लाड़ो – मधु शुक्ला

शान्ति देवी ने जब से बेटे का विवाह किया है। उनकी जिंदगी बदल गई है। सुंदर, सुशील, कमाऊ बहू की बढ़ाई करना, जेवर खरीदना और किटी पार्टियों की शोभा बढ़ाना उनकी दिनचर्या बन गई थी। बहू अपनी कमाई से घर चलाती थी। तो शांति देवी को सुअवसर मिल रहा था। पति की कमाई बचाने का। आफिस वाली बहू के आने से शांति देवी  उसकी साड़ियों का सदुपयोग भी कर रहीं थीं। क्योंकि बहू के पास तो वक्त ही नहीं था उन्हें पहनने का। शानदार वैभवशाली जीवन जी रहीं शांति देवी की नींद तब हराम हो गई, जब वे बेटी से मिलने उसके घर गईं। पंद्रह दिन वहाँ रहने के बावजूद वे अपनी बेटी से ठीक से बात नहीं कर पाईं। जो जीवन वह जी रहीं थीं। वही जीवन समधन को जीते देखकर वे आपा खो बैठीं। और समधन को खूब खरी खोटी सुना डालीं। समधन ने उनकी बातों का बुरा नहीं माना। और एक प्रश्न पूछ लिया “क्या आप बहू की कमाई और गहने जेवर नहीं छूतीं हैं। उसे खाना पकाकर खिलातीं हैं। उसका ध्यान बेटी की तरह रखतीं हैं।” 

 समधन की बात का शांति देवी जबाव नहीं दे सकीं तो उनकी समधन बोलीं “बहन जी हमने तो आपसे ही प्रेरणा लेकर अपनी बहू को घर सौंप दिया है। वह कमाती है। घर की व्यवस्था करती है। अपनी मर्जी का खाती पहनती हैं। और क्या चाहिए उसे। शांति देवी चाहतीं थीं “उनकी बेटी अपनी कमाई न खर्च करे। घर का काम न करे। और उसके कपड़े जेवर उसके सिवा कोई न पहने।” लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गई। क्योंकि वही सब तो वे कर रहीं थीं। हाँ उन्हे यह आश्वासन जरूर मिला “कि जिस दिन वे अपना व्यवहार बहू के प्रति बदल लेंगीं। हम लोग भी अपनेआप को बदल लेंगे।” अपनी बेटी की हालत की जिम्मेदार उनकी दोहरी सोच है। शांति देवी समझ चुकीं थीं। इसीलिए उन्होंने निश्चय किया कि वे अब आगे से बहू की सुख सुविधा का ध्यान रखते हुए उसका हर प्रकार से सहयोग करेंगीं। और उसकी वस्तुओं का दुरुपयोग नहीं करेंगीं। 

सास के बदले हुए स्वरूप को देखकर बहू को सुखद आश्चर्य हो रहा है। क्योंकि वह नहीं जानती इसकी वजह क्या है। 

#दोहरे_चेहरे

अप्रकाशित, स्वरचित – मधु शुक्ला, 

सतना, मध्यप्रदेश .

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