मां का फैसला – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

“हैलो रोहन! मैंने तेरी भाभी और बच्चों के साथ एक सप्ताह के लिए दुबई भ्रमण का कार्यक्रम बनाया है। इसलिए मैं 22 फरवरी की सुबह मां को तुम्हारे पास छोड़ने आऊंगा,” समीर ने अपने छोटे भाई रोहन से फोन पर कहा।

“अरे भैया, ये क्या कह रहे हैं आप? चारु तो यह सब जानकर भड़क ही जाएगी। वह तो पहले ही क्रुद्ध हो रही थी कि हमने बीमार मां को जनवरी के 31 दिन संभाला और फिर मार्च में भी हमें 31 दिन तक मां को झेलना पड़ेगा। बड़े भैया-भाभी के मजे हैं। उनके हिस्से केवल 28 दिन का फरवरी आया है। न भैया, न!” रोहन ने अपनी पत्नी चारु का हवाला देते हुए अपने बड़े भाई समीर को असमर्थता जताई।

समीर बोला, “देख रोहन, अब तो कार्यक्रम बन चुका है। यह मेरे दो और सहकर्मियों के साथ एक संयुक्त कार्यक्रम है। इसे कैंसिल नहीं किया जा सकता।”

रोहन ने दृढ़ता से कहा, “लेकिन भैया, इतने दिन का मां का अस्पताल और दवाइयों आदि का अतिरिक्त खर्च हमारे हिस्से में आ जाएगा। इसके लिए चारु बिल्कुल तैयार नहीं होगी। ऊपर से मां की घर में उपस्थिति उसे हमेशा अपनी स्वतंत्रता में बाधक लगती है। मां के चक्कर में मैं अपने घर में क्लेश नहीं बढ़ने दूंगा।”

इस बार समीर ने कहा, “रोहन, तेरी भाभी चारु से बात करना चाहती है। जरा फोन चारु को पकड़ाओ।”

समीर की पत्नी ममता फोन पर अपनी देवरानी चारु को आश्वासन देती है, “चारु, तुम चिंता मत करो। 1 अप्रैल के स्थान पर हम मां को उससे दस दिन पहले ही अपने यहां वापस ले आएंगे। तब तो ठीक है ना! तुम्हारी फरवरी के कम दिनों वाली शिकायत भी दूर कर रही हूं मैं! अब तो खुशी-खुशी मान जाओ।”

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चारु बोली, “हां भाभी। मान लिया। अच्छा भाभी, मुझे भी आपसे एक बात कहनी है। अभी घर में पीछे हम जो कमरा बनवा रहे हैं, उसमें काफी पैसा लग रहा है। और फिर बेटे की नीट की कोचिंग फीस भी भरनी है। तो मैं सोच रही हूं कि मां से बात कर उनके बैंक खाते से एक लाख रुपये निकलवा लूं। आप चाहें तो आप भी मां से इतने ही पैसे मांग लें। इससे हमारा बराबर का हिसाब रहेगा।”

ममता ने उत्तर दिया, “चारु, जरा गहराई से सोचोगी तो समझ पाओगी कि मां के खाते से अभी पैसे निकालना हमारे लिए फायदे का सौदा नहीं होगा।”

ऐसा सुनकर चारु ने कहा, “पर क्यों, भाभी? मां के नाम पर पांच-पांच लाख रुपये की दो एफडी छोड़ गए हैं पिता जी। उनके बचत खाते में भी बड़ी रकम पड़ी है। हर महीने पिता जी की पेंशन आती है, सो अलग। मां को इतने सब पैसे का क्या करना है? आखिर सब हमारा ही तो है।”

चारु का मत सुनकर ममता ने इस बारे में अपने पति समीर से बात की, और अब समीर ने वीडियो कॉन्फ्रेंस कर चारों (ममता, रोहन, चारु और वह स्वयं) को एक साथ लिया और इस बारे में विस्तृत चर्चा की।

समीर ने सबको समझाया कि जब दोनों परिवारों की आय अच्छी है, तो पैसे अभी अपने पास से ही व्यय किए जाएं। हम मां से पैसे लेंगे और अपने पैसे बचाकर बचत योजनाओं में निवेश करेंगे, तो उन पर कम रिटर्न मिलेगा। जबकि मां सीनियर सिटीजन हैं, उनके नाम पर जमा पूंजी पर अधिक ब्याज मिलता है।

