घर-आंगन- माया मंगला : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : घर में मेरे विवाह के लिए जोर- शोर से प्रयास चल रहे थे। आए दिन रिश्ते आते थे ।एक रिश्ता सही लगा ,तो पापा ने वहां बात पक्की कर दी।

पापा मेरे पास आकर बोले, बेटा सो जाओ। कल तेरे ससुराल से कुछ लोग रिश्ता पक्का करने आएंगे। मां ने कहा ,हां बिटिया अब तो तू कुछ ही दिन की मेहमान है, इस घर में। अब जाकर आराम कर।

पापा और मां अपने कमरे में सोने चले गए और मैं अपने कमरे में आ गई। मां की बात ‘ कुछ दिन की मेहमान है इस घर में ‘ सोचते – सोचते ही ना जाने किस दुनिया में पहुंच गई ।

घर और इसका बड़ा सा ईंट वाला आंगन ।ईटों के जोड़ों पर थोड़ा-थोड़ा सीमेंट भरा हुआ था, पर पूरा प्लास्टर नहीं था। मां उसे रोज झाड़ू लगाकर पोछे से साफ रखती थी। दिन में दो बार झाड़ू लगाने का रिवाज था।

मैं पांच छह महीने की रही होंगी ।मां मुझे कपड़े के बिछोने पर बिठाने का प्रयास करती और मैं लुढ़क जाती ।मां फिर से किसी चीज के सहारे बिठाती ।जब थोड़ा खिसकने लगी तो बिछौने से बाहर चली जाती । लुढ़कती तो चोट भी लगती और पक्के फर्श के कारण खिसकने से घुटने व कोहनी भी छिलने लगी मां थोड़ा फूंक मारती और चुप करा देती ।कभी तो ईट पर ही एक थप्पड़ मार देती है, जिससे मैं अधिक ना रोऊं और मुझे तसल्ली रहती थी जिसने मुझे मारा उसे भी मार् पडी।यह सिलसिला रोज चलता था ।

इसी ईटों के आंगन में चलने लगी। हर कदम हर एक बार नाप नाप कर रखती। पायल पहन मटकती,चलती, नाचती तो लगता आंगन मेरा साथ दे रहा है । पैर की ताल जमीन पर देती तो जमीन की थाप भी महसूस करती और दूसरी ताल और जोर से देती। आंगन की और मेरी तालमेल बहुत खूबसूरत थी।

रस्सा कूदते हुए तो लगता था मैं तो केवल रस्सा घुमा रही हूं फर्श मुझे ऊपर उछाले दे रहा है । त्रेमपुलिन में जैसे बच्चे उछलते हैं वैसे ही फर्श मुझे झूला देता रहता था।

बीच में बचपन की एक और बात याद आ गई ।छोटे-छोटे दांत आने लगे थे। थोड़ी कैल्शियम की कमी रही होगी, तो फर्श में एक कोने में ईंट का कुछ हिस्सा टूटा हुआ था। छोटी-छोटी उंगलियां उसमें घुसा कर मिट्टी निकाल कर चाट लेती थी। यह काम चुपके से, चोरी से करती थी। पापा को पता लगने पर तो उस छेद पर सीमेंट लगवा कर बंद कर दिया गया ।

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कभी तो नाराज होने पर रो-रोकर फर्श पर पैर पटकती रहती और फिर वही सो जाती ,मानो मां की गोद मिल गई। इस आंगन की ईंटें धूप में बहुत तपती थी ।मां पापा मुझे नंगे पैर जाने से मना करते। मैं आधा पैर या कहें कि पंजो पर ही चल कर अथवा कूद कूद कर दो – चार चक्कर लगाती । और कहती देखो कहां जले पैर ईंटें तो बिल्कुल ही ठंडी है ।

यही सब सोचते- सोचते ना जाने कब नींद लग गई ।सुबह उठी तो कार्यक्रम के अनुसार यंत्रवत सब काम करती रही ।सब के जाने के बाद जब घर के सब सदस्य आराम से बैठे तो पापा बहुत खुश थे कि चलो सब ठीक निबट गया।

पापा ने बड़े उल्लास से कहा बेटा अपने सामान की लिस्ट बना लो जो तुम्हें लेना है ।और क्या-क्या इस घर से भी ले जाना है ।मैं थोड़ा सा संगीन होकर बोली, पापा मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस एक चीज दे देना।

पापा तो हैरान थे कि एक चीज ऐसी क्या है ।तभी मैंने कहा मुझे मेरे आंगन की एक ईट दे देना ।मैं अपने साथ ले जाऊंगी। आप मुझे मेरे आंगन से दूसरे घर आंगन में भेज रहे हैं, तो मुझे यहां की याद में एक ईट ही चाहिए ।मेरी बात सुनकर सब हैरान थे, कि कैसी मांग है

पापा बोले बेटा आंगन की एक ईट! तुम्हें हो क्या गया है। इसका क्या करोगी । मैंने कहा इसमें मेरा बचपन बसा है, मुझे अपनी सखियों का एहसास होता है। जब मैं रो रो कर इसी आंगन में सोती थी तो मां की गोद दिखाई देती थी। रस्सी कूद रही थी तो आपकी बाहों का झूला होता था। यह ईंट जब मैं इन पर गिरती थी तो मेरे मित्र नजर आते थे।और तो और पापा मैंने तो छुप छुप कर के मिट्टी को खाया भी है। इसका स्वाद मेरे मुंह में अभी भी है ।25 वर्ष की इसी आंगन के कण-कण की खुशबू मेरे अंदर बसी हुई है ।

मां और पापा मेरे भीतर के दर्द को समझ गए थे। परंतु वह भी हमारी परंपराओं के कारण लाचार थे ।और मैं इस घर आंगन से दूसरे घर आंगन में जाने की मजबूरी से घिरी हुई थी।

स्वरचित कहानी

माया मंगला

#घर-आंगन

 

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