लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है!!… – पूर्णिमा सोनी : Moral Stories in Hindi

..और धड़ा धड़ खिड़कियां बंद होने की आवाजें आने लगी। कोई नई बात तो नहीं थी, हमेशा ही ऐसा ही होता है। ऋतु के कमरे के सामने जो घर पड़ता था, उसका हमेशा का किस्सा था ये। उसके कमरे की खिड़की बगल वाली गली की ओर खुलती थी, ठीक खिड़की के सामने  पढ़ने वाली मेज़,

  क्योंकि उसे  अपनी रोशनी में चाहिए थी जिससे सूरज की रोशनी कमरे में पड़े। वैसे भी उसकी भरपूर उजाले में पढ़ने की आदत थी,रात की बात अलग होती है, दिन में खिड़कियां बंद करके घुप्प अंधेरे में लाइट जला कर पढ़ना उसे वैसे भी नहीं पसंद था।और  इसीलिए सामने वाले घर की गतिविधियां ( ना चाहते हुए भी) उसे पता चलती रहती थी।

सामने प्रकाश अंकल, उनकी  पत्नी निर्मला जी अपने दो बेटों के साथ रहती थीं। अंकल  पुलिस विभाग में  थे और आंटी  किसी दूसरे आफिस में काम करती थीं  ।

बाहर का तो पता नहीं अंकल का पुलिसिया रोब कितना था, मगर घर में अपनी पत्नी के आगे उनकी एक ना चलती थी।जब तब किसी ना किसी बात पर बहस होती, हालांकि अंकल बहुत दबे स्वर में अपनी बात कहते, फिर आंटी बहुत तेज तेज चिल्लाना शुरू कर देती,…

फिर अंकल का काम होता भाग भाग कर खिड़कियां बंद करना, ( शायद वो घर से बाहर आवाज ना जाए इसकी असफल कोशिश करते थे) परंतु आंटी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनकी आवाज़ का स्वर ऊंचा से ऊंचा होता चला जाता।, दोनों बच्चे छत पर जाने वाली सीढ़ियों पर डरे, सबमें हुए दुबक कर बैठे रहते। यह सब ऋतु को अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे ही दिखता, कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता, बल्कि वो घबराकर, खिड़की का एक पल्ला बंद कर लेती… फिर पूरी खिड़की ही मगर सामने वाले घर की अशांति की गूंज उसके घर तक आती।

उस समय ऐसा माहौल ( किसी के घर में ) होना सामान्य बात नहीं थी। ज्यादातर औरतें ही( अनावश्यक) दबती सहती थीं। मगर उनके घर का किस्सा कुछ ऐसा ही था।

फिर किसी कारण वश अंकल की नौकरी चली गई।

शायद किसी ग़लत अभियोजन में फंस गए थे। बहुत सीधे  साधे व्यक्तित्व के थे… मगर वक्त की मार थी शायद,अब तो आंटी उन्हें और भी कुछ नहीं समझती थीं।

वक्त के साथ ऋतु की पढ़ाई पूरी होती गई। प्रकाश अंकल के बड़े  बेटे को उसने घर के बाहर लोगों से अनावश्यक लड़ते चिल्लाते देखा था, घर में दबे घुटे माहौल से बिल्कुल इतर उसका व्यक्तित्व लगा।

ऋतु भी समय के साथ विवाह हो कर ससुराल चली गई। प्रकाश अंकल के घर का वैसा ही हाल था। हालांकि अब सामने से पता नहीं चलता था क्योंकि मां ने उस पीछे वाले कमरे में सामान भर कर  लगभग स्टोर बना दिया था।

कुछ दिनों बाद प्रकाश अंकल का बड़ा बेटा कहीं सर्विस लग जाने पर बाहर चला गया,उसका विवाह हो गया और पत्नी भी साथ में चली गई।

एक दिन रात को अचानक छोटा बेटा, घर आया जो किसी सर्विस पर बाहर रहता  था,वो  वहीं किसी लड़की से ब्याह कर के सीधे घर आ गया था।

उनके घर में दरवाजे पर ही बहुत लड़ाई हुई, आंटी ने बेटे बहू को घर में घुसाने से साफ इंकार कर दिया था। 

सावन का महीना था, धुआं धार बारिश हो रही थी….. मगर निर्मला  जी ने यह भी नहीं सोचा कि इस भरी बरसात में घर से निकालने के बाद बेटा बहू कहां जाएंगे? अंकल के लाख समझाने पर भी आंटी ने घर में घुसने नहीं दिया और बेटा,बहू को लेकर दरवाजे से ही लौट गया।

अंकल ने बहुत समझाया, कहा कि बच्चे की नादानी समझ कर माफ कर दो,अब तुम्हारे घर  की बहू है, मगर आंटी ने उग्र रूप धारण कर रखा था।