सरकारी नियमों के अनुसार वरिष्ठ नागरिकों को विभिन्न योजनाओं पर अधिक लाभ के साथ-साथ अनेक प्रकार की वित्तीय रियायतें मिलती हैं। भविष्य में मां के पैसे, मां के हिस्से का मकान, मां के आभूषण आदि सब हमारे ही तो होंगे। दोनों भाई बराबर-बराबर बांट लेंगे।

रोहन ने भी अपनी पत्नी चारु को समझाते हुए कहा, “भूल गई क्या कि मां और पिताजी दोनों अपने हिस्से के मकान में रहते थे क्योंकि पिताजी का मानना था कि वे अपने बेटे-बहुओं पर बोझ बनकर नहीं रहेंगे। लेकिन पिताजी के स्वर्गवास के बाद हमने सोचा कि उनका फुली फर्निश्ड पोर्शन हम किराए पर दे देंगे,

तो किराए की बड़ी रकम हम आपस में बांट लेंगे। अपनी भोली मां को हमने यह कहकर मनाया था कि दो बेटों के होते हुए वे अकेली क्यों रहेंगी और हमारी मंशा से अनजान वह मान भी गईं। उनके हिस्से का मकान हमने किराए पर दे दिया। किराए के पैसे तो दोनों भाई बांट ही लेते हैं। वैसे तो तुम बहुत होशियार हो, पर तुम्हें ये सब समझ नहीं आता क्या?”

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चारु ने चिढ़ते हुए कहा, “क्यों समझ नहीं आता? मां से पैसे मिलेंगे, इसीलिए तो अपनी बारी आने पर मैं महीने भर मां को अपने यहां बिना चिक-चिक के रख लेती हूं। सारी दिन खांसती रहती हैं, फिर भी उन्हें सहन करती हूं।”

फिर और गुस्साते हुए कहने लगी, “इस बार तो भाभी ने अपने घूमने जाने की चाह में समस्या हल कर दी। लेकिन साफ-साफ बता रही हूं कि ये 31 दिन वाले महीने हर बार हमारे हिस्से में नहीं आने चाहिएं। और हां, मुझे मूर्ख मत समझो। पैसे वाली बात मुझे समझ आ गई है। पर अपने हिस्से में मां को एक दिन भी अधिक रखना मुझे मंजूर नहीं है। मां को रखने का हिसाब बराबर का होना चाहिए।”

अपने आप को ज्यादा समझदार मानने वाली ममता ने इस बार फिर अपनी देवरानी चारु को मीठे शब्दों में आश्वस्त किया, “परेशान मत हो चारु। तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो। कभी-कभी मैं मां को एक-दो दिन अधिक रख लिया करूंगी। तुम खुश रहो। वैसे भी, यूं तो मां बिल्कुल सीधी-साधी हैं, लेकिन हर बार एक तारीख को ही तुम्हारे पास भेजेंगे, तो उन्हें भी शक होने लगेगा। वो अपना विभाजन कभी स्वीकार नहीं करेंगी।

तब तो हमारी सारी योजनाओं पर पानी फिर जाएगा। फिर तो मां सारे पैसे दान कर देंगी और फूटी कौड़ी भी हमें नहीं देंगे। करना तुम्हें यह है कि कभी एक, कभी दो, तो कभी तीन तारीख को हमारे यहां से खुद मनुहार करके ले जाना ताकि मां को किसी प्रकार का शक न हो। और हां, ध्यान रहे कभी तीन तारीख से अधिक विलंब नहीं होना चाहिए।”

रोहन ने अपनी भाभी ममता की तारीफ करते हुए कहा, “बिल्कुल सही कह रही हैं भाभी आप। 22 फरवरी को भी मैं स्वयं आपके पास आकर मां को यह कहकर ले जाऊंगा कि छोटे बेटे को भी तो अपना प्यार दीजिए। मैं अपनी स्वाभिमानी मां को अच्छी तरह पहचानता हूं। एक बार भी उन्हें महीने-महीने वाली बात पता चल गई, तो………….” 

