लकवा मार गया है: मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

बात तो वो भी सही थी न पल्लवी? क्या सही थी, बीना सोचे समझे कुछ भी बोलते रहते हो। अरे भई मैंने तो इतना कहा न की अगर मेरे पास सरकारी नौकरी नहीं होती तो तुम्हारी शादी योगेश से हो जाती। हुई नहीं न? तो फिर क्यों उस बात को उकसाते रहते हो? और वैसे भी मैं तो योगेश को जानती भी नहीं थी। पिताजी ने जिसको पसंद किया मैंने भी हाँ में सर हिला दिया। क्यों तुम्हारी पसंद मायने नहीं रखती थी क्या? मेरी पसंद क्या मायने रखती? दसवीं तो पास नहीं कर पाई, पास भी कैसे कर पाती? घरवालों ने साफ़ मना कर दिया था स्कूल जाने से। मैं क्या गाँव की कोई लड़की सातवीं के बाद हाईस्कूल नहीं जाती थी, फिर मुझे कैसे भेज देते?

हाँ ए बात सही है की पहले योगेश से ही बात चल रही थी, लेकिन बाद में तुम्हारे क़स्बे में ही हमारे जान पहचान वाले निकल गए तो योगेश के घरवालों को मना कर दिया था पिताजी ने।

चूँकि योगेश भी तुम्हारे साथ पढ़ा था और दोस्ती थी इसलिए उसे भी जान गई, दिन में एक बार तो ज़रूर आता है, तुम ऑफिस से आते हो तो वो भी ऑफिस का थका तुमसे मिलने चला आता है।

पल्लवी अपनी यादों में खोई थी तभी किसी के खखसने (कोई खाँसने जैसा, जिससे किसी का ध्यान खिंचा जाए) की आवाज़ आई:

कहाँ खोई हो भाभी?



अरे योगेश जी, कब आए?

अभी-अभी आया, कहाँ खोई थी?

ऐसे ही आपके दोस्त की पुरानी बातें याद आ रही थी। कैसा है वो अभी? ठीक हैं, नर्स आ कर सब चेक करती रहती है। दिन में जागा था? हाँ, जूस पी कर सो गए। अच्छा कोई बात नहीं, जल्दी ही ठीक हो जाएगा, आप चिंता मत किजीए।

योगेश देखने में बहुत आकर्षक है, कपड़े भी हीरो जैसा पहनता है, उपर से परफ़्यूम भी जरुर लगाता है।

हॉस्पिटल आने से पहले नहीं लगाता लेकिन ऑफिस जाते वक्त लगाया हुआ परफ़्यूम शाम तक भीनी भीनी ख़ुशबू देता रहता है।

योगेश को सरकारी नौकरी नहीं लगी लेकिन अपने क़स्बे से आधे घंटे की दूरी पर बड़ी कंपनी में नौकरी लगी है।

सरकारी नौकरी न होने के वजह से जब पल्लवी के पिताजी द्वारा बने बनाए रिश्ते की बात को ठुकरा दिया गया तो योगेश के स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुँची।

उसने भी ठान लिया था पल्लवी से ज़्यादा पढ़ी लिखी, खूबसूरत और शहरी लड़की से शादी करेगा।

उसके बाद वो शहर में रहने लगा, वैसे नौकरी प्राइवेट जरुर है लेकिन कमाई विनोद से ज़्यादा है। साल में कम से कम दो बार कंपनी बाहर घुमने भेजती है।

विनोद सब सब बातों से बेख़बर था, बारात के दिन जब योगेश दूर दुर रह रहा था तब बात पता चली, वो भी तब जब शादी के अगले सप्ताह ही विनोद ने योगेश को मतलबी दोस्त कह दिया:

साले तू दोस्त है मेरा? दोस्ती के नाम पर धब्बा है।

क्यों, क्या हुआ भाई?

शादी के दिन तूने मुझे अकेला छोड़ दिया।

नहीं भाई, मैं गया था बारात।

हाँ, लेकिन जब मुझे कुछ खाने-पीने की जरुरत पड़ती तो मुझे किसी को बोलना पड़ता, वहाँ तो पहले से ही जीजा और फूफा भरे थे, वो लोग मुझे बोल कर जाते और वापस नहीं आते। प्यास से मेरा गला सुख गया था। तू पास रहता तो हक़ से पानी पिलाने बोलता तूझे।



मैं तो दुल्हा था, अकेले उठ कर जा भी नहीं सकता था, पेशाब से मेरा पेट फट रहा था, आख़िरकार सब का ग़ुस्सा मैंने मंडप में निकाला, बहुत झगड़ा कर बैठा था मैं उस फूफा से जो बार बार बोल रहे थे “मेहमान थोड़ा फैल कर बैठिए, अब तो आप भी मेरी तरह इस घर के दामाद होने वाले हैं”

भाई मुझे ग़लत मत समझना, मैं तुम्हारे ससुर के सामने नहीं जाना चाहता था।

योगेश ने सारी बात बता दी।

लेकिन विनोद मैं सब भूल गया हूँ, मैं ए भी जानता हूँ की अगर तुम्हें ए बातें पता होती तो तुम कभी इस परिवार से रिश्ता नहीं जोड़ते।

और हाँ, तुम्हारी पत्नी भाभी है मेरी तो उन्हें भाभी का पुरा सम्मान मिलेगा, इन सब बातों में उनका कोई दोष नहीं है।

