लंचबॉक्स – प्रियंका सक्सेना  : Moral Stories in Hindi

शहर से दूर एक छोटे से शहर नूरपुर में सुबह होते ही बच्चे अच्छे धुले साफ़ सुथरे कपडे पहनकर हाथों में बस्ता लेकर विद्यालय की ओर चल पड़े। 

सरकारी विद्यालय नूरपुर में छठी कक्षा में मास्टरजी के आते ही सभी बच्चों ने समवेत स्वर में गाकर उनका स्वागत किया। होने को तो बच्चे अभिवादन कर रहे थे पर जब सभी विद्यार्थी एक साथ ‘नमस्ते मास्टर जी’ कहते हैं तो वो किसी पहुंचे हुए गाने के सुर ताल से कम नहीं लगता है। 

कोई विद्यार्थी ‘नमस्ते’ के ‘ते’ को खींचकर इतना लम्बा कर देता है कि बाकियों को ‘मास्टरजी’ शब्द को सिकोड़ना पड़  जाता है और यदि दोनों शब्दों, ‘नमस्ते’ और ‘मास्टरजी’ को बच्चों ने तान और आलाप देना शुरू कर दिया तो मास्टरजी को ही कहना पड़ जाता है, ” बैठो बच्चों , किताबें निकालो। हाॅ॑! कौन बताएगा कर कहा पर थे हम, क्या पढ़ रहे थे?”

अमूमन ये आलाप तब लम्बा खींचता है जब मास्टरजी ने कोई टेस्ट लेना हों।

चार पीरियड तक पढ़़ने  के बाद बच्चे खुश हो जाते हैं जब इंटरवल यानि मध्यांतर (रिसेस) का घंटा बजता है।  सभी बच्चे द्रुत गति से हाथ धोने वाले नल पर पहुंचकर हाथ धोकर अपने अपने टिफ़िन बॉक्स खोलकर खाना शुरू कर देते हैं।  आम दिनों में जब मौसम सामान्य रहता है तब क्लासरूम से बाहर मैदान में सभी खाना खाते हैं।

“सूरज , तुम आज फिर लेट हो गए, हम लोगों ‌ने खाना खा लिया।” कहकर मानस बाकी साथियों के साथ हाथ धोने चला गया।

सूरज ने अकेले ही अपना खाना खाया और तभी इंटरवल ओवर हो गया।

वैसे सूरज और मानस  पक्के दोस्त हैं पर हमेशा  ऐसा ही होता है, जब इंटरवल‌ समाप्त होने में पांच ‌मिनट रहते हैं तब सूरज अपना लंचबॉक्स लेकर आता है।  तब तक सभी दोस्त खाना खा चुके होते इसलिए सूरज हमेशा अकेले ही जल्दी-जल्दी अपना लंचबॉक्स खाता।

एक दिन ‌मानस का लंचबॉक्स घर पर‌ रह गया, सूरज कक्षा में नहीं था तो मानस  ने उसका लंचबॉक्स खोला। उसमें रूखी रोटी और नमक देखकर उसे सूरज का अकेले लंच करने के कारण समझ में आ गया।

अगले दिन से मानस अपनी माँ को सारी बात बताकर सूरज के लिए भी खाना लाने लगा। मानस की माँ उदार हृदय महिला थीं, उनका दिल बड़ा था। वह नित्य सूरज के लिए भी समान लंचबॉक्स लगाकर भेजने लगीं। मानस कुछ भी बहाना बनाकर उसे अपने लंच  बॉक्स से खाना ज़रूर खिला देता। 

सूरज  खुद्दार बच्चा था उसने रोज रोज मानस का लंच बॉक्स खाने से  मना किया तो मानस सूरज को अपने घर ले गया जहाँ मानस की माँ ने सूरज को प्यार से समझाया कि वो मानस  को अपना भाई और उन्हें माँ समझे।

दरअसल सूरज के घर में उसकी दादी माँ हैं जो किसी प्रकार घर का गुजारा चलाया करती हैं।  सूरज  के माता-पिता शहर मजदूरी करने गए थे परन्तु वहां से उनकी मौत की खबर आई थी, वे किसी तेज दौड़ती गाड़ी के चपेट में आकर काल कवलित हो गए थे। दादी पोते किसी तरह से एक दूसरे के सहारे ज़िन्दगी की जंग लड़ रहे हैं। दादी किसी तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड करने में लगी रहती थीं।

कुछ सालों तक यही क्रम चला , मानस ने बाकी के दोस्तों को ये कभी पता चलने नहीं दिया परन्तु उसने अपने घरवालों के सहयोग से सूरज की वक़्त-वक़्त पर हर संभव मदद की। इस भले कार्य में उसे अपने माता पिता के साथ साथ बाबा दादी का भी समर्थन प्राप्त था।

सूरज ने मानस के घरवालों की सहायता से और खास तौर से मानस  की माँ  की प्रेरणा से उच्च शिक्षा प्राप्त की और सरकारी विभाग में नौकरी कर ली। दोनों दोस्तों की यह दोस्ती मानस की माँ और उसके घरवालों की निस्वार्थ भावना के कारण दिन पर दिन प्रगाढ़ होती चली गई।

मानस भी पढ़़ लिखकर सरकारी नौकरी का टेस्ट उत्तीर्ण कर अच्छी सी नौकरी करने लगा। दोनों मित्र अब भले ही अलग अलग शहर में रहते हैं परन्तु साल में एक बार एक दूसरे के घर आया जाया करते हैं। मानस की माँ को सूरज के बच्चे भी दादी कहते हैं और उसके पापा को बाबा। सूरज की पत्नी के लिए भी उसके सास-ससुर मानस के माता-पिता हैं, वह पूरे आदर सम्मान के साथ उनको मान देती है।गर्मियों की छुट्टियों में मानस के घर में सभी इकठ्ठे होते हैं तब घर की रौनक देखते ही बनती है।

लेखिका की कलम से  

दोस्तों, स्वार्थ से परे‌ ऐसी सच्ची दोस्ती प्रेरणादायक होती है , साथ ही इसके लिए दिल बड़ा होना ही चाहिए। कृपण दिलवाले सच्ची दोस्ती नहीं कर नहीं पाते हैं, दोस्ती निभाना उनके बस की बात  नहीं!

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धन्यवाद।

-प्रियंका सक्सेना 

(मौलिक व स्वरचित) 

#बड़ा_दिल

शीर्षक – लंचबॉक्स

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