“शाबाश रोहन बेटा! कितने होशियार हो! कितना सही पहचानते हो अपनी मां को! लेकिन मैं कितनी मंदबुद्धि हूं कि अपने बच्चों को ही नहीं पहचानती!” अपने बेटे रोहन की बात काटते हुए, वीडियो कॉन्फ्रेंस पर बात कर रहे अपने बेटे समीर का मोबाइल छीन कर मां सुनीता जी ने कहा। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी।

दोनों और सन्नाटा छा गया। यह मां कहां से आ गई? मां तो अपने कमरे में सो रही थीं! सब के भावों को समझते हुए मां ने स्वयं के आंसू पोंछते हुए, मजबूत बनने की कोशिश करते हुए कहा, “तुम सब यह सोच रहे हो न कि मां बीच में कहां से आ गई? तुम्हारी चाची दर्शना का फोन आया था कि कल सुबह जल्दी उठकर एक साथ कुल देवी के मंदिर चलते हैं। मैं इस बारे में समीर से विमर्श करने आई थी। लेकिन शायद कुलदेवी इस बहाने मेरी आँखें खोलना चाहती थी। मैंने तुम चारों की सारी बातें सुन ली हैं।”

इतना कहते ही सुनीता जी का गला रूंध गया था। समीर ने अपनी मां को सोफे पर बैठाया। बहू ममता सुनीता जी को पानी पिलाने लगी। थोड़ी देर में रोहन और चारु भी यहीं पहुंच गए। चारों हाथ जोड़कर कह रहे थे कि मां हमें माफ कर दीजिए। हमारा यह मतलब नहीं था….. वगैरह वगैरह….. चारों अपनी सफाई देने में लगे थे।

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मां सुनीता जी ने सबको शांत करते हुए, आराम से लेकिन दृढ़ शब्दों में कहा, “मेरे बच्चों, माफी मांगने की आवश्यकता नहीं है। आज के युग में बच्चों का ऐसा व्यवहार भी आश्चर्यजनक नहीं है। कुछ समय के लिए मैं परेशान हो गई थी क्योंकि मैंने अपने बच्चों को बाकी बच्चों से अलग समझने की भूल की। ना तो मैं तुमसे नाराज हूं

और न ही तुम्हें डरने की आवश्यकता है कि मैं तुम्हें फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगी। अपनी इच्छा के अनुसार मैं हर महीने थोड़ा दान करती हूं और वह मैं करती रहूंगी। मेरे बाद जो भी बचा रहेगा, वो तुम्हारा ही होगा। बच्चे अपनी मां को बोझ समझ सकते हैं। पर मां जब तक हो सके अपने बच्चों को बोझ ढोते हुए नहीं देख सकती, इसलिए मैं तुम्हें स्वयं के बोझ से मुक्त करती हूं।”

समीर ने कहा, “मां, हमसे गलती हुई है। आप बोझ कैसे हो सकती हैं? आप जितने दिन जहां चाहें रहें। हमें माफ कर दीजिए।” बाकी तीनों भी समीर की हां में हां मिलाने लगे।

अब सुनीता जी ने स्पष्ट रूप से कहा, “मैं भी यही चाहती थी कि दोनों बेटों के पास आती-जाती रहूं, लेकिन महीनों का, दिनों का हिसाब लगाकर नहीं। तुम्हारी स्वार्थपूर्ति के लिए फालतू की वस्तु बनकर नहीं! मैं कृतज्ञ हूं तुम्हारे पिताजी की, जिन्होंने मेरे न कहने के बावजूद मेरे लिए सब प्रबंध किया ताकि मैं स्वाभिमान से जी सकूं। कल सुबह ही मैं किराएदार से कह दूंगी

कि अपनी सुविधानुसार मेरा पोर्शन खाली कर दे। उसके ऐसा करते ही तुम सब को मुक्त करते हुए मैं अपनी व्यवस्था वहां कर लूंगी। यह एक फैसला मैंने अपने आत्मसम्मान के लिए लिया है और मैं अपने फैसले पर अडिग हूं।”

– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

– प्रतियोगिता विषय: #एक फैसला आत्मसम्मान के लिए

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