अनुज के लिए दक्षा का रिश्ता आया था. मालिनी जी को सहज विश्वास ही नहीं होता कि अनुज इतना बड़ा हो गया. ऐसा नहीं लगता कि सब कुछ कल ही की बात हो एक लंबा समय व्यतीत हुआ है मगर मां के लिए कभी उसका बच्चा बड़ा नहीं होता आज भी अनुज के बचपन के ढेरों किस्से हैं जो मालिनी जी का अकेले में जी बहलाते रहते हैं.
अनुज उनका इकलौता बेटा है. बचपन से ही इसे बहुत लाड मिला है, मां का भी, पिता का भी,दादा-दादी के तो स्नेह की सीमा है ही नहीं, पता नहीं दादा दादी अपने पोते से इतना अधिक स्नेह क्यों रखते हैं.स्नेह तक तो बात ठीक है मगर बात जब उस स्नेह की अधिकता से जुड़ी हो तो वह बच्चों के परवरिश के लिए खतरा बन जाता है. संतोष था कि दादा दादी का गाँव में रहना होता था मगर जब कभी आते छः महीने तक उनका रुकना होता था, छः महीनों में मालिनी जी की सारी परवरिश पर पानी फेर दिया जाता. मालिनी जी चाहती थीं अनुज बिल्कुल ना बने अपने पिता जैसा.. आदतों और आचरण में.
उन्होंने एक लंबे समय तक अपने पति की तानाशाही सही है,माँ ने संस्कार ऐसे दिए थे कि कभी किसी बात का विरोध ना कर सकीं मगर मन ही मन एक आंदोलन छिड़ी ही रहती पति के विरुद्ध..और इसमें अहम भूमिका थी पति की मां और उनकी सास की.. हमेशा एक ही बात कहतीं
” स्त्री का तो जन्म ही हुआ है घर गृहस्थी करने को.. पति की सेवा करने को..औरत के लिए आदमी ही उसका भगवान होता है, बहू. “
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मतलब कि तुम गृहस्थी और पति से आगे बढ़कर कुछ सोचना भी मत. पति का हर छोटा से छोटा और बड़ा से बड़ा काम करना ही पत्नी का धर्म होता है.
पत्नी के लिए क्या धर्म का दायरा इतना संकुचित होना चाहिए.सारी दुनिया ईश्वर की पूजा अपनी इच्छा और अपने चुनाव से करे.. और पत्नी.. पत्नी के लिए उसके पति को ही उसका परमेश्वर तय कर दिया गया. पत्नी से पूछा तक नहीं गया कि उसकी आराधना वह करना चाहती भी है या नहीं.
खैर, मालिनी जी ने तो जैसे तैसे अपना जीवन गुज़ार ही दिया था मगर अपनी संतान में वह इन अवगुणों का बीज नहीं रोपना चाहती थीं इसीलिए अनुज को हमेशा उन्होंने हर काम सिखाने की कोशिश की थी.. घर के छोटे-छोटे काम.. जैसे.. कभी चाय बना लेना, तो कभी मैगी, वक्त पड़े तो रोटी बनाना भी सिखाया था उसे. ऐसे बहुत से काम थे जो अनुज ने मालिनी जी के साथ रहते रहते सीख लिया था कभी-कभी झल्लाता था क्योंकि उसके अंदर आखिर पिता का भी तो लहू था जो उबालें मारता था..
“क्या मम्मा,, मैं ये लड़कियों वाले काम नहीं करूंगा “
मालिनी जी उसके कान उमेठ देतीं.. अच्छा… और दोनों मुस्कुरा देते. छुट्टियों में जब अनुज की दादी आतीं तो उन्हें यह सब देखकर बुरा लगता कहतीं, ” अब का लड़का पढ़ाई लिखाई छोड़कर घर गृहस्थी करेगा, बड़े अच्छे संस्कार है,तुम्हारे बहू” मालिनी जी क्रोध का शरबत बनाकर पी जातीं, करतीं भी क्या,मन तो आता कहकर अपनी भड़ास निकाल लें..आपने बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं ना कि बगल में सोई पत्नी दर्द से कराह रही हो और आपके दिए संस्कारों ने कभी उसके सर पर प्यार से हाथ भी न फेरा… मगर कुछ नहीं कह पातीं, चुप रह जातीं..
उनका बस एक ही सपना था अनुज और उसकी पत्नी का वह प्यार और समर्पण से घुला मिला दांपत्य जीवन जिसे देखकर मालिनी जी अपने जीवन के प्रेम रिक्त जीवन की पूर्ति कर सकें. जब दक्षा का रिश्ता आया तो अनुज की दादी ने सबसे पहले अपनी टांग अड़ाई,,अरे इसका रंग तो देखो… साँवली है..बाल कटे..इतनी ज्यादा पढ़ी लिखी है पति के ऊपर रौब दिखाएगी मगर मालिनी जी को जाने क्यों दक्षा एक ही झलक में अपनी सी लगी,उसके साँवले चेहरे में आँखें किसी रत्न की तरह जड़ी हुई थीं. अपने लिए वह पढ़ी-लिखी बहू ही चाहती थीं, जिसे गलत बातों का विरोध करना आए.
बात हँसने की सही लेकिन अनुज जब बहुत छोटा था..मालिनी जी तब से अपनी बहू के सपने सँजोए बैठी हैं. संयोग से खुशी की बात रही कि अनुज के पापा को भी यह रिश्ता पसंद आ गया..अनुज ने भी स्वीकृति दे दी.मालिनी जी ने जीवन में पहली बार अपने मन मुताबिक होता हुआ देखकर ईश्वर को धन्यवाद किया. वर और वधू दोनों ही पक्ष की ओर से औपचारिकताएं पूरी की गईं और दक्षा ने अपने शुभ संकेतों के साथ घर में प्रवेश किया.
