मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी। – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

जैसे ही मोबाइल पर महेश नाम फ्लैश हुआ, तृप्ति ने झट से कॉल रिसीव किया, “भैया, कैसी हैं आस्था दीदी? ज्यादा तकलीफ में तो नहीं हैं?”

“देख तृप्ति, तकलीफ तो है ही, किडनी डायलिसिस किया गया है। डॉक्टर ने कहा है कि जल्द ही किडनी ट्रांसप्लांट करना होगा। हम डोनर ढूंढ रहे हैं। पर तू चिंता मत कर। हम हैं ना यहाँ!” महेश ने सारी जानकारी देते हुए तृप्ति से कहा।

“अरे भैया! ऐसे कैसे न करूं चिंता? केवल आपकी दीदी थोड़ी न हैं, मेरी भी दीदी हैं वे! मुझे अस्पताल की सारी डिटेल्स व्हाट्सएप पर भेजिए। मैं कल सुबह ही वहाँ पहुंचती हूँ।” तृप्ति ने कहकर फोन बंद किया और जल्दी से तैयारी में जुट गई।

तृप्ति की बेटी समायरा की बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाएँ चल रही थीं। फिर भी वह स्वयं को रोक नहीं पाई। “मेरी बेटी समझदार है, सब मैनेज कर लेगी। दीदी को इस वक्त मेरी आवश्यकता है,” ऐसा सोचकर, अपने पति से समायरा का ध्यान रखने का अनुरोध कर और समायरा को शुभकामनाएँ देकर वह अगली सुबह पौ फटते ही नई दिल्ली के लिए रवाना हो गई। 

“किडनी ट्रांसप्लांट के लिए किडनी मैचिंग आवश्यक होती है। दूसरा, दाता और प्राप्तकर्ता का रक्त समूह भी संगत होना चाहिए, ताकि अंग की अस्वीकृति का जोखिम कम किया जा सके,” डॉक्टर ने बताया था। 

“डॉक्टर साहब, मेरा और दीदी का रक्त समूह तो समान है ही। किडनी भी पक्का मैच ही करेगी, आखिर हम सगी बहनें हैं,” तृप्ति ने बिना किसी झिझक के तपाक से कहा।

और सच में, सब कुछ मैच कर गया और तृप्ति ने खुशी-खुशी अपनी बड़ी बहन को किडनी डोनेट कर दी। ऑपरेशन के तीन दिन बाद तृप्ति को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई। ऑपरेशन सफल हो गया था, इतनी खुशी काफी थी उसके लिए। दीदी से बिना मिले ही वापस अपने घर के लिए चल दी तृप्ति। 

इस कहानी को भी पढ़ें: 

अनकहा दर्द – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

इंजीनियरिंग कॉलेज के अंतिम वर्ष में पढ़ रहा तृप्ति का बेटा तन्मय उसे अस्पताल से लिवाने आया था क्योंकि अभी उसे कमजोरी थी। रास्ते में उसने हैरानी से पूछा, “लगता है मां, आप मौसी से अभी तक नाराज़ हैं! उनसे दो बातें किए बिना ही आप वापस चल दी। फिर उन्हीं मौसी को किडनी देने का इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया आपने? इस तरह जीते जी अपने शरीर का इतना महत्वपूर्ण अंग दे देना, ये हर किसी के वश की बात तो नहीं है!”

तन्मय के सवालों से तृप्ति के मन में आया कि तन्मय से कहे कि नाराज़ तो उससे हुआ जाता है जिससे हमें मनाए जाने की उम्मीद हो, जिसके हृदय में अपनापन हो। आस्था दीदी से इन सब बातों की अपेक्षा रखना बेवकूफी है।

पर तृप्ति ने प्रत्यक्ष रूप से अपने बेटे से इतना ही कहा, “अपनी दीदी से नाराज़गी कैसी, तन्मय बेटा! जानता है तू, बड़ी बहन मां समान होती है। जैसे तू मुझे तकलीफ में नहीं देख सकता, वैसे ही मैं अपनी दीदी को तकलीफ में नहीं देख सकती। याद है पिछले साल जब मुझे डेंगू बुखार हो गया था तो तू कैसे भगवान से फरियाद कर रहा था कि ‘हे भगवान! चाहे मेरी जान ले लो, पर मेरी मां को जल्दी ठीक कर दो!’ और रही बात जल्दी लौटने की, तो समायरा को बोर्ड परीक्षाओं के दिनों में मेरी जरूरत है। ऐसे समय में मां आसपास हो तो बच्चे का हौसला बना रहता है।”

