मैं अपनी फेवरेट हूं,मैं अपनी फेवरेट हूं, अब मुझे सिर्फ खुद के लिए जीना है,खुद से ही प्यार करना है….ये क्या लगा रखा है निशा… बहुत हो चुका ये सब,अब बस भी करो और अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान दो… कोई चीज जगह पर नहीं मिलती मेरी…खैर मुझे छोड़ो तुमने देखा पिंकी के इस बार हाफ ईयरली में कितने कम मार्क्स आएं हैं….नील की शरारतें बढ़ती जा रही हैं उनपर कोई ध्यान है तुम्हारा ,आज मेरे नीचे उतरते ही शिकायतें लेकर आ गई मिसेज वर्मा और पापा की दवा जैसी जरूरी चीज कैसे इग्नोर कर सकती हो तुम निशा…तुम तो ऐसी नहीं थी क्या हो गया है तुम्हें आजकल??
खुद के लिए जीना सीख रही हूं विनीत,अब तक बहुत जी ली सबके लिए…और ये सारी चीज़ें जो तुम मुझे बता रहे हो ना वो तुम्हारी जिम्मेदारी भी है…शादी में मैंने बाॅण्ड तो नहीं भरा था ना कि सारे काम मैं अकेली करूंगी… मैं अब अपने लिए जीना चाहती हूं… मुझसे सबकुछ अब अकेले नहीं होगा,अगर तुम चाहते हो तो मैं आधे आधे काम बांटने की डील कर सकती हूं तुमसे
अच्छा….पर इस तरह का विरोध,ये क्रांतिकारी बदलाव अचानक कैसे आया तुममें…अभी एक दो महीने पहले तक तो बिल्कुल सही चल रहा था सब,!!
सही तब तुम्हारे लिए था,ये सही आज मेरे लिए है विनीत…और मुझसे बहस नहीं करो मुझे जल्दी से कुछ जरूरी चीजें निपटानी है..वैसे अभी भी तो खुद से जो समय बचता है वो तो मैं इस घर को ही देती हूं ना..!
विनीत को एहसास हो चुका था कि निशा से बहस करना सच में बेकार है…जाने क्या चला रही है मन में पिछले महीने दो महीने से..आदर्श गृहिणी से उलट बिल्कुल स्वतंत्र नारी की तरफ यू टर्न हो गया है उसका….कारण पूछो तो भी नहीं बताती। अच्छा सासू मां से बात करेगा शायद उन्हें पता हो या निशा ने उनसे कुछ शेयर किया हो इस संदर्भ में।
हैलो मम्मीजी प्रणाम..विनीत बोल रहा हूं
हां बेटे बोलो ना बड़े दिनों बाद बात हुई है आज तुमसे,सब बढ़िया तो है ना??
जी मम्मी जी सब बढ़िया…आपकी और पापाजी की सेहत तो ठीक है ना—थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद विनीत मुद्दे पर आया
मम्मी जी आजकल निशा बिल्कुल बदल सी गई है,दो महीने से देख रहा हूं मेरी हर बात पर मेरा विरोध करने लगी है चाहे मैं सही रहूं या ग़लत,यही नहीं घर,घर के काम ही नहीं,पिंकी,नील पापा और मुझे तक इग्नोर करने लगी है…सारा दिन कभी सहेलियों के साथ तो कभी किटी,कभी पार्लर तो कभी डांस क्लास तो कभी सोशल नेटवर्किंग में उलझी रहती है…ऐसी तो वो कभी नहीं थी… कुछ बताया है आपको इस बारे में??
हां बेटे.. मैं जानती हूं और हर रोज समझाती भी हूं कि हर किसी की कहानी एक सी नहीं होती…और जिंदगी जीने का सोचकर बिताई जाती है,मरने का सोच कर काटी नहीं जाती..
कुछ समझा नहीं मम्मी जी….मरना…जीना..मतलब??
