मैं अपराजिता – संगीता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

अपराजिता एक जिंदगी को भरपूर जीने वाली एक अल्हड़ लड़की जिसके लिए अपने सपने जितने जरूरी थे उतना ही जरूरी था परिवार का साथ और खुशी। पर उसकी खुशियों को लगता था किसी की नजर लग गई। क्या हुआ था ऐसा जानने के लिए चलते हैं कुछ समय पहले…

“बेटा तुम्हारी पढ़ाई भी लगभग पूरी होने वाली है हम चाहते हैं तुम्हारी शादी कर दें अगर तुम्हे कोई पसंद है तो बोलो वरना हम अपनी पसंद के लड़के से बात चलाएं!” एक दिन अपराजिता की मां आनंदी जी ने उससे कहा।

” नहीं मां मेरे लिए मेरा परिवार सब कुछ है और वो जो फैसला करेगा मुझे मंजूर होगा!” अपराजिता ने कहा।

” जीती रह मेरी बच्ची !” ये बोल आनंदी जी ने बेटी का माथा चूम लिया।

आनंदी जी ने अपने पति प्रीतम जी से बात की और दोनों ने अपराजिता के लिए प्रतीक को चुना। प्रतीक प्रीतम जी के दोस्त की दूर की रिश्तेदारी में था। इंजिनियर लड़का था और सबसे बड़ी बात दोनों परिवारों को दोनों के परिवार पसंद थे। अब तक अपराजिता की पढ़ाई भी पूरी हो चुकी थी और वो नौकरी की तलाश में थी। प्रतीक के परिवार वाले खुश थे पढ़ीलिखी बहू पा। तय वक़्त पर रिश्ता हुआ और अपराजिता दुल्हन बन आ गई प्रतीक की।

शुरुआत में सब अच्छा रहा जैसा हर लड़की शादी के बाद चाहती है। फिर अपराजिता ने नौकरी पर जाना शुरू किया।

” बहू नौकरी तुम अपने लिए कर रही हो इसलिए घर के काम में कोई समझौता ना हो!” पहले दिन ही सास सविता जी ने बोल दिया।

” जी मांजी आप फिक्र ना कीजिए मैं ध्यान रखूंगी!” अपराजिता ये बोल काम में लग गई सबके लिए नाश्ता खाना बनाया। 

“बहू तुम्हारी ननद आने वाली है इसलिए अच्छा सा खाना बना लो!” शाम को घर वापिस आते ही फरमान जारी हो गया।

” जी मांजी !” अपराजिता केवल इतना बोल जुट गई रसोई में।

” जब दीदी आ रही थी तो कुछ काम खुद करके रख देती मांजी मैं थकी हारी आई हूं एक चाय तो पी नहीं पाई उस पर ये सब!” अपराजिता आंख में आंसू भर खुद से ही बोली।

ऐसे ही रोज अपराजिता मानसिक और शारीरिक तनाव झेल रही थी। ससुराल में कभी कोई कभी कोई आया रहता और अपराजिता को ऑफिस से आते ही पकवान बनाने में जुटना पड़ता। सफाई बर्तन को कामवाली थी पर उससे कोई मदद नहीं ले सकते थे।  ऊपर से अपराजिता को ताने भी सुनाए जाते प्रतीक भी हमेशा मां का साथ देता और वक़्त बेवक्त पत्नी का अपमान कर देता।

” बहू आज तो तुम्हारी तनख्वाह मिली होगी!” एक महीने बाद सविता जी ने ऑफिस से आते ही पूछा।

” हां मांजी बैंक में है!” अपराजिता ने जवाब दिया।

” कल को निकलवा कर मुझे दे देना !” सविता जी के इतना कहते ही अपराजिता हैरानी से देखने लगी।

” हां बहू सबकी कमाई इसके ही हाथ में रहती है तुम अपने खर्च को इससे ले लेना जो चाहिए हो!” ससुर राजेन्द्र जी बोले।

” पर मांजी पिताजी मेरी तनख्वाह बैंक में है जब जरूरत होगी निकाल लूंगी!” अपराजिता धीरे से बोली।

” ठीक है तुम मेरे बैंक में ट्रांसफर करवा दो तो!” सविता जी बोली।

” पर मांजी आपने तो कहा था मैं खुद के लिए खुद की मर्जी से नौकरी कर रही हूं फिर ये पैसे!” अपराजिता की बात अधूरी रह गई क्योंकि अचानक एक थप्पड़ आकर लगा उसके गालों पर।

” मां से जुबान लड़ाते शर्म नहीं आती तुम्हे कल उनके बैंक में पैसे ट्रांसफर हो जाने चाहिए समझी तुम!” प्रतीक उसे थप्पड़ मारते हुए बोला।

” शर्म आनी चाहिए जवाई जी यूं अपनी बीवी पर हाथ उठाते आपको!” तभी वहां अपराजिता के पिता प्रीतम जी उसकी मां आनंदी के साथ आ बोले जो वहाँ बेटी को सरप्राइज देने आये थे पर खुद सरप्राइज हो गये। 

रोती हुई अपराजिता पापा के गले लग गई।

” आपको हमारे पारिवारिक मामलों में बोलने का हक नहीं !” राजेन्द्र जी गुस्से में प्रीतम जी से बोले।