अपने बेटे को ये सब कहकर चुप कराने का प्रयास करने के साथ-साथ तृप्ति अपने हृदय की चीत्कार को भी सख्ती से दबा रही थी। तभी तन्मय बोल पड़ा, “मां, मैं आप ही का अंश हूं। अपनी मां को नहीं जानता क्या, जिसमें परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी है। जो एक ओर अपने रिश्ते और कर्तव्य निभाना जानती है, तो दूसरी ओर अपने स्वाभिमान की रक्षा करना भी जानती है।”

फिर अगले ही पल तन्मय को एहसास हुआ कि मां को आराम की आवश्यकता है। उसने गाड़ी की पिछली सीट पर तकिए लगा कर तृप्ति को लिटा दिया और स्वयं आगे ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गया। 

दूसरी तरफ अस्पताल में, उसे जीवनदान देकर छोटी बहन तृप्ति का यूं चले जाना, आस्था को झकझोर गया। उसे चार साल पहले की घटनाएँ दृष्टिगत होने लगीं। आज जाकर उसे अपने ओछेपन और अपनी मूर्खता का अहसास हुआ। अब इस बारे में अपने पति से तो क्या ही कहे, इसलिए अपने भाई महेश के सामने उसकी रूलाई फूट पड़ी।

पश्चाताप के आंसुओं के साथ आस्था ने महेश से कहना शुरू किया, “तृप्ति का बेटा तन्मय उन दिनों दिल्ली के एक कोचिंग संस्थान से जेईई की ऑनलाइन कोचिंग ले रहा था। एंट्रेंस एग्जाम से एक महीना पहले संस्थान वालों ने ऑनलाइन कक्षा वाले विद्यार्थियों को परीक्षा की अच्छी तैयारी के लिए ऑफलाइन डाउट सेशन जॉइन करने का सुझाव दिया था। 

इस कहानी को भी पढ़ें: 

इतना सा ख्वाब – डॉ पारुल अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

मुझ पर बहुत विश्वास के साथ तृप्ति ने कहा था, ‘दीदी, कहने को हमारा घर दिल्ली के सीमावर्ती कस्बे में है। पर तन्मय को यहाँ से संस्थान तक पहुंचने में दो घंटे और फिर वापस आने में दो घंटे लगेंगे। फिर वह स्वाध्ययन कब करेगा! आस्था दीदी, आपके घर के पास ही है इसका संस्थान। ये आपके पास रह लेगा। खाना-पीना भी घर का रहेगा तो इसकी सेहत भी ठीक रहेगी और आप की निगरानी में भी रहेगा।’ 

मैंने उसे टालने के लिए कहा था कि तन्मय का बाहर रहने का इंतजाम कर दे। घर के माहौल में कहां पढ़ाई कर पाएगा!

दीदी, एक महीने का 25-30 हजार लग जाएगा। आप तो जानती हैं कि लगातार घाटे की वजह से तन्मय के पापा को पुराना व्यवसाय बंद करना पड़ा। अभी काफी लोन लेकर नया व्यवसाय शुरू किया है। इसलिए इतना करना मुश्किल हो जाएगा,’ तृप्ति ने फिर कहा था।

पर मैंने सौ तरह की मजबूरियाँ गिना कर उसे मना कर दिया था। बेचारे तन्मय ने ऑनलाइन कक्षा ही जारी रखी थी।

मेरी झूठ-मूठ की बताई मजबूरियों को सत्य समझा था भोली तृप्ति ने। इसलिए जब महीने बाद तन्मय का जेईई का परीक्षा सेंटर भी नई दिल्ली में ही पड़ गया, जो मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था, परीक्षा से एक दिन पहले तन्मय के साथ पूरे हक से मेरे यहाँ चली आई थी तृप्ति। 

मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत अपने पति की लगातार हो रही प्रमोशन से मैं रूपयों में खेलने लगी जैसे कि यह मेरी प्रतिभा की उपलब्धि हो। मुझे हर कोई अपने से तुच्छ और छोटा नजर आने लगा। और तृप्ति तो सच में आर्थिक संघर्ष से जूझ रही थी। ऐसे में, स्वयं पर अहंकार की सौ परतें चढ़ा चुकी, मैं तृप्ति को कहां कुछ समझने वाली थी। 

मैंने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे वह भिखमंगी हो और हमेशा के लिए मेरे गले पड़ने की सोच रही हो। 

‘जब औकात नहीं है तो क्यों बेटे को इंजीनियर बनाने चली हो! 