कुछ दिनों बाद अंकल ( शायद चुपके से) अपने छोटे बेटे ,बहू से मिलने गए।बस वो लौट कर आए तो आंटी ने घर में हंगामा मचा दिया। उन्होंने अपने पति से सारे रिश्ते तोड़ते हुए, एक  गाड़ी में सारा सामान लदवाया ( जो उनके अनुसार उनकी कमाई का था) और खाली घर में अंकल को छोड़ कर सदा के लिए बड़े बेटे के पास चली गई।

अंकल का कुसूर बस इतना ही था कि उन्होंने जाति की दीवार तोड़ कर बच्चों को स्वीकार कर  घर में लाने की बात कही थी।

ऐसा अंकल से एक बार मायके जाने पर ऋतु से बात हुई तो उन्होंने बताया था। आंटी ने अपने सभी रुपए पैसों को बड़े बेटे के नाम कर दिया था।

अंकल को सूने घर में अकेले अपने लिए आंगन में खाना बनाते हुए ऋतु ने देखा था,जब एक बार कुछ सामान उस कमरे से निकाल रही थी, जिसकी खिड़की से उनका घर दिखता था।

उनको वृद्धावस्था में ऐसे अकेले जिंदगी बिताते देख कर तकलीफ हो रही थी।

वो भी तब जब उनके पास आय का नियमित स्त्रोत नहीं था।

ऊपर वाले हिस्से में कालेज के लड़कों को किराए पर रखा था। वो भी कभी रहते थे तो कभी घर खाली रहता था।

शाम को अंकल उसे घर आया जानकर मिलने आ गए। तो ऋतु ने कहा अंकल आपको छोटे बेटे के पास चले जाना चाहिए। उन्होंने भी कहा कि हां बच्चे कब से अपने पास बुला रहे हैं,अब सोचता हूं चला जाऊं।

और कुछ दिनों बाद अंकल छोटे बेटे के पास चले गए।

वक्त की परत दर परत चढती गई… 

वैसे भी वक्त कहां और  कब किसके लिए रुका है?

अब किस्सा निर्मला आंटी की जुबानी सुनाती हूं….

अच्छा किया जो मैंने उस ( दूसरी जाति) की लड़की को बहू नहीं स्वीकार किया,हुंह हमारा भी कोई सम्मान है, मैंने उस नकारा इंसान को भी छोड़ कर अच्छा किया।

अब मेरी ( अपनी जाति की) बहू के  हाथों का बना खाना खाऊंगी… सब कुछ मेरे मन का!

अच्छा किया मैंने सब,

धीरे धीरे निर्मला जी से सब रुपया पैसा अपने नाम कराने के बाद,बेटे बहू का असली रंग सामने आने लगा।

बहू बात बात पर ताना देती जो औरत अपना गृहस्थ जीवन इस तरह बर्बाद कर सकती है वो मुझे क्या सिखाएगी,उनकी पेंशन वाली जाब नहीं थी,हाथ खाली हो चुके थे। शरीर शिथिल हो रहा था,अब घर में उनकी हालत ( भूखे जानवर) जैसी थी, जिसके आगे किसी तरह रोटी डाल दी जाती थी।

जिंदगी भर, सबको दबा कर रखने वाली औरत,कसक कर रह जाती थी। अकेले में आंसू पोंछती..

उन्होंने अपनी बहन को अपना दुखड़ा सुनाया तो उसने उन्हें अपने पास आकर रहने की सलाह दी।एक दिन बगैर बताए वो घर से निकल पड़ी, वैसे भी उनकी परवाह किसे थी?

उनकी बहन उसी शहर में रहती थी जिसको बड़े अभिमान के साथ उन्होंने   कभी छोड़ा था।

उस शहर के स्टेशन पर उतरते ही बड़ी हूक के साथ वो  घर याद आ गया जिसे कभी आपने छोटे बेटे की तथाकथित अपने से छोटी जाति वाली बहू को अपने अहंकार के कारण सिरे से अपने घर का सदस्य समझने से इंकार किया था।

 माता पिता अपने दो बेटों में बंट चुके थे 

 मां  ने अहंकार के साथ जिस छोटी बहू को अपमानित कर घर से निकाला  था…… पिता उसी बहू के साथ  जिंदगी बिता रहे थे।

कैसा मनमुटाव था ये?….. कैसा बिखेरा जिसने अपनों को,??

 अहम भरा दिमाग, और प्यार और अपने पन के सूने पन से दग्ध हृदय… दोनों का क्या मेल?

उधर प्रकाश जी के छोटे बेटे का ट्रांसफर उसी शहर में हुआ, तो बेटे बहू ने कहा पापा जी बरसों से बंद पड़े घर में चलिए, उसे बनवाकर वहीं रहेंगे। प्रकाश जी बहुत खुश हुए। घर जीर्ण शीर्ण हो रहा था। मगर बेटे बहू ने बड़े उत्साह के साथ काम लगवाया था। दिन भर मिस्त्री, मजदूर की खिटपिट के बाद बहू रात को दरवाजे पर ताला लगाने आई है

अरे ये दरवाजे पर कौन स्त्री खड़ी है? छुप कर घर में झांक रही है। कोई चोर है क्या? दिन भर काम के मारे गेट खुला रहता है, पापा जी भी कितना देखते रहते हैं फिर भी

कौन है?… कौन है?

