रोज की तरह आनन फानन में अपना सुबह का काम निबटाकर सुधा अपने स्कूल के लिए निकली ही थी कि सामने फिर वही औरत पड़ गई। “दीदी सुनिए जरा..!!मेरा बेटा भूखा और बीमार है। कुछ खाने के लिए पैसे दे दो!! सुधा को झुंझलाहट हुई। वैसे ही देर हो रही है
अब यह कहाँ से आ पड़ी।पहले भी वह कई बार उस गली में आ चुकी थी। पड़ोसी सुविधानुसार कुछ न कुछ खाने को दे देते थे। उसने उसे खाने को न देकर 20 रुपये दिये थे तब से वह बराबर उसका गेट खटखटाने लगी थी। कल समय से आई थी तो रात की बची रोटी सब्जी उसे दे दी थी।
अब रोज रोज ऐसी आदत लगाना ठीक नही है उसने मन में सोचा। गोद में लगभग दो साल का बेटा रहा होगा। उसने उसे डांटते हुए कहा-“कुछ काम धाम क्यों नहीं करती। कब तक ऐसे मांगकर अपना व बच्चों का पेट भरती रहोगी! वैसे भी मुझे देर हो रही है’ कहकर वह चल दी।
फ़िर कुछ सोचकर उससे बोली कल आना टाइम से। वह औरत सर हिलाकर मायूसी से देखते हुए चली गई।अक्सर सुधा को वह औरत बच्चे को गोद में लिए भीख मांगती मिल जाती थी।स्कूल पहुंचकर भी उसकी आँखों में वह औरत और उसका कमजोर बच्चा, घूमता रहा।
उसे लगा कि उसने उसके साथ ज्यादती की। यही बात वह प्यार से भी कह सकती थी। खैर बात आई गई हो गई। थोड़ी देर में ही वह इस बात को भूल गई। इत्तफाक से दूसरे दिन रविवार था। सुबह सुबह वह औरत पहुँच गई। सुधा को न तो काम निबटाने की जल्दी थी ना ही उस औरत से मिलने की।
वह आराम से बाहर निकली लगभग उसे डांटते हुए बोली “क्यों शोर मचा रखा है? वह बोली दीदी आपने आज आने को बोला था। सुधा बोली कुछ काम क्यों नही करती? वह वही गेट पर बच्चे को लेकर बैठ गई। बोली इस बच्चे के साथ आप ही मुझे कोई काम दिला दो। सुधा गंभीरता से बोली ” बच्चे के साथ तुम क्या काम करोगी
पति कहाँ है। घर में और कौन है। औरत जिसका नाम सीता था यूपी के बहराइच के किसी गाँव से पति के साथ मात्र एक वर्ष के बच्चे को लेकर रोजगार की तलाश में आई थी। पति भवन निर्माण के ठेकेदार के साथ मजदूरी करता था। एक साल पहले ट्रक से ईंट उतारते वक्त ईटों का रेला उस पर गिर पड़ा दोनों पैरों से अपाहिज हो गया।
ठेकेदार ने नाम मात्र का मुआवजा देकर पल्ला झाड़ लिया। न तो उसका इलाज करवाया ना ही उसके परिवार की राशन की व्यवस्था की। वह तो कुछ लोग उसी के जिले से रोजगार की तलाश में मय परिवार आकर रहने लगे उन्हीं के सहारे वह अंजान शहर में टिकी हुई थी।मजदूर तबके के लोग कब तक उसका खर्च उठाते।
सुनकर सुधा को धक्का लगा। बिना जाने उसने उसके बारे में क्या सोच लिया। सुधा प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका थी। विद्यालय के प्रांगण में ही आगनबाडी केंद्र संचालित था। उसने उसके रहने का ठिकाना पूछा पता चला कि अब वह कही झोपड़ी में रहती है जहाँ आसपास उसके जिले के लोग भी रहते हैं।
खैर उसे खाना, पुराने कपड़े व कुछ पैसे देकर विदा किया तीन दिन बाद फिर मिलने को कहा। दूसरे दिन सुधा स्कूल गई। अपनी साथी शिक्षिकाओं को सीता की दयनीय स्थिति से अवगत कराया। बच्चे को आंगनबाड़ी केन्द्र में प्रवेश देने की प्रक्रिया शुरू करवाई। सारा वर्णन सुनकर स्कूल के पास ही एक सस्ता कमरा किसी दयालु सज्जन ने दे दिया।
बदले में घर की साफ सफाई का काम दे दिया। अब बारी थी उसके परिवार को वहाँ शिफ्ट करने की। पहले तो वह अपने लोगों को छोड़कर जाने को तैयार ही नही हुई। फिर उसके परिचित लोगों ने उसे व उसके पति को समझा बुझाकर जाने को राजी किया।सभी शिक्षिकाओं ने चंदा करके गाड़ी की व्यवस्था से उन्हें वहाँ शिफ्ट कर दिया।
अपने घरों से पुराने बिस्तर कपड़े लाकर दिये।बच्चे को आंगन बाड़ी से खाना मिलता था । इसी बीच उसके पति को भी सरकारी अस्पताल में दिखाया गया। समय पर आपरेशन न होने से वह पूर्ण रूप से ठीक तो नही हुआ पर वैशाखियों से चलने लगा था। अब धीरे धीरे दुलारी की जिंदगी में सब कुछ ठीक होने लगा।
उसने तीन घरों में झाड़ू पोछा बर्तन का काम संभाल लिया है। पति सुबह शाम किसी रेस्ट्रोरेंट में शाम को बैठे बैठे सब्जी काटने व आटा गूंथने जैसे काम भी करता है जिससे उसकी थोड़ी बहुत अतिरिक्त आय हो जाती है। बच्चे की देखरेख और घर में खाना बनाने का भी वही करता है। भले ही जिंदगी में थोड़े अभाव है पर किसी की थोड़ी मदद से एक परिवार की जिन्दगी बदल गई।
दोस्तो कहानी कैसी लगी। कहानी में केवल गरीबी व समस्याओं का चित्रण करना ही उद्देश्य नही है अपितु उनका समाधान करना भी प्राथमिकता में शामिल है। कहानियाँ सच्ची हैं जिनका अन्त सकारात्मक होता है। आप कमेंट में जरूर बताएं। तभी अगली कहानी अपलोड करने का साहस करूँगी।
चम्पा कोठारी