रेलवे स्टेशन की उस बेंच पर बैठी **सुमन** ठंडी हवाओं से बेपरवाह, एक पुराना लिफाफा हाथ में लिए डबडबाई आंखों से उसे निहार रही थी। भीड़भाड़ वाले प्लेटफॉर्म पर कोई उसे देखता भी तो शायद यही समझता कि वह किसी के इंतजार में बैठी है। लेकिन उसकी आंखों में इंतजार नहीं, एक अधूरी दास्तान थी—जो शायद कभी पूरी नहीं हो सकती थी।
**”सुमन बेटा, अगर कभी ये चिट्ठी तुम्हारे हाथ लगे तो समझ लेना कि माँ ने तुम्हें बहुत याद किया…”**
बस यही लाइन पढ़कर उसकी आंखों से आंसू बह निकले। ये चिट्ठी उसकी माँ की आखिरी निशानी थी, जिसे वह **पिछले 15 सालों से अपने दिल के सबसे करीब** रखती आई थी।
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### **गुज़रा वक़्त**
**15 साल पहले की बात है।** तब सुमन **18 साल की एक जिद्दी और चंचल लड़की** हुआ करती थी। उसकी दुनिया उसके **सपनों और इच्छाओं** से घिरी थी, जिसे पूरा करने के लिए वह किसी की परवाह नहीं करती थी।
लेकिन उसकी माँ, **गंगा देवी**, एक साधारण सी घरेलू औरत थीं। पिता की **मृत्यु के बाद**, उन्होंने अकेले ही सुमन को पाला-पोसा। दिनभर दूसरों के घरों में काम करना और रात को थकी-हारी लौटना उनका रोज़ का नियम था। लेकिन सुमन को यह सब बोझ लगता था। उसे माँ का **घर-घर जाकर काम करना शर्मिंदगी भरा लगता था**।
**”माँ, क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगता कि मेरी सहेलियों की माएँ कितनी अच्छे कपड़े पहनती हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमती हैं? और एक तुम हो… हमेशा गली-मोहल्ले में बर्तन धोते हुए!”**
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गंगा देवी बस एक **थकी हारी मुस्कान** के साथ अपनी बेटी को देखतीं और कहतीं,
**”बेटा, एक दिन जब तू अपनी मेहनत से बड़ी बनेगी, तब तुझे मेरी ये मेहनत बोझ नहीं लगेगी।”**
लेकिन सुमन को माँ की बातें **बिल्कुल बेमतलब** लगती थीं।
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### **माँ-बेटी का आखिरी झगड़ा**
एक दिन **सुमन का कॉलेज में एडमिशन नहीं हो पाया**, क्योंकि फीस भरने के लिए पैसे पूरे नहीं थे। माँ ने लाख कोशिश की, लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे।
**”बस माँ! अब और नहीं! मुझे इस गरीबी में नहीं रहना। मैं ये घर छोड़कर जा रही हूँ!”**
गंगा देवी ने बेटी को **बहुत रोका, बहुत समझाया**, लेकिन सुमन के कानों पर जूं तक न रेंगी।
**”तू चली जा बेटा, लेकिन याद रखना, माँ के घर के दरवाजे हमेशा तेरे लिए खुले रहेंगे…”**
लेकिन गुस्से में धधकती **सुमन ने बिना पीछे देखे घर छोड़ दिया**।
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### **ज़िन्दगी का दूसरा पहलू**
शहर की चकाचौंध में कदम रखते ही **सुमन को पहली बार असली दुनिया का सामना हुआ**। नौकरी ढूंढने के संघर्ष, रहने की दिक्कतें और हर पल खुद को अकेला महसूस करना—ये सब **उसे अंदर तक तोड़ रहे थे**।
धीरे-धीरे उसे अहसास होने लगा कि माँ ने जो भी किया, वो उसकी भलाई के लिए ही किया था। लेकिन अब **उसके पास लौटने की हिम्मत नहीं थी**।
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### **माँ की आखिरी चिट्ठी**
तीन साल बाद **जब वह माँ के पास वापस लौटी**, तो घर का दरवाजा बंद था। पड़ोसियों से पता चला कि **गंगा देवी इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थीं**।
**”उन्होंने तुम्हारे नाम एक चिट्ठी छोड़ी थी…”** पड़ोस की अम्मा ने एक पुराना लिफाफा सुमन को पकड़ा दिया।
कांपते हाथों से सुमन ने चिट्ठी खोली—
*”बेटा, तू जब यह चिट्ठी पढ़ रही होगी, तब मैं शायद इस दुनिया में नहीं होऊंगी। मैंने तुझे हमेशा माफ किया, और हर दिन तेरा इंतजार किया। तेरी पसंदीदा खीर भी हर जन्मदिन पर बनाई, यह सोचकर कि तू शायद लौट आए…*
*अगर मैं तुझसे कभी कुछ मांगूं, तो बस इतना कि खुद को कभी अकेला मत समझना। एक माँ कभी अपनी औलाद से दूर नहीं होती… मैं हमेशा तेरे साथ हूँ, तेरे हर कदम पर।”*
सुमन की **आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे थे**। वह रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठी थी, लेकिन उसके सामने वह **माँ की गोद का स्पर्श महसूस कर रही थी**।
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### **नया सफर, एक नई सोच**
उसने माँ के पुराने घर को फिर से बसाने का फैसला किया। **गरीब बच्चों के लिए एक छोटा सा स्कूल खोला** और माँ के नाम पर उसे “गंगा विद्या केंद्र” नाम दिया।
हर सुबह जब वह बच्चों को पढ़ाने जाती, तो उसे लगता जैसे माँ कहीं पास खड़ी मुस्कुरा रही हैं।
अब उसकी आँखों में गर्व था—**अपनी माँ के लिए, अपने संघर्ष के लिए, और उस प्यार के लिए जो कभी खत्म नहीं हो सकता था।**
**”माँ, आज मैं आपकी मेहनत को समझ गई। मैं आपकी बेटी होने पर गर्व महसूस करती हूँ…”**
सुमन ने आसमान की ओर देखा, और एक हल्की सी हवा ने उसके गालों को छू लिया—जैसे माँ ने उसे आशीर्वाद दिया हो…
**(समाप्त)**
डॉ ममता सैनी
( वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर)
संस्थापिका, अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच
तंजानिया