बहू तेज़ आवाज़ के साथ सड़क पर निकल  आई

क्या उठा रही थी तुम अपने हाथ में?, दिखाओ

अरे, घर की नेमप्लेट, जिसमें, प्रकाश और निर्मला जी का नाम एक साथ लिखा था। और पापा जी ने कहा था अब इसे उखाड़ फेंको इसकी जरूरत नहीं है।

वैसे वो हमेशा उन्हें चिढ़ाती हुई प्रतीत होती थी, जीवन भर कितने प्रयास किए,सब कुछ ठीक करने का।

जबकि ऐसा कहने पर वो छुपकर आंसू पोंछते थे,……जानती थी छोटी बहू मगर क्या कर सकती थी?

मां ऽऽ आप

तब तक प्रकाश जी और बेटा भी बाहर आ गए थे।

निर्मला जी और प्रकाश जी की आंखें मिलीं और  वो सर चकराने के कारण चक्कर खाकर गिर गई।

होश आया तो, बिस्तर पर लेटी थी,बहू पैरों में तेल मल रही थी। डाक्टर देख कर जा चुके थे।

बहू ने कहा, मां पहले आप खाना खाइए ( सच वो कब की और कितनी भूखी थी।

पेट और हृदय सब कब से ख़ाली ही था।

मगर पीड़ा और ग्लानि आंखें उठाने नहीं दे रही थीं।

फफक कर रो पड़ी, मुझे जाने दो, अपनी बहन के घर शेष जीवन बिता लूंगी। मैं बस मोह में इस घर को एक बार चुपके से देखने आ गई।… मैंने गलती की.. यहां नहीं आना चाहिए था।

कैसी बात कर रही है मां,ये आपका घर है, मालकिन है आप इस घर की, पापा जी आपके जाने के बाद कभी खुश नहीं रहे,अब आप अपने घर आ गई हैं,अब कहीं नहीं जाना।

जिस बहू को कभी घर में घुसने नहीं दिया था दरवाजे से लौटाया था, ढेरों गालियां सुना कर, वो उनके लिए घर और दिल दोनों के दरवाजे खोल रही थी।

बहू ने उनके क्रोध का जवाब क्षमा से दिया था!

 मां मैं बड़े भैया भाभी को भी समझा कर घर वापस लाउंगी ……

दो नन्हे नन्हे पोते पोतियों को बहू बता रही थी, ये आपकी दादी मां है, इनके बिना घर सूना था, अब पूरा हो जाएगा!

जीवन भर जिस तपस्या में सब सुलगे थे, क्षमा की मानों शीतल फुहार, दग्ध हृदय को शांत कर रही थी!

  जिन बच्चों की नादानी को स्वीकार नहीं किया,आज उनके बड़प्पन के बोझ तले दबी जा रही  थी।

प्रकाश जी भी आंसुओं में डूबे हुए खड़े थे,माफ क्या करना था, वो तो कभी नाराज़ ही नहीं थे।

सभी की आंखों में इस पुनर्मिलन से खुशियों के आंसू झर रहे थे।

ये सबकी आंखों से गिरते  रिमझिम आंसू…. बरसों के दबे अहंकार, क्रोध, पश्चाताप…. के बाद नई कोंपलों के आने की कहानी कह रहे थे!

शायद बरसों से बंद पड़े इस  घर को जिसे सभी अभिशप्त कहते थे, फिर से  खुशियों का उजियारा फैलने वाला था।

बरसों बाद फिर से … आज सावन की झड़ी लगी है….. मगर ये आंखों से गिरने वाले पश्चाताप और खुशी के आंसू थे!

निर्मला जी अपने आंचल में नेमप्लेट छुपाए हुए थी

बहू ने आगे बढ कर उसे ले लिया था….. फिर से नए तरीके से लगवाना था ना!!

पूर्णिमा सोनी

स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित 

#मनमुटाव , कहानी प्रतियोगिता, शीर्षक लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है….!!

मित्रों आपको क्या लगता है, बहुत सी समस्या का समाधान  क्षमा करके आगे बढ़ना है, क्योंकि बदला लेने की भावना का‌ कहीं अंत नहीं होता और क्षमा के पश्चात् कोई दुख , ग्लानि शेष नहीं बचती। अपने बहुमूल्य विचारों को भी अपने लाइक कमेंट और शेयर के माध्यम से बताएं !

3 thoughts on “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है!!… – पूर्णिमा सोनी : Moral Stories in Hindi”

  1. Prem se bhare shabd gusse ki jaljalahat ko shant kar dete hain or gusse me bole gye tikhe vyangya rishto ko khrab kar dete hain.very nice ma’am 💯💯👍👍

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