मां ही मेरा परिवार है – गीता वाधवानी 

एक बड़े से शहर के छोटे से पार्क में विनय बैठा था। तभी उसका मोबाइल बजा, उसने देखा कि उसके दोस्त देव का फोन है। 

देव-“विनय, क्या मैं 2 दिन के लिए तेरे साथ तेरे कमरे में रहने आ जाऊं? मुझे पूरी आशा है कि 2 दिन में मेरे अपने कमरे का इंतजाम हो जाएगा।” 

विनय-“हां, यार आजा। मैं तो अकेला ही रहता हूं तेरे आने से मेरा मन भी लग जाएगा।” 

इतना कहकर उसने अपना पता देव को बता दिया। शाम को देव उसके घर आया और 2 दिन उसी के साथ रहा। तीसरे दिन उसके कमरे का इंतजाम हो गया और वह चला गया। 

विनय भी रोज की तरह ऑफिस चला गया। शाम को जब वह घर वापस आया तो एक औरत उसके घर के बाहर बैठी थी और उसके पड़ोसी उसी के बारे में बातें कर रहे थे। 

विनय को आते देख कर औरत बोली-“आ गया तू ऑफिस से।” 

विनय हैरान होकर बोला-“आप जानती हैं मुझे?” 

औरत बोली-“बेटा, अब ऐसी भी क्या नाराजगी, नाराजगी छोड़ दे बेटा। गुस्से में अपनी मां को भी नहीं पहचानता क्या?” 

विनय के पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी बोले-“हां विनय बेटा, मां से नाराज नहीं होते। देखो, दरवाजे के बाहर दोपहर से तुम्हारा इंतजार कर रही हैं।” 

विनय-“अरे, लेकिन आप लोग मेरी बात तो सुनिए, यह मेरी मां है ही नहीं, मैं इन्हें नहीं जानता, पता नहीं कौन है?” 

 वह औरत जिसका नाम कमला था,-“देखा, देखा ना आप लोगों ने, कितना ज्यादा नाराज है मुझसे, मुझे पहचानने से भी इंकार कर रहा है।” 

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सब लोगों ने विनय को समझा-बुझाकर कमला को अंदर कमरे में विनय के साथ रहने भेज दिया। 

विनय गुस्से में भुनभुना रहा था।”ना जाने कौन है, मेरे पीछे पड़ गई है साथ में रहने भी आ गई। मान ना मान मैं तेरा मेहमान। मुझे तो अपने लिए ही खाना बनाने में इतनी दिक्कत होती है, अब इसके लिए भी खाना बनाना पड़ेगा।”

इसी तरह बड़बड़ाते हुए, उसने खाना बनाया और एक थाली कमला के आगे सरका दी। दोनों खाना खाकर सो गए। 

कमला को नींद आ गई थी पर विनय को नींद नहीं आई। वह बहुत बेचैन था। वह सोच रहा था कि मैंने अपनी मां की मृत्यु के बाद सहारनपुर छोड़ा और दिल्ली आ गया। यहां आकर मैंने नौकरी ढूंढी। वही रहता तो उस घर में मां की याद सताती रहती। और ना जाने क्या-क्या सोचते हुए उसकी आंख लग गई। 

सुबह फिर विनय ने दोनों के लिए चाय बनाई और गुस्से में नाश्ता नहीं बनाया। चाय पीकर ऑफिस चला गया। 

शाम को जानबूझकर देर से आया। तब कमला बोली-“बेटा विनय, आने में बहुत देर कर दी। थक गया होगा, चल हाथ मुंह धो ले, मैं खाना परोस कर देती हूं।” 

   तब विनय ने गौर किया कि कमरे का नक्शा ही बदल चुका है। धुली हुई चादर, साफ-सुथरे बर्तन, और गरमा गरम खाना भी तैयार। तब उसका गुस्सा थोड़ा कम हुआ और उसने कमला के साथ खाना खाया। 

कमला बिल्कुल उसकी मां की तरह कभी उसके साथ मजाक करती कभी उसके बालों में तेल लगाती, कभी उससे कहती मेरे पैर दबा दे। इसी तरह पूरे 7 दिन बीत गए। विनय को लग रहा था कि उसकी मां फिर से उसके पास आ गई है। 




एक दिन शाम को विनय जब ऑफिस से वापस आया तब घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोस में पूछने पर उसे कमरे की चाबी तो मिल गई पर कमला का कोई अता पता नहीं था। फिर सप्ताह बीत गया, कमला न जाने कहां थी। विनय पूरे हफ्ते परेशान रहा, फिर अचानक एक दिन कमला वापस आ गई। 