” ये मेरी बेटी का मामला है मुझे पूरा हक है बोलने का !” प्रीतम जी भी तेष में बोले।

दोनो पक्ष एक दूसरे पर आरोप – प्रतिरोप लगाने लगे । अपराजिता ने बात संभालने के लिए पिता को चुप करवाने की कोशिश भी की पर वो अपनी आँखों के सामने बेटी का अपमान देख कैसे चुप रहते। 

” अरे ले जाइये अपनी बदचलन बेटी को यहाँ से ना जाने ऑफिस के बहाने कहाँ मुंह मारती है । ऊपर से तनख्वाह देने मे भी एतराज इसे !” अचानक सविता जी बोली।

” बस मांजी अब और नही सब कुछ सह सकती हूँ मैं पर अपने चरित्र पर इल्जाम नही । अरे कैसे लोग है आप बहू नौकरी करे तो उसकी कोई मदद नही करनी लेकिन जब उसकी तनख्वाह आये तो उसपर हक आप लोगो का और अगर वो ना दे तो उसे चरित्रहीन साबित कर दो ये कैसी मानसिकता आपकी।” अपराजिता गुस्से मे बोली। 

दोनो परिवारों मे मतभेद इतना बढ़ गया कि प्रीतम जी समझ गए इस घर में बेटी ब्याहना सबसे बड़ी भूल थी उनकी।

” बेटा तू क्यों सह रही थी सब तू तो अपने हक के लिए लड़ने वालों में से है तू तो अपराजिता है तू हार कैसे मान गई!” आनंदी जी बेटी से बोली।

” ले जाइए अपनी बदतमीज बेटी को यहां से यहां इसके लिए कोई जगह नहीं!” सविता जी गुस्से में बोली।

और प्रीतम जी और आनंदी जी बेटी को घर ले आए कभी वापिस ना भेजने के लिए। कुछ महीने में दोनों का तलाक भी हो गया। लेकिन अपराजिता शादी टूटने के सदमे से बाहर नही निकल पा रही थी उसने नौकरी भी छोड़ दी थी।

” बेटा मुझे लगता है तुम्हे इस सदमे से बाहर आ फिर से नौकरी शुरू करनी चाहिए!” तलाक के बाद आनंदी जी ने समझाया।

” हां बेटा जो हुआ बुरा सपना समझ भूल जाओ और आगे बढ़ो अब!” प्रीतम जी बेटी को गले लगाते बोले।

अपराजिता ने माता पिता की बात मान फिर से नौकरी के लिए आवेदन डाले बहुत जल्द उसे नौकरी मिल भी गई। 

” अरे देखो तो ये अपराजिता को अभी तलक हुए एक महीना भी नहीं हुआ और सजधज के ऑफिस चल दी!” अपराजिता को ऑफिस जाता देख उसकी एक पड़ोसन बोली।

” हां लगता है इसी में कमी होगी तभी छोड़ दिया उन्होंने वरना तलाक के बाद कौन लड़की इतना सामान्य हो सकती है !” दूसरी पड़ोसन बोली।

” ठीक कहा आंटी आपने तलाक के बाद तो मुझे अंधेरे कमरे में पड़े आंसू बहाने चाहिए थे जबकि मैं तो ऑफिस जा रही हूं। सच में कमी मुझमें ही होगी क्योंकि मैने अपने पति की मार खाना मंजूर नहीं किया चरित्रहीन कहलाना मंजूर नही किया । नौकरी तो वहां प्रतिक भी कर रहा होगा

बल्कि वो तो एक दिन भी घर पर नहीं बैठा फिर उसे कोई नहीं कहता कमी उसमे भी होगी!” अपराजिता उनकी बात सुन खुद को रोक नहीं पाई और उनके पास आ बोली।

” नहीं …वो !” पड़ोसन हकलाने लगी।

” आंटी मैं एक नर्क से बाहर आई हूं फिर किस बात का शोक मनाऊं वो रिश्ता मेरे लिए एक सजा था जो अब ख़तम हुई है इसकी तो खुशी माननी चाहिए ना। जब लडको को कोई फर्क नहीं पड़ता रिश्ता टूटने से फिर हमसे क्यों ये आशा की जाती हम उस टूटे रिश्ते का बोझ ढोते हुए रोते हुए

जिंदगी गुजारें। नहीं आंटी मुझे ये मंजूर नहीं मेरे मां बाप ने अपराजिता नाम रखा है मेरा मैं कभी हार नहीं मानूंगी ना अपने हालातों से ना अपने आप से !” ये बोल अपराजिता अपनी स्कूटी स्टार्ट करने लगी।

पीछे खड़े प्रीतम जी और आनंदी जी मुस्कुरा दिए बेटी की हिम्मत देख।

दोस्तों तलाक भले दुखदाई होता है पर जहां इज्जत ना हो उस रिश्ते को ख़तम करना गलत  नही ।

वैसे भी मतभेद मिट सकते है पर मनभेद नही और तलाक के बाद जैसे लड़का सामान्य जिंदगी जीता है लड़की को भी वही हक है। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में तलाक अंत नहीं शुरुआत है नई जिंदगी की।

आपकी दोस्त

संगीता  अग्रवाल

#मतभेद

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