एक राज्य में एक राजा रहता था जो बहुत घमंडी था। उसके घमंड के चलते आस पास के राज्य के राजाओं से भी उसके संबंध अच्छे नहीं थे। उसके घमंड की वजह से सारे राज्य के लोग उसकी बुराई करते थे।
एक बार उस गाँव से महात्मा बुद्ध गुजर रहे थे उन्होंने ने भी राजा के बारे में सुना और राजा को सबक सिखाने की सोची। महात्मा बुद्ध तेजी से राजमहल की ओर गए और बिना प्रहरियों से पूछे सीधे अंदर चले गए। राजा ने देखा तो वो गुस्से में भर गया। राजा बोला – ये क्या उदण्डता है महात्मा जी, आप बिना किसी की आज्ञा के अंदर कैसे आ गए?
महात्मा बुद्ध ने विनम्रता से उत्तर दिया – मैं आज रात इस धर्मशाला में रुकना चाहता हूँ। राजा को ये बात बहुत बुरी लगी वो बोला- महात्मा जी शायद आप भूल रहे हैं ये मेरा राज महल है कोई धर्मशाला नहीं, कहीं और जाइये।
महात्मा बुद्ध ने कहा – हे राजा, तुमसे पहले ये राजमहल किसका था?
राजा – मेरे पिताजी का।
महात्मा बुद्ध– तुम्हारे पिताजी से पहले ये किसका था?
राजा– मेरे दादाजी का।
महात्मा बुद्ध ने मुस्करा कर कहा – हे राजा, जिस तरह लोग धर्मशाला में कुछ देर रहने के लिए आते है वैसे ही ये तुम्हारा राज महल भी है जो कुछ समय के लिए तुम्हारे दादाजी का था, फिर कुछ समय के लिए तुम्हारे पिताजी का था, अब कुछ समय के लिए तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, ये राजमहल जिस पर तुम्हें इतना घमंड है।
ये एक धर्मशाला ही है जहाँ एक व्यक्ति कुछ समय के लिए आता है और फिर चला जाता है। महात्मा बुद्ध की बातों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि सारा राजपाट, मान सम्मान छोड़कर महात्मा बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा. और उस दिन के बाद से अपना राज्य अपने पुत्र को सौंपकर महात्मा बुध की अनुयाई बन गया और उन्हीं के साथ सन्यासी बन कर घूमने लगा।