लहरों के मानिंद… – संगीता त्रिपाठी

कुछ रिश्ते ऐसे होते जिन्हे हम कोई नाम ही नहीं दे पाते। कभी लगता अच्छे दोस्त हैं, तो कभी कुछ और.. पर दिल संतुष्ट नहीं होता, ना ही उस रिश्ते को छोड़ना चाहता, यानि दिल का रिश्ता, जो किसी नाम, उम्र और जगह या बंधन का मोहताज नहीं होता।

सुहानी और जतिन का रिश्ता भी नाम से परे था। दोनों उम्र के उस मोड़ पर थे, जहाँ ना ये रोमांस था ना ही रिश्ता था, बस एक दूसरे का साथ सुकून देता था। दो बच्चों की माँ सुहानी कभी -कभी सवाल -जवाब में उलझ जाती,” कहीं मै सुहेल को धोखा तो नहीं दे रही “, ना हमने तो कभी हाथ भी नहीं पकड़ा,

फिर धोखे की बात कहाँ से आती.. जतिन बोलता। सुहानी फिर समुन्द्र की लहरों को देखने लगती। हाँ, दोनों के शौक एक जैसे थे, समुन्द्र के किनारे बैठ लहरों का आना -जाना देखना, किसी कॉफी शॉप में बैठ लेटेस्ट पढ़ी गई किताब की समीक्षा, कभी जतिन अपनी लिखी कोई कविता तो कभी सुहानी अपनी लिखी कोई कहानी,कभी सुख -दुख बाँट लेना, बस यही छोटी -छोटी बातें उन्हें करीब ले आई।

कोई पांच बरस पहले सुहानी किताबों की एक दुकान पर, प्रिय लेखक की किताब हाथ में लिये पन्ने पलट रही थी,” बहुत अच्छी किताब हैं, जरूर पढ़िए “एक शांत मर्दानी आवाज ने दुकान की शांति भंग की। सुहानी ने चौंक कर देखा, सामने जो शख्शियत खड़ी थी, कोई बहुत आकर्षक व्यक्तित्व नहीं था,

पर एक चुंबिकीय आकर्षण ने सुहानी को आकर्षित किया। वो शायद काली गहरी, रहस्यमयी ऑंखें जो साधारण व्यक्तित्व को असाधारण बना रही थी।दोनों ने कशिश महसूस की।एक कवि था तो दूसरी लेखिका।नाम, फोन नंबर का आदान -प्रदान हुआ। घर आ सुहानी जतिन के बारे में सोचती रह गई, ये कौन सा आकर्षण था जो उसे जतिन की तरफ धकेल रहा था।

पति सुहेल एक बिजनेस मैन थे , बेहद प्रैक्टिकल वहीं सुहानी एक भावुक और कोमल दिल वाली। दो सफ़र के साथी पर विपरीत रुचियों वाले, बस एक चीज उन्हें डोर से बाँधी थी वो उनका प्यार..।सुहानी सुहेल के खूबसूरत व्यक्तित्व से प्रभावित थी तो सुहेल, सुहानी की खूबसूरती से।जीवन सिर्फ खूबसूरती से नहीं चलता।

समय के साथ दो बच्चे हो गये, सुहानी व्यस्त हो गई सुहेल व्यस्त हुआ अपने बिजनेस को बढ़ाने में। दोनों भावनाओं से अलग रूटीनी जिंदगी जीने लगे। अब सुहेल को सुहानी की लिखी कहानियाँ वक्त की बर्बादी लगती, ना उसके पास सुनने का समय था ना इच्छा।बच्चे बड़े होने लगे और सुहानी कहीं अकेले होने लगी,

बंद इच्छायें फिर जोर पकड़ने लगी, सुहानी अपना समय पढ़ने या समुन्दर के किनारे बैठ लहरों की अठखेलियां देखती,उफ़न कर पूरे आवेग से आती लहरे, किनारे तक आती, लगता किनारे तोड़ देंगी पर फिर जाने क्यों शांत हो कर लौट जाती।


कुछ दिनों से सुहानी परेशान थी, जतिन का कोई कॉल नहीं आया, सुहानी ने कॉल किया पर उधर से कॉल पिक नहीं हुआ। सुहानी थोड़ा बेचैन होने लगी। मन नहीं माना तो जतिन के घर चली गई।अभी तक कभी भी दोनों एक दूसरे के घर कभी नहीं गये।जतिन की पत्नी ने सफेद कपड़ों और सूनी आँखों के साथ दरवाजा खोला

, प्रश्नचिन्ह दृष्टि से देखा, हतप्रभ सुहानी कुछ बोल नहीं पाई, सॉरी गलत जगह आ गई, कह वापस लौट गई। आज उसे अहसास हुआ, जतिन के साथ उसके रिश्ते का कोई नाम नहीं, समाज उनके निस्वार्थ प्रेम को मान्यता नहीं देगा। लहरों के मानिंद, उसे लौट जाना हैं, वहीं अपनी हदों में, तभी शायद सबको सुकून मिले, भले ही

उसका सुकून खत्म हो जाये। मोबाइल में मैसेज फ़्लैश हुआ -“ये दिल का रिश्ता हैं, जो कभी भी कम नहीं होगा, हाँ कोई बंधन भी नहीं हैं, ना कोई उम्मीद,ना कोई वादा सिर्फ एक अहसास हैं, जिसे रूह में महसूस किया जा सकता “।जतिन का मैसेज, जो कई दिन पहले का था।भावनाओं का समुन्दर अपने पूरे आवेग से किनारे

तोड़ देने की कोशिश कर रहा था।पर सुहानी अपने को मजबूत करने में लगी थी।”अपनी इन कविताओं में, कहीं मै हमेशा जिन्दा रहूँगा “जतिन की बात याद आई।

आँखों में आँसू और लबों पे मुस्कान लिये सुहानी मजबूत क़दमों से लौट आई, अपने आशियाने में। आगे बढ़ने के लिये समझौता पहली शर्त होती हैं।जिंदगी कभी भी किसी के लिये रूकती नहीं, ये शाश्वत नियम हैं कुदरत का। अब सुहानी ने कागज़ और कलम से रिश्ता जोड़ लिया जो उसे जतिन के साथ वाला सुकून महसूस कराता था।

कागज़ बहुत सहजता से भावनाओं को अपने में समेट लेता था। कहानियाँ पकने लगी और लहरे शोर करने लगी पर अब सुहानी ने समुन्द्र के किनारे बैठ लहरों को देखना बंद कर दिया। कविताओं का एक संकालन का विमोचन हुआ जिसका नाम  “दिल का रिश्ता ” था और लेखक कोई बेनाम था, यही रिश्तों की सच्ची श्रद्धांजलि थी।

#दिल_का_रिश्ता

 

                                    —संगीता त्रिपाठी

                                   गाजियाबाद 

“तो फिर वकील साहब को बु

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