सेठ रतनलाल की शानदार हवेली और उससे जुड़ा हुआ एक बहुत बड़ा कमरा, जहाँ जसवंत के जन्म लिया, खेला, बड़ा हुआ और आज बैंक में मैनेजर बन गया है।सुबह का समय वह कमरे के बाहर बनी एक छोटी सी फुलवारी में अपने मित्र रमेश के साथ कुर्सी पर बैठा हुआ चाय पी रहा था।
रतन बाबू को चाय बनाकर उनके बिस्तर पर ही देकर आया था, सुबह-सुबह उन्हें उठने में परेशानी होती थी। रमेश ने कहा -‘यार अभी तक तो सही था मगर अब तो तेरी बैंक में नौकरी लग गई है, अब तो तू दूसरा अच्छा मकान ले सकता है, कब तक इस एक कमरे में रहेगा।’ जसवंत ने कहा-‘यार बात एक कमरे की या बड़ी इमारत की नहीं है।
तुम्हें पता है जब न मेरे सिर पर न छत थी न पैरो के नीचे जमी। माँ का साया था तो वह भी साथ छोड़ गई। उस समय माँ का तेरह दिनों का कार्यक्रम इसी हवेली से हुआ था, बाबूजी ने किसी बात की कमी नहीं रहने दी। मैं बहुत मायूस था, सिर्फ बारह बरस का था।
बाबूजी ने मेरे सर पर हाथ रहा था और कहा था -‘ बेटा !परेशान मत हो, हम सब तेरे हैं और “ये घर तुम्हारा भी है” बस उस दिन से मन बाबूजी के प्रति श्रद्धा से भर गया। हर पल ऐसा लगता कि काश, मैं बाबूजी के लिए कुछ कर पाऊँ। बाबूजी ने कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मैं इस घर में काम करने वाला नौकर हूँ। आज मैं जो भी हूँ उनकी बदौलत हूँ।
आज विनय भैया विदेश में है, विभा जीजी उनके ससुराल में है। मालकिन भी साथ छोड़कर चली गई। बाबूजी अकेले रह गए है,बहुत कमजोर हो गए हैं।मेरा फर्ज है कि मैं उनका ध्यान रखूँ,उन्हें छोड़कर जाने की बात सोच भी नहीं सकता।’ कहते हुए जसवंत की ऑंखें नम हो गई थी।
रमेश ने कहा ‘भाई तू मेरी बातों को दिल पर मत ले, मैंने तो वैसे ही कह दिया था, अगर तेरी खुशी इसमें है तो तू यहीं रह, मैं चलता हूँ,कल ऑफिस में मिलेंगे।’ रमेश चला गया। भोजन बनाने के लिए आशा आंटी आ गई थी। जसवंत ने बाबूजी को नाश्ता ले जाकर दिया दवाई दी और कुछ देर उनके पास बैठकर बातें की।
वे बोले ‘बेटा! अगर तू नहीं होता तो मैं तो बिल्कुल अकेला रह जाता। विनय और विभा रोज फोन पर बात करते हैं पर बेटा फोन से बात करने पर वह सुख नहीं मिलता जो साथ रहने पर मिलता है। बेटा! तू तो मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाएगा ना?’ कहते हुए उनकी आवाज भर्रा गई थी। ‘कहाँ जाऊँगा बाबूजी? आपके सिवा मेरा है कौन?’
जीवन चल रहा था।रतन बाबू को कभी वह दिन याद आता तो वे सिहर उठते।दीनू जो उनकी दुकान में काम करता था, किस तरह एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुआ,उसकी गर्भवती पत्नी सुजाता का विलाप ,और सेठ जी के सामने मदद की गुहार करना।उन्हें सबकुछ याद था। सेठ जी ने अपनी इन्सानियत का परिचय दे उसे सहारा दिया था।
सुजाता ने भी अपने पूरे जीवन काल में ईमानदारी से घर के कार्य किए और बिमारी हालत में सेठानी निरूपा की भी बहुत सेवा की। जसवंत भी उस सेवाभावी माँ का बेटा था, बाबूजी की सेवा पूरी श्रद्धा से कर रहा था, मगर एक दिन उन्हें भी ईश्वर का बुलावा आ गया।
जसवन्त के जीवन में सूना पन आ गया । विनय और विभा दोनों आ गए थे, उनका अन्तिम संस्कार पूरे विधि विधान से किया गया। तैरह दिन बाद जसवंत ने अपने कमरे की चाबी विनय को दी,तो उसने जसवंत को अपने गले से लगा लिया और कहा- ‘जसवंत तुम मेरे छोटे भाई हो, इस तरह घर छोड़कर कर नहीं जा सकते “यह घर तुम्हारा भी है।” बाबूजी ने अपनी वसीयत में यह घर हम तीनों के नाम किया है।
मेरी और विभा की भी इसमें सहमति है। भाई तुमने अब तक माँ ,बाबूजी को सम्हाला, तुम उनके पास थे, इसीलिए निश्चिंत होकर मैं अपना कैरियर बना सका। अब एक और प्रार्थना है, बाबूजी की आत्मा बसती है इस घर में, इसीलिए इतना कहने पर भी वे कभी मेरे साथ नहीं आए। भाई उनकी इस धरोहर को सम्हाल कर रखना।
ये मकान के सारे कागज भी तुम अपने पास रखो। कभी किस्मत में होगा तो यहाँ आकर रहूँगा।तुम यहाँ रहोगे तो विभा और मुझे बहुत सुकून मिलेगा। यहाँ से जाने की बात मत करना जसवंत, “यह घर तुम्हारा भी है।” विनय के अंदर रतन बाबू के दिए हुए संस्कार थे, जसवन्त को कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिल रहै थे, ऑंखों से अश्रु की धार बह रही थी।
विनय ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा- ‘रोओ नहीं भाई मैं हूँ ना? हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।’ जसवंत उस घर को छोड़कर कहीं नहीं जा पाया, अब एक कमरा नहीं वह पूरे मकान में रहता था, उसका मालिक था, उसका विवाह हो गया था। विनय और विभा यदाकदा आते और उसे लगता कि उसका परिवार उसके साथ है।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
कहानी ने बहुत रुलाया। काश सारी दुनिया में इतने अच्छे विचारों के लोग होते!
Absolutely