अभी चार महीने पहले उसकी एक सहेली थी जिसकी डेथ हो गई..दो बच्चे थे,एक बच्ची तो दुधमुंही ही थी,सास ससुर थे,भरा पूरा परिवार था…उसकी सहेली खुद नौकरी भी करती थी और घर का भी ख्याल रखती थी…अचानक एक रोड एक्सीडेंट में वो….
हां ये तो मुझे भी बताया था निशा ने,आठ दस दिन तो वो बहुत डिप्रेस्ड भी रही थी… मैं उसे दो दिन के लिए बाहर भी लेकर गया था… वहां से आकर तो वो ठीक हो गई थी
हां…वहां तक तो सब ठीक ही था विनीत…पर निशा उसकी सहेली के पति के टच में थी,अक्सर बात करती और उसकी तकलीफें बांटने की कोशिश करती…पर निशा को तीसरे चौथे दिन से महसूस होने लगा कि उसका पति ही नहीं पूरा घर संभलने लगा है,सब ठीक होने लगा है…चौबीस घंटे की कामवाली आ गई है,खाना बनाने वाली भी लग गई है और सास छोटी बच्ची को संभालने लगी है…निशा को लगता कि उसकी जिस सहेली ने अपने इतने साल उस घर को परिवार को दिए…जान लुटाती रही,मरती रही उस घर ने चार दिन में ही उसका ऑप्शन ढूंढना शुरू कर दिया??
तब तक तो फिर भी ठीक था,पर जब एक महीने बाद ही बच्ची का हवाला देकर उसके पति ने दूसरी शादी की बात कह दी तो निशा को ये बात अंदर तक लग गई और उसने तो उसे भी जाने क्या क्या सुना दिया और उसके बाद ही खुद को भी बदलना शुरू कर दिया….।
अपनी सहेली के बारे में कहती है…वो अपने पल पल का हिसाब रखती,कभी बाहर नहीं जाती,अपने शौक नहीं पूरे करती,अपना समय नहीं बर्बाद करती और कहती थी मेरे परिवार को मेरी बहुत जरूरत है और उस परिवार को देखो…
पर मम्मी जी…यही तो बात है कि मरने वाले तो चले जाते हैं पर जो यहां रहता है उसे तो जीना पड़ता है ना… दुनिया की यही रीत है
मैं भी यही समझाती हूं उसे…माना उसकी सहेली का पति कुछ ज्यादा हड़बड़ी दिखा रहा हो पर सब ऐसे तो नहीं होते और यादें दिल में होती है…जाने वाला भी नहीं चाहेगा कि उसके पीछे उसके अपने भी जान दे दें या पागल हो जाएं….पर निशा नहीं समझती…उल्टा मुझे ही कहने लगेगी…
औरतें मूर्ख होती हैं मम्मा,समाज और परिवार उसका उपयोग करता है और मीठी मीठी बातें करके उसे महानता का तमगा पहनाता है वो पगली बहकावे में आकर तन मन धन न्यौछावर करती रहती है,और जैसे ही मरती है उसका ऑप्शन ढूंढना शुरू हो जाता है…और ये प्रक्रिया जारी रहती है।
फोन रखने के बाद विनीत और चिंतित हो उठा,ये क्या ग्रंथि पाल ली है निशा ने मन में…इससे तो वो खुद के लिए जीने की सोच कर भी जी नहीं पाएगी… क्योंकि उसका ये विरोध ये बदलाव आक्रोश से आया है और फैसला वहीं फलदायी होता है जो खुशी से लिया जाए…खैर अब तो उसे ही कुछ करना होगा।
पापा ये लीजिए आपकी तीन महीने की दवाई…एक बात और क्या आप पिंकी को देख लेंगे थोड़े दिन जबतक मैं उसके लिए कोई ढंग का ट्यूटर नहीं ढूंढ लेता–शाम को विनीत ने पापा से पूछा
हां बेटे क्यों नहीं…मेरा भी पढ़ने पढाने में सारा दिन कट जाएगा–वो खुशी खुशी तैयार हो गए
नील को लेकर विनीत बाहर निकल गया…शरारती बच्चा है पर पापा की हर बात मानता है वो रोज उसे समय दें और समझाए तो शायद उसकी शरारतें कम हो ऐसा लगा विनीत को।
नील को लेकर वापस आया तो तुरंत घर पहुंची निशा ने पूछा –डिनर क्या बनेगा??
