माँ बिना पीहर नहीं, सासू बिना ससुराल नहीं

घर के आँगन में रौनक थी। आज सुषमा की ननद, किरण अपने मायके आई थी। पूरे दो साल बाद उसकी यह मायके यात्रा हुई थी। जैसे ही वह घर में दाखिल हुई, सुषमा दौड़कर उससे लिपट गई।

“आइए दीदी, बहुत दिनों से आप नहीं आईं। हम सब आपको बहुत याद कर रहे थे। शायद पूरे दो साल हो गए होंगे आपको देखे हुए।”

किरण मुस्कुराई और बोली—“हाँ भाभी, इस बार सचमुच बहुत समय लग गया। अबकी बार मैं पूरे एक सप्ताह रहूँगी। अम्मा-बाबूजी के बाद अब आप लोग ही तो मेरे मायके हो।”

सुषमा ने स्नेह से कहा—“अरे दीदी, अब भी यह घर आपका ही है। आप यहाँ आती हैं तो लगता है अम्मा-बाबूजी लौट आए हों।”

फिर दोनों बहनें चाय-जलेबी और कचौरी की बातें करने लगीं। अरुण भी बहन के स्वागत में लगे थे। घर में मिठास घुली हुई थी।

कुछ देर बाद किरण ने अपनी थैली से कुछ लिफाफे निकाले और बोली—
“भाभी, आपने कहा था न कि अन्वी के लिए अच्छे रिश्ते बताओ। देखो, मैं तीन-चार अच्छे रिश्ते लेकर आई हूँ। सब बहुत अच्छे घरों के हैं।”

सुषमा और अरुण उत्सुकता से फोटो देखने लगे।

किरण ने पहला फोटो दिखाया—“देखो यह लड़का, इंजीनियर है। दिल्ली में जॉब करता है। माँ नहीं है इसकी, लेकिन पैसा बहुत है। अन्वी राज करेगी वहाँ।”

फिर दूसरा फोटो दिखाया—“यह लड़का हमारे ससुराल के रिश्ते में है। इसके माँ-बाप नहीं हैं, बस दो बहनें हैं। बहुत ज़मीन-जायदाद है।”

तीसरे फोटो पर आते हुए बोली—“यह देखो, कितना स्मार्ट है। इसके भी माँ नहीं है। बहुत अच्छा घर है।”

सुषमा थोड़ी देर चुप रही, फिर अचानक बोल पड़ी—
“क्या दीदी, आपने ध्यान दिया? आप जिन रिश्तों की बात कर रही हैं, उनमें से किसी के माँ-बाप नहीं हैं। कहीं माँ नहीं है तो कहीं माता-पिता दोनों नहीं हैं। आप तो बस यह सोच रही हैं कि वहाँ अन्वी राज करेगी। लेकिन मैं ऐसे घर में अपनी बेटी को नहीं भेजना चाहती।”

किरण ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा—“तो इसमें बुरा क्या है? अगर सास-ससुर नहीं होंगे तो हमारी अन्वी का हुक्म चलेगा। न कोई ताना, न कोई बंधन। ठाठ से रहेगी।”

सुषमा ने शांत स्वर में कहा—“दीदी, आप अपनी तकलीफ़ों से देख रही हैं। आपकी सास का स्वभाव तेज़ था, रोज़ आपको ताने देती थीं, बहुत काम करवाती थीं। लेकिन हर सास ऐसी नहीं होती।

जब मेरी शादी हुई थी, मुझे कुछ नहीं आता था। घर संभालना, रिश्ते निभाना, सब मम्मी जी ने सिखाया। गलती होने पर डाँटा भी, पर उसी डाँट में अपनापन था। जैसे माँ अपनी बेटी को डाँटती है।

अगर मम्मी जी न होतीं तो शायद मैं आज यह सब नहीं सीख पाती। घर के संस्कार, परंपराएँ, रिश्तों का सम्मान—यह सब बहू को सास-ससुर ही सिखाते हैं। जैसे मायके में माँ-बाप ज़रूरी हैं वैसे ही ससुराल में सास-ससुर का होना भी उतना ही ज़रूरी है।”

किरण ने कहा—“लेकिन भाभी, जमाना बदल गया है। अब लड़कियाँ सब जानती हैं। सास-ससुर न हों तो भी चल सकता है।”

सुषमा मुस्कुराई—“चल तो सकता है दीदी, लेकिन अधूरा रहेगा। बेटी को भरा-पूरा परिवार मिलना चाहिए। जहाँ वह दोनों माँओं का और दोनों पिताओं का प्यार पाए। मैं नहीं चाहूँगी कि मेरी अन्वी को सिर्फ पति का साथ मिले और बाकी रिश्तों का खालीपन जीवनभर सालता रहे।”

सुषमा ने आगे कहा—
“मेरी माँ कहा करती थीं—‘सास अपनी बहू को खुद कह देती है, लेकिन किसी दूसरे को कहने नहीं देती।’ यही तो परिवार की खूबसूरती है।

माँ बिना पीहर नहीं, तो सासू बिना ससुराल नहीं।

अगर घर में सास-ससुर होंगे तो अन्वी को भी सिखाने, समझाने और सहारा देने वाले मिलेंगे। कल जब उसके बच्चे होंगे, तो वह भी वही संस्कार अपने बच्चों में डालेगी। पीढ़ियों का यह सिलसिला ऐसे ही चलता है। अगर हम इसे तोड़ देंगे तो आने वाली पीढ़ियाँ रिश्तों की मिठास से वंचित रह जाएँगी।”

किरण गहरी सोच में डूब गई। उसे अपने शुरुआती वैवाहिक जीवन की याद आ गई जब सास के तानों से वह दुखी रहती थी। लेकिन उसने यह भी महसूस किया कि सास के बिना घर खाली-खाली लगता। त्योहारों पर उनकी कमी खलती। सच तो यह था कि सास के साथ झगड़े ही उसके जीवन की कहानियाँ थीं, वही यादें अब मायने रखती थीं।

किरण ने धीरे से कहा—“भाभी, शायद आप सही कह रही हैं। कल को जब हमारे बेटों की शादी होगी, तो लड़की वाले यह सोचें कि इसकी माँ है तो ताने देगी… तो हमें कैसा लगेगा?”

दोनों ने एक-दूसरे को देखा और ठहाका लगा दिया। घर में हँसी गूँज उठी।

किरण ने कहा—“ठीक है भाभी, आप ही देखना अन्वी का रिश्ता। मैं तो बस मदद करना चाहती थी। सच कहूँ तो आपकी बातें सुनकर मेरा भी मन बदल गया। परिवार का होना ही असली सुख है। वरना पैसा और ऐशो-आराम से क्या होता है।”

सुषमा ने दीदी का हाथ पकड़ते हुए कहा—“बिल्कुल दीदी, परिवार ही असली ताक़त है। अन्वी को भी वही घर मिलेगा जहाँ उसे पूरा परिवार मिले।”

रात को जब सब साथ बैठे तो माहौल बहुत स्नेहिल था। सुषमा मन ही मन संतुष्ट थी कि उसने अपनी बेटी के लिए सही सोच रखी।

जिंदगी में सास-ससुर का होना कभी बोझ नहीं, बल्कि एक सहारा होता है। माँ-बाप जैसे पीहर में जरूरी हैं वैसे ही सास-ससुर ससुराल में जरूरी हैं।

परिवार का मतलब ही है—हर उम्र, हर रिश्ते का साथ।और सच तो यही है—
“माँ बिना पीहर नहीं, तो सासू बिना ससुराल नहीं।”
मूल लेखिका : नीना माथुर

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