माधुरी ने मखाने की खीर बनाई थी।पति को परोस कर एक कटोरी खीर लेकर बेटी के कमरे में गई और दरवाज़ा बंद कर उसकी तस्वीर के सामने रख कर रो पड़ी।रोते-रोते बोली,” तू कहाँ चली गई मेरी बच्ची…तुझे देखने के लिये मेरी आँखें तरस गई है।
तेरे पापा तो कठोर बन गये लेकिन मैं क्या करुँ…माँ के # दिल पर कोई ज़ोर चलता नहीं बेटी…।”
माधुरी का विवाह कस्बे के नामी चौधरी परिवार के इकलौते पुत्र अनिकेत चौधरी के साथ हुआ था जो दिल्ली में एक बैंक अधिकारी थे।विवाह के बाद वो तीन-चार महीने सास-ससुर के साथ ससुराल में रही और फिर पति के साथ दिल्ली आ गई।
दो साल बीतते-बीतते माधुरी एक बेटी की माँ बन गई।दो महीने की बेटी को लेकर जब ससुराल आई तो उसकी सास बच्ची को गोद में लेकर बोलीं,” मेरी पोती है धरा है।” बस तभी से वह भी बेटी को धरा कहकर ही पुकारने लगी थी।
समय के साथ धरा चलना-बोलना सीखने लगी।अनिकेत बैंक से आकर बेटी के साथ बतियाने में इतना मगन हो जाते कि माधुरी ही उन्हें याद दिलाती कि चाय ठंडी हो रही है।धरा स्कूल जाने लगी तब तो माधुरी उसे तैयार करने,
उसके लिये टिफ़िन बनाने और उसका होमवर्क कराने में ही व्यस्त हो गई थी।धरा की छुट्टियाँ होती तो वह ससुराल और कभी-कभी अपने मायके हो आती थी।
बारहवीं पास करके धरा काॅलेज़ में आ गई थी।तब एक दिन उसकी सास बोली,” सुन माधुरी…इस परिवार के लोगों को अपनी मान-मर्यादा बहुत प्यारी होती है।उसके लिये जान तक लेने को तैयार हो जाते हैं।अपनी धरा सयानी हो गई है..कहीं..इधर-उधर न हो…इस बात का ख्याल रखना।”
” लेकिन ऐसा दिखता तो नहीं है माँ… धरा के पापा तो अपनी बेटी से बहुत प्यार करते हैं।” माधुरी बोली।
” वक्त आने पर ही खून अपना रंग दिखाता है…।” सास चुप हो गईं, फिर बोलीं,” तुमने नंदिनी बुआ का नाम तो सुना ही होगा..वो एक विजातीय लड़के से विवाह करने वाली थी।मेरी सास ने अपने बेटे से कहकर उस लड़के को…
और अगले दिन खेत के पास वाले तालाब में नंदिनी की लाश मिली।” कहते हुए उन्होंने ठंडी साँस ली।माधुरी ने उस बात को दिमाग से निकाल दिया क्योंकि उसे अपनी बेटी और पति पर अटूट विश्वास था।लेकिन नियति का क्या….वो तो एक अलग ही खेल रच रही थी।
निधि नाम की एक लड़की धरा के साथ पढ़ती थी जो पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखती थी।एक दिन धरा नोट्स लेने निधि के घर गई तो एक हैंडसम लड़के को देखकर चौंक गयी।तब निधि ने बताया कि मेरे नितिन भईया हैं।कानपुर के काॅलेज़ में लेक्चरर हैं।
नितिन के आकर्षक व्यक्तित्व पर से वह अपनी नज़र न हटा सकी।उसके बात-विचार से वह प्रभावित होती चली गई।नितिन की आँखों में भी धरा का रूप बस गया।दोनों का मिलना-जुलना होने लगा।नितिन की माँ ने बेटे को आगाह किया कि ये रिश्ता संभव नहीं है लेकिन इश्क पर तो कोई ज़ोर चलता नहीं।
एक दिन निधि ने अपनी माँ को नितिन की तस्वीर दिखाते हुए अपने मन की बात कह दी।तब माधुरी बोली,” पिछड़े वर्ग का होने के कारण तेरे पापा शायद न माने लेकिन नितिन हैंडसम है और शिक्षित भी तो उनको कोई आपत्ति नहीं होगी…उससे कहना कि अपने माता-पिता को लेकर हमसे मिले।”
नितिन जब अपने माता-पिता के साथ निधि के घर आया तब अनिकेत ने निधि को वहाँ से जाने का कहकर नितिन और उसके माता-पिता को बहुत भला-बुरा कहा और उनकी बेइज्ज़ती की।पति का ऐसा उग्र रूप माधुरी ने पहली बार देखा था।