विनोद की शादी के लगभग दो साल होने वाले हैं, पता नहीं क्या हुआ? एक रात ठंढ से काँपता विनोद वापस घर आया बाद में उसे लकवा मार गया। आनन फ़ानन में क़स्बे से आधे घंटे दूर शहर के हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, योगेश को जब मालूम हुआ तो वो भी भगता आया, डॉक्टर ने कहा है एक महीना लग जाएगा ठीक होने में, विनोद का छोटा भाई एक सप्ताह तक जैसे तैसे कॉलेज से छुट्टी लेता रहा लेकिन परीक्षा शुरू हो रही थी तो उसको पढ़ाई पर ध्यान देना पड़ा, विनोद के पिताजी का रोज़ आना-जाना मुमकिन नहीं था, हॉस्पिटल में एक इंसान को साथ रहने की अनुमति थी तो पल्लवी रहने लगी, एक दो दिन छोड़ कर पिताजी आ जाते फिर शाम वाली बस से वापस चल जाते।

योगेश था जो रोज़ आता था, पल्लवी को बहुत थका देख उसने मना लिया की सप्ताह में एक रात वो योगेश के कमरे में रहेगी और उस रात योगेश हॉस्पिटल में रहेगा।

वैसे भी नींद की दवाओं के वजह से  पुरी रात सोया रहता, सो कर उठता तो आठ-नौ बज जाते, डॉक्टर का कहना था – विनोद जीतना ज़्यादा आराम करेगा उतना जल्दी ठीक होगा। दिन में दो बार नसों को खोलने वाली थैरेपी दी जाती।

कभी-कभी योगेश के रहते पल्लवी पहुँच जाती और नहा-धो कर वापस आ जाती।

विनोद की तबीयत में सुधार हो रही थी लेकिन पुरी तरह से ठीक होने में शायद साल भर लग जाएगा। डॉक्टर इन्तज़ार कर रहे हैं, जिस दिन विनोद खुद से चलने लगेगा उसके अगले दिन हॉस्पिटल से छुट्टी।

पल्लवी इतना खुल कर योगेश से कभी बात नहीं करती थी, लेकिन हॉस्पिटल में उसके आने-जाने से बात करने लगी।

विनोद भी अब धीरे-धीरे बोलने लगा था सो तीनों मिल कर खुब गप्पें करते, योगेश के चुटकुलों से पल्लवी भी हँस देती। जाने-अनजाने योगेश और पल्लवी के बीच दोस्तों जैसा व्यवहार हो गया था।

विनोद को हॉस्पिटल से छुट्टी भी मिल गई। योगेश साप्ताहिक छुट्टी में घर आता और पुरा दिन विनोद के घर रहता। विनोद के सभी घरवाले योगेश के साथ निभाने से खुश भी थे और शुक्रगुज़ार भी। हर कोई योगेश के साथ दिल खोल कर हँसता। अग़ल बग़ल की औरतें विनोद का हाल-चाल पुछने आतीं तो पल्लवी को योगेश के साथ इतना सहज हो कर बात करते देख मन ही मन खिचड़ी पकाने लगती।

पहले बात शुरु हुई “योगेश ने बहुत मदद किया”, “दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया”, “कितना मानता है अपने दोस्त और उसकी पत्नी को”

बाद में जब मन की खिचड़ी में उबाल आने लगा और खिचड़ी डबकने लगी तो बातें भी बदलने लगी “अपने कलूटे पती से खुश नहीं है”, “अपने कितना गोरी चिट्टी है, उतना ही आकर्षक पती की लालसा रही होगी”, “देखो उस बेशर्म को वो भी सेंट लगा कर रिझाने लगा है”, “शहर में क्या हुआ होगा कोई देखने थोड़ी न गया”, “वो भी तो मुवाँ जवान है”, “पहले उसी का रिश्ता इस से तय हुआ था”, “खुब मज़े उड़ाए होंगे उस छूटे साँढ ने”, “तभी तो विनोद की बहुरिया उस से हँस हँस कर सटते रहती है”, “देखते नहीं छुट्टी वाले दिन शाम तक यहीं रहता है”



अब एक के मुँह से निकली तो खिचड़ी में मसाले और घी हर किसी ने अपने हिसाब से डालना शुरू कर दिया। योगेश तो वापस जा चूका था, अब तो अगले सप्ताह ही आएगा।

हद तो तब हो गई जब उस मुँहफट और बड़बोली औरत ने छत पर कपड़ा सुखाते पल्लवी से कह दिया “ओह, हाय रे मेरी बिटिया, जवानी में क्या दिन देखना पड़ गया तुझे”, “लकवा मार गया, लकवा मारा वो किस काम का”, “पता नहीं कैसे गुजरेगी तुम्हारी जवान ज़िंदगी”, “अभी भी वक्त नहीं गुजरा है, सही फ़ैसला लो और हाथ थाम लो उसका”

किसका हाथ थाम लूँ? क्या बोल रहीं हैं आप?

हाय रे मेरी भोली बिटिया, ऐसे जता रही हो जैसे हमें कुछ पता ही नहीं।

क्या पता है आपको?

सब पता है, तुम्हारे सारे मज़े जो शहर में उस छुटे साँढ के संग तुमने किए।

काकी, आपको शरम नहीं आती बोलते? बेटी जैसी हूँ मैं आपके।

अजी हाँ, छोड़ो भी मासूमियत का ढोंग करना, हमें तो जैसे पता ही नहीं जैसे, बेचारे विनोद को तो लकवा मार गया, वो अब तुम्हारे किस काम का?

काकी तुम बुजुर्ग हो, उसी का लिहाज़ कर रही हूँ, नहीं तो इसी स्टील की बाल्टी फेंक कर मारती तुम्हारे मुँह पर, यहिं लकवा मार जाता तुम्हें।

रही बात मेरे पती की तो उनका लकवा बहुत हद तक ठीक हो गया है, महीने दो महीने में पुरी तरह ठीक हो जाएगा।

लेकिन तुम कैसे ठीक हो पाओगी? तुम्हारे तो रूह में लकवा मार गया है ।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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