ये क्या फुटपाथ पर बिकने वाली मिठाई ले आई हो! 

इस कहानी को भी पढ़ें: 

औरत ही क्यों ?- पूनम अरोड़ा : Moral stories in hindi

ये साड़ी तुम मेरे लिए लाई हो! इससे बढ़िया तो मैं अपनी कामवालियों को देती हूं।’

महेश भाई, ऐसी कितनी ही बातों से मैंने उसे अपमानित कर डाला। मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी। 

महेश, भाभी और तू भी तो अपने जीजा जी की तरह इतने बड़े पद पर हो और उतना ही वेतन पाते हो। पर तुझे और भाभी को तो अहंकार छू भी नहीं गया है। आज मैं समझ पा रही हूं कि जिनमें सच में योग्यता होती है, वे हमेशा अपने पांव जमीन पर रखते हैं। मेरे जैसे योग्यहीन ही व्यर्थ का अहंकार पालते हैं।

तृप्ति ने छोटी होकर भी मुझ जैसी अहंकारी बहन के लिए इतना त्याग और बलिदान किया। बड़ी तो वह है! उसके सामने मैं बौनी और तुच्छ हूं। महेश, मैं उससे माफी मांगने जाऊँगी तो वो मुझे माफ कर देगी न! कहते हुए आस्था की हिचकी बंधी और आगे के शब्द उसके हल्क में ही अटक गए।

महेश ने अपनी बहन आस्था को सांत्वना दी। उसे धीरज बंधाया कि तृप्ति स्वाभिमानी है पर बहुत नर्म दिल है। “हम दोनों से छोटी है, पर उसमें बड़प्पन है। अपनी दीदी के पश्चाताप को न समझ पाए, अगर वो ऐसी होती तो आपके लिए यूं दौड़ी-दौड़ी न आती।” महेश ने आस्था से वादा किया कि महीने बाद वह उसके साथ तृप्ति के यहाँ चलेगा।

महीने बाद आस्था अपने भाई महेश के साथ तृप्ति के ड्रॉइंग रूम में बैठी थी। तृप्ति ने उनका अच्छा स्वागत-सत्कार किया। वह देखकर बहुत खुश थी कि उसकी बड़ी बहन का ऑपरेशन सफल रहा था। लेकिन आस्था को साफ-साफ समझ आ रहा था कि उसके द्वारा किए गए अपमान का दंश स्वाभिमानी तृप्ति का हृदय भूला नहीं है।

आस्था ने बेहद विनम्रता और अपनेपन से अपनी झोली फैलाकर तृप्ति से कहा, “तप्पू, तूने अपनी दीदी को जीवनदान दिया है। अब उसे माफ कर, उसकी झोली में खुशियाँ भर दे। हां मेरी तप्पू, तेरा दिल बहुत बड़ा है! मुझे माफ कर देगी न? मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी।”

आस्था दीदी ने क्या कहा? तृप्ति को कुछ भी नहीं सुना। उसे तो केवल ‘तप्पू’ सुना और उसे अपने बचपन की आस्था दीदी अपने पीछे दौड़ती नजर आई… 

“ला तप्पू, तेरी चोटी गूंथ दूं, खुले बाल रखने से स्कूल में डांट पड़ेगी। 

चल तप्पू, तेरा होमवर्क करा दूं। 

सुन तप्पू, मेरा कहना मानेगी तो तुझे चॉकलेट दूंगी।”

“आस्था दीदी, मैंने आपका कहना मान लिया। अब जल्दी से मेरी चॉकलेट दीजिए,” खुशी मिश्रित आँसुओं के साथ ऐसा कहते हुए तृप्ति अपनी आस्था दीदी के गले लग गई।

-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित )

प्रतियोगिता वाक्य: #मैं अपने अहंकार में रिश्तों के महत्व को भूल गई थी।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!