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प्रवेश किया ही था कि दादी सास का पहला ताना उसे शर की तरह आ लगा “पढ़ी लिखी हो,,अपने पति को भी मत पढाने लगना.
पता नहीं दूसरों के संस्कारों पर उंगली उठाने वाली अनुज की दादी को उनकी मां ने कैसे संस्कार दिए थे मगर किसी में हिम्मत तो हो उन्हें जवाब देने की..मगर आश्चर्य..
दक्षा ने तो पहला वार ही खाली न जाने दिया..
” अनुज तो पहले से पढ़े लिखे हैं दादी जी”
सारे मेहमान अवाक् होकर उसका मुँह देखने लगे.. मालिनी जी मन ही मन मुस्करा दीं फिर दक्षा को चुप कराने का नाटक भी किया.
मालिनी जी को पता नहीं क्यों दक्षा के तेवर बुरे नहीं लगे.सबने डराया..बहू तुम्हारे हाथ से तो गई मालिनी मगर मालिनी जी इस सिद्धांत पर विश्वास करती थीं कि आप जैसा देते हो वैसा ही पाते हो. यही प्रकृति का नियम है.धीरे-धीरे दक्षा और मालिनी जी में बड़ा ही खूबसूरत रिश्ता बन गया.दक्षा बड़ी प्यारी बच्ची थी मगर गलत बातों के लिए किसी को भी सुना देती थी..अनुज को भी और मालिनी जी को थोड़ा भी बुरा नहीं लगता.वह अनुज और दक्षा के मनमुटाव के बीच कभी नहीं पड़तीं शायद इसीलिए दोनों की लड़ाई के बाद की चुप्पी का अंतराल अधिक बड़ा ना होता.
समय-समय पर मालिनी जी दोनों को समझा भी दिया करतीं. ज्यादातर वह अनुज को ही समझातीं. दक्षा से उनका कभी किसी बात पर मतभेद होता ही ना था.
इधर कुछ दिनों से अनुज छोटी-छोटी बातों पर चिड़कने लगा था, बात-बात पर दक्षा को डाँट देता.. कभी चुप रह जाती..कभी वह भी सुना देती उसे.
ऑफिस के काम की वजह से अनुज खीझ रहा था.एक दिन बाद इतनी बढ़ गई की दक्षा गुस्सा होकर अपने मायके चली गई.
मालिनी जी ने भी नहीं रोका. उसकी अनुपस्थिति में उन्हें बहुत कुछ कहना था अनुज से.
शाम को चाय लेकर वह अनुज के कमरे में गई.
“अनुज “
“हां मम्मा तुम आजकल इतने इरिटेटिंग क्यों हो रहे हो.. बेटा.तुम चाहते हो दक्षा तुम्हारे हर छोटे बड़े काम करे, बेटा इतनी ऊँची शिक्षा उसने सिर्फ तुम्हारे छोटे-छोटे काम करने के लिए तो नहीं ली थी ना, तुम्हारी माँ में वह काबिलियत नहीं थी और साहस भी ना था लेकिन अनुज मैंने हमेशा यही चाहा कि तुम अपनी पत्नी के करियर और उसकी आकांक्षाओं के लिए उतने ही समर्पित रहो जितनी वह है, तुम्हारे लिए..
बेटा यह सब बेकार की बातें हैं कि पत्नी को पति का हर काम करना चाहिए, सुविधाओं के होते हुए किसी को किसी का काम करने की जरूरत ही नहीं है, और फिर जितना काम है उसे तुम दोनों आपस में बाँट कर आराम से कर सकते हो..
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” मम्मा मेरा ट्रांसफर हो गया है.. अगले हफ्ते रिपोर्ट करना है.”
सुनकर थोड़ा अजीब लगा पर मालिनी जी खुश थी बोलीं,
“अच्छा है, वहां दक्षा को भी कोई जॉब करवा देना, मैं जानती हूँ कि कोई लड़की अगर अपनी शिक्षा और डिग्रियों का धुआं उठते हुए देखती है घर के चूल्हे में,तो उसे कैसा लगता है और वहाँ जाकर खुशी से रहना.. उसकी खुशी का ख्याल रखना तुम्हारी प्राथमिकता है बेटा.. अगर कोई माँ अपनी बहू के मुँह से अपने बेटे की तारीफ सुनती है ना अनुज,तो उसकी परवरिश सफल हो जाती है.”
जाते हुए दक्षा ने मालिनी जी को साथ चलने का बहुत इसरार किया मगर मालिनी जी ने यह कह कर मना कर दिया कि जब सारी जिंदगी अनुज के पापा का ताव सहा है तो बुढ़ापे में उनके पौरूष को क्या ही चुनौती देना. मन ही मन सोचने लगीं, मैं तुम्हारे बीच में वह जगह नहीं लेना चाहती जो तुम्हारी दादी ने मेरे और तुम्हारे पापा के बीच में लिया था,, सारी जिंदगी वह एक पत्नी की हैसियत ढूंढती ही रह गईं..
हर सास अपनी बहू के लिए एक बनी बनाई लकीर पर चलती है कि जैसा उसकी सास ने किया वैसा ही वह अपनी बहू के साथ करेगी मगर मालिनी जी ने यह लकीर मिटाने की ठानी थी.
#बुढ़ापा
श्वेता सोनी
Good