नितिन के माता-पिता से क्षमा माँगते हुए उसने तुरंत उन्हें जाने को कहा।उसके बाद उसने पति को समझाने का प्रयास किया।जवाब में अनिकेत इतना ही बोले,” अपनी बेटी को परिवार की मान-मर्यादा समझा दो वरना…।”
धरा समझ गई कि उसके पिता नितिन को कभी नहीं स्वीकारेंगे।एक दिन उसने माधुरी से कहा,” माँ..आज मेरी वाली मखाने की खीर बनाना..काॅलेज़ से आकर खाऊँगी।”
” हाँ- हाँ बेटी..ज़रूर बनाऊँगी।” बेटी को खुश देखकर माधुरी भी चहक उठी थी।वह खीर बनाकर धरा का इंतज़ार करने लगी।शाम के चार से पाँच बज गये लेकिन धरा का कुछ पता नहीं।बैंक से आकर अनिकेत ने भी पूछा तो वह झूठ बोल दी कि दस मिनट पहले ही मान्यता के घर गई है।अंधेरा होने लगा तो उसे आशंका हुई कि कहीं….।उसने धरा के कमरे की तलाशी ली तो मेज पर एक चिट्ठी रखी थी-
“माँ…मैं नितिन के साथ कोर्ट मैरिज़ कर रही हूँ।मुझे माफ़ कर देना और पापा को समझा देना।आपकी- धरा” उसके तो मानों पैर के नीचे से ज़मीन ही निकल गई हो।अनिकेत का क्रोध सातवें आसमान पर था।
उसने बड़ी मुश्किल से यह कहकर उन्हें शांत किया कि कुछ भी करने से बदनामी तो हमारी ही होगी।तब अनिकेत बोले,” इस घर में उसका नाम न लेना…हमारे लिये वो मर गई है।
” बस तब से वह जब भी मखाने की खीर बनाती तो इसी तरह बेटी को याद करके रोती।आज चार बरस से वह अपनी बेटी को देखने के लिये तरस रही है।
तभी माधुरी के फ़ोन पर लाइट चमकी..धरा का नाम पढ़कर वह चौंक उठी, मैसेज था, माँ..मैं कल आ रही हूँ।”उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।एक मन किया कि पति को खुशखबरी दे दे लेकिन फिर सोचा कि अचानक देखेंगे तो धरा को अपने सीने-से लगा लेंगे।
अगली सुबह माधुरी बेटी के स्वागत की तैयारी कर रही थी कि काॅलबेल बजी।उसके जाने से पहले ही अनिकेत ने दरवाज़ा खोला।सामने धरा और नितिन को देखकर उन्होंने गुस्से-से शेल्फ़ से अपनी रिवाल्वर निकाली और उनपर तान दी।तभी धरा के आगे माधुरी आकर खड़ी हो गई और लगभग चीखते हुए बोली,”
पहले मुझपर गोली दागिये…आपकी आज्ञा का पालन करके मैं चार बरस तक अपने कलेज़े के टुकड़े से दूर रही लेकिन अब नहीं…आपका कलेज़ा पत्थर हो गया है..जिस बेटी को देखे बिना आपकी सुबह नहीं होती थी उसी को आज…
आपको अपनी बेटी से ज़्यादा जात-पात और भेदभाव का ख्याल है तो कर लीजिये अपने मन की..।”वह तैश में अगला- पिछला सब बोलती चली गई।फिर बोली कि चलाइये गोली और हम सबको खत्म करके ये किस्सा खत्म कर दीजिये।”
पत्नी का रौद्र रुप देखकर अनिकेत के हाथ से पिस्तौल गिर गया।उनकी आँखें नम हो आई तभी अपनी माँ की ऊँगली पकड़़े सहमा-सा नन्हा अंश बोल पड़ा,” नानू…आप हमछे गुच्छा हो(आप हमसे गुस्सा हैं)
” नवासे की बात सुनकर अनिकेत की आँखों में ठहरा आँसू झर-झर बहने लगा।आगे बढ़कर उन्होंने अपने दोनों हाथ फैलाकर बेटी- दामाद को अपने अंक में समेट लिया।पिता-पुत्री की आँखों से बहती जलधारा में उनके गिले-शिकवे भी बह गये थे।
अनिकेत अंश को अपनी गोद में बिठाकर मखाने की खीर खिलाने लगे तब माधुरी मुस्कुराते हुए बोली,” सच है, पिता के दिल पर भी कोई ज़ोर चलता नहीं।” फिर तो बेटी-दामाद के साथ अनिकेत भी हँस पड़े।”
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# दिल पर कोई ज़ोर चलता नहीं
VM