मैं आर्डर देता हुआ आया हूं..बाहर से
निशा ने उसे ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा मानो क्या देख लिया हो,बाहर का तो कभी नहीं खाना चाहता था ये आज क्या हुआ??
अगले दिन से ही विनीत जितने सारे सुधार की गुंजाइश थी,जो वो कर सकता था करने लगा था..ये बात निशा भी देखती..। समय के साथ ये बदलाव देख वो थोड़ी थोड़ी ढीली पड़ने लगी थी और विनीत की हर बात पर विरोध का उसका खड़ा रवैया थोड़ा नर्म तो पड़ा था।
एक दिन विनीत आया तो थोड़ा दुखी था… उसके दफ्तर के एक स्टाफ की डेथ हो गई थी।
आठ दिन बाद उसने निशा से कहा–निशा…वो जो मेरे दफ्तर के स्टाफ गुजरे हैं ना मैं उनके घर जाना चाह रहा था,यूं तो दफ्तर के लोगों के साथ जाना चाहता था,पर मैं उनकी वाइफ और बच्चों की कुछ मदद करना चाहता हूं पर किसी को दिखा कर नहीं..तो मैं क्या कह रहा था तुम मेरे साथ चलो ना, लिफाफा तुम उन्हें थमाओगी तो उतना बुरा नहीं लगेगा…।
निशा को भी लगा उसे जाना चाहिए आखिर एक औरत की ही तो बात है।
स्टाफ के घर का माहौल सामान्य था… बहुत सारे लोग थे ससुराल के मायके के…निशा ने उनकी पत्नी से बहुत देर तक बात की ।चलते वक्त जब निशा ने उसे लिफाफा पकड़ाया तो उसने हाथ जोड़ लिया–
सर जी,ये मै लेकर क्या करूंगी…अगर आप सच में मेरी मदद करना चाहते हैं तो मुझे उसी दफ्तर में छोटी मोटी नौकरी भी दिलवा दें..जबतक अपने पैरों पर खड़ी नहीं होऊंगी तो अपना और बाल बच्चों का पालन पोषण कैसे करूंगी
आप थोड़ी ठीक हो जाएं फिर मैं बात करता हूं बाॅस से
साहब जी… मैं ठीक हूं…. ऊपरवाला जब दुख देता है ना तो उसे सहने और उससे उबरने की हिम्मत भी साथ ही भेजता है..वरना बचे हुए अपने जीएंगे कैसे?? आप बात करें,जब बुलाएंगे मैं हाज़िर हो जाऊंगी…जाने वाला तो चला गया पर जो है उन्हें तो जीना ही पड़ेगा—महिला ने बुलंद स्वर में कहा।
सच बात है विनीत.. ऊपरवाला हर इंसान को दुख के साथ सहने और उबरने की ताकत भी देता है.. वरना आगे कैसे बढ़ेगी जिंदगी और ना बढी तो चलेगी कैसे?? मुझे लगता था औरत मर जाती है तो लोग तुरंत उबर जाते हैं पर आज यहां आकर लगा..जाने वाला भले जो हो औरत या मर्द…पीछे बचे स्वजनों को आगे बढ़ना ही पड़ता है और बढना ही चाहिए वरना कष्ट भी ठहर जाता है…।
यही तो समझाने तुम्हें यहां लेकर आया था निशा…मन ही मन बोला पड़ा विनीत…अब तुम भी ढंग से जी पाओगी। शायद सच में खुद को खुद की फेवरेट बनाकर.. वो जबरदस्ती वाली नहीं पूरे मन से… विरोध करोगी तो वो भी चलेगा..पर वो विरोध निराशावाद से ना उपजा हो किसी सकारात्मक बदलाव के लिए हो…श्रीमतीजी!
मीनू झा