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उसे देखते ही विनय बोला-“मां, तुम ऐसे बिना बताए कहां चली गई थी, मैं तो परेशान हो गया था। तुम्हें ढूंढता भी तो कहां, मुझे तो तुम्हारा नाम तक नहीं मालूम।” 

कमला फिर से उसके साथ रहने लगी। 1 दिन विनय ने उससे पूछा-“मां, सच-सच बताओ कि तुम्हें मेरा एड्रेस कैसे मिला और तुम्हें कैसे पता लगा कि मैं यहां इस कमरे में अकेला रहता हूं।” 

कमला ने कहा-“एक दिन जब तुम अपने दोस्त को अपना पता बता रहे थे, मैं भी वही उस पार्क में बैठी थी।” 

चार-पांच दिन बीत गए, छठे दिन एक लड़का विनय के घर पुलिस लेकर आ गया और बोला,”देखिए इंस्पेक्टर साहब, इस लड़के ने हमारी मां को बहला-फुसलाकर अपने घर में रखा है और हमारी मां से मुफ्त में सारे काम करवा रहा है क्योंकि हमारी मां की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, यह लड़का इस बात का फायदा उठा रहा है।” 

विनय के कुछ कहने से पहले ही कमला बोली-“इंस्पेक्टर साहब, मुझे कुछ नहीं हुआ है मैं बिल्कुल ठीक हूं। आप विनय से कुछ मत कहिए, मैं आपके साथ चलती हूं “और कमला चली गई। 

विनय को लगा जैसे उसकी मां उसे दोबारा छिन गई हो क्योंकि वह मां को ही अपना परिवार समझता था। उसके लिए सब कुछ उसकी मां ही थी। 

कमला ने पुलिस को बताया-“साहब जी, मुझे लगता है कि मुझे मेरे कर्मों का फल मिल रहा है। मेरे दो बेटे हैं। दोनों ही मुझे अपने पास रखना नहीं चाहते। मुझे बोझ समझते हैं। मेरे पति की मृत्यु हो चुकी है। दोनों बहुएं मुझे परेशान करती हैं और जब मैं गुस्सा करती हूं तो मुझे लोगों के सामने पागल पागल कहती हैं। दो बेटों के चक्कर में मैंने गर्भ में पल रही कन्या का गर्भपात करवा दिया था, शायद उसी पाप की सजा मुझे मिल रही है। वह होती तो मेरा कितना ध्यान रखती।”




उस दिन जब मैंने विनय का पता उसके मुंह से सुना, तब मैं उसके घर रहने चली गई, बिना किसी रिश्ते के, क्योंकि तब मैं बहुत ज्यादा परेशान थी। मुझे जो कुछ समझ में आया, वो मैंने किया।” 

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तब तक विनय भी पूछते पूछते थाने में आ चुका था और उसने सारी बातें सुन लीं थीं। उसने इंस्पेक्टर से कहा-“साहब, अब तो आपको पूरी बात पता चल चुकी है, क्या मैं इन्हें अपने घर ले जाऊं?” 

इंस्पेक्टर ने कहा-“एक बार इनके घर वालों से पूछ लो, ताकि वे तुम्हें बाद में परेशान ना कर सके।” 

विनय ने पूछा तब उन लोगों ने दिखावा करते हुए कहा-“ऐसे कैसे भेज दे मां को, दुनिया क्या कहेगी, दो बेटों के होते हुए एक अनजान के साथ रहना , यह क्या बात हुई?” 

विनय-“जब वह एक-एक हफ्ता घर पर नहीं होती थी, तब तो आपको मां की चिंता नहीं थी और ना ही दुनिया वालों की, अब यह दिखावा क्यों?” 

दोनों बहुएं बोली-“हां हां ले जाओ बुढ़िया को, एक तुम ही तो हो इनकी चिंता करने वाले।” 

विनय ने कमला को साथ चलने के लिए कहा। दोनों अभी चार कदम आगे बढ़े ही थे कि पीछे से बहुओं के हंसने की आवाज आई-“चलो अच्छा हुआ, बला टली।” 

कमला की आंखों में आंसू आ गए और विनय से बोली-“विनय, मेरे मरने पर तू ही मेरी चिता को अग्नि देना और इन दोनों को खबर करने की भी जरूरत नहीं है। चल बेटा चल, अपने घर चलते हैं।” 

विनय को मां के रूप में अपना परिवार फिर से मिल गया था। 

स्वरचित गीता वाधवानी

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