड़क देता था।वह नई-नई थी…कुछ भी पूछने में उसे हिचक होती थी।एक दिन उसने अपनी सास को सुबकते देखा तो उससे रहा नहीं गया।उसने देखा कि विवेक ऑफ़िस गये हुए हैं और उसके ससुर भी बैंक के काम से बाहर निकले हुए हैं तो वह सास के पास गई और उनके कंधे पर हाथ रखा।एक स्नेह-भरा स्पर्श पाकर उसकी सास फूट-फूटकर रोने लगी थी।
वंदना ने अपनी सास को रोने दिया…फिर उनके आँसू पोंछते हुए बोली,” माँजी…मैं ने आपको अपनी माँ समझा है तो क्या आप मुझे अपनी बेटी नहीं समझ सकती।”
एक अरसे बाद देविका जी ने अपने लिये स्नेह भरे शब्द सुने तो फिर उन्होंने अपना दिल खोल दिया,” ससुर जी मेरे पिताजी के अच्छे मित्र थें।एक दिन वो हमारे गाँव आये..।मेरे व्यवहार से वो बहुत प्रसन्न हुए और मेरे पिताजी से बोले कि मैं अपने बेटे मनोहर का विवाह तुम्हारी बेटी देवकी के साथ करना चाहता हूँ।मेरे पिताजी बोले कि एक बार अपनी पत्नी और बेटे से तो पूछ लो.. तुमलोग शहरी बाबू हो…फ़ैक्ट्री के मालिक हो और हम ठहरे एक मामूली किसान….।तब मेरे ससुर बोले कि मेरी पसंद ही सबकी पसंद है।
शादी के बाद यहाँ आई तो कई दिनों तक तुम्हारे ससुर मेरे से दूर ही रहे…।तुम्हारी दादी सास भी मुझसे ठीक से बात नहीं करतीं थीं।ससुर जी के सामने तो हम अच्छी बहू और अच्छी पत्नी कहलाते लेकिन अकेले में…।फिर एक दिन मेरी चचेरी ननद हमसे मिलने आईं तब मैंने उन्हें अपने पति और सास के व्यवहार के बारे में कहा। तब उन्होंने मुझे बताया कि ताई जी मनोहर भईया के लिये शहर की पढ़ी-लिखी लड़की लाना चाहते थें।ताऊ जी ने आपको पसंद कर लिया तो…।पर भाभी आप चिंता मत कीजिये…मैं हूँ ना…सब ठीक कर दूँगी…और फिर सच में चमत्कार हो गया।
नौ महीने बाद विवेक मेरी गोद में खेलने लगा।ससुर जी बहुत खुश हुए…सास तो विवेक को अपनी गोद से नीचे उतारती ही नहीं थी।पर बेटी…वो खुशियाँ तो बस चार दिन की चाँदनी थी।” कहते हुये देविका जी ने वंदना के हाथ पर अपना हाथ रखा और एक ठंडी साँस छोड़ते हुए बोली,” विवेक चार बरस का रहा होगा…मेरे ससुर को हार्ट अटैक आया और वे…।उस दिन के बाद से तुम्हारे ससुर फिर से बदल गये।बात-बात पर मुझपर झल्लाते…मैं पास जाने की कोशिश करती तो मुझे दुत्कार देते।करवाचौथ पर मैं उनकी आरती उतार कर चरण-स्पर्श करने लगी तो मुझे ठोकर मारते हुए बोले,” बंद करो अपना ये नाटक।” अब तो उनकी फोटो देखकर ही…।विवेक बड़ा हो रहा था..सास उसे मेरे पास आने नहीं देती..मेरे खिलाफ़ भड़कातीं…।मैं पास रहकर भी अपने बच्चे के लिए तरस कर रह जाती थी।अब बच्चा जो देखेगा..वही तो सीखेगा।कभी-कभी विवेक भी मुझपर चिल्लाने लगता।मुझे लगा कि बड़े होने पर शायद…पर नहीं..।सास दुनिया से चलीं गईं..फिर तुम आई।मुझे खुशी हुई कि विवेक को माँ पसंद की नहीं मिली लेकिन पत्नी तो उसकी मनपसंद की है ना…।” देविका जी के चेहरे पर सुकून के भाव थे।उस दिन वंदना ने अपनी सास से कह दिया कि अब आप अपने बेटे का कोई काम नहीं करेंगी…।
फ़ैक्ट्री में नयी मशीन लगने वाली थी।माँ का दिल था…नहीं माना और बेटे को दही-शक्कर खिलाकर शगुन करने लगी तो विवेक ने उन्हें झटक दिया और हाथ धोकर फ़ैक्ट्री चला गया।
शाम को विवेक लौटा तो उसने वंदना से बात नहीं की।रात को दूध का गिलास लेकर वंदना कमरे में आई तो देखी कि विवेक मुँह फेरकर सोने की कोशिश कर रहा है।वंदना उसके करीब जाकर बोली,” आपको माँ के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था।मानती हूँ कि बचपन में जो आपने देखा..वही किया लेकिन अब तो आप समझदार हैं..आपने कैसे मान लिया कि माँ की ममता एक नाटक है।पिछले दिनों आपने ही मुझे बताया था कि सुशील की दूसरी मम्मी हैं लेकिन उसे बहुत प्यार करतीं हैं और सुशील भी उनपर जान छिड़कता है।फिर माँजी ने तो आपको नौ महीने तक अपनी कोख में रखा है…आपके लिये रात-रात भर जागी हैं…आपको एक खरोंच भी आती थी तो उनको दर्द होता था।तो क्या..वह सब एक नाटक था।विवेक..माँ की ममता में कोई मिलावट नहीं होती..वह तो निश्छल और निस्वार्थ होती है।ज़रा सोचिये…मैं भी माँ बनने जा रही हूँ…क्या आप चाहते हैं कि हमारा बच्चा भी आपकी तरह….ये सोचकर ही मेरी रूह काँप जाती हैं।माँजी तो बरसों से एक ही घाव की टीस को सहती आ रहीं हैं।फिर भी मेरा गुस्सा होना आपको बुरा लगा है तो आई एम साॅरी…।” कहकर वंदना करवट बदलकर सोने का प्रयास करने लगी।विवेक की आँखों में अब नींद नहीं थी…वह अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिंदा था।
बेटे के व्यवहार से देविका जी का मन आहत था…रोते-रोते उनकी आँख कब लग गई..उन्हें पता ही नहीं चला।अपने पैरों पर कुछ गीला-सा महसूस होने पर उनकी आँख खुली…सामने विवेक को बैठा देखी तो उनका मन प्रफुल्लित हो उठा।भीगे नयनों से विवेक अपनी माँ को देख रहा था जैसे कह रहा हो,” माँ…ये नाटक नहीं है…।”
देविका जी ने अपने बेटे को सीने-से लगा लिया…माँ-बेटा जी भरकर रोयें रहे…अपनी प्यास बुझाते रहे और दूर खड़ी वंदना इस अनुपम दृश्य का आनंद उठाते हुए मंद-मंद मुस्कुराती रही।
विभा गुप्ता
स्वरचित
# बंद करो अपना ये नाटक