बीमार बाऊजी को देखने वो बस आने ही वाला था। सारे घरवाले उसका बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। करते भी क्यूँ नहीं आखिर उन्नीस-बीस साल बाद जो अपने ननिहाल आ रहा था। याद है मुझे छोटा सा वो जिज्जी के साथ गर्मियों की छुट्टियों में यहाँ आया करता था। नाम उसका कमल है पर मैं उसे लड्डू कह कर चिढ़ाया करती। लड्डू इसलिए एक तो लड्डू उसे खूब भाते खासतौर से मेरे हाथ के बने बेसन के लड्डू और दूसरे तब वो खुद लड्डू जैसा गोल-मटोल दिखा करता था। खूब चिढ़ता। “लड्डू की मामी” कहकर मुझे चिढ़ाता। ……धीरे-धीरे उसका यहाँ आना कम और फिर बन्द हो गया। बड़ी क्लास, बड़ी पढ़ाई, विदेश में बड़ी नौकरी करने वाला बड़ा हो चुका कमल यहाँ कभी आया ही नहीं।
फोटो में ही बड़ा होते देखा उसे। बड़ी बेटी अपने फ़ोन में कभी-कभार उसके फोटो दिखाया करती। विदेश वाला बड़ा बाबू अपने घर हफ्ते भर के लिए आया हुआ था। आज यहाँ आने का प्रोग्राम है उसका। आँगन में रसोई जमाये बैठी मैं, बाहर शोर सुनकर द्वार की ओर चल दी। देखा हमारे द्वारे एक गाड़ी खड़ी थी। इतनी बड़ी गाड़ी में से वही फोटो वाला लड्डू……..लड्डू नहीं कमल निकला। कमल ही बोलूंगी उसे। बड़ा आदमी जो बन गया है अब ये सब उसे अच्छा नहीं लगेगा। दोनों बेटियों को भी मैनें साफ़-साफ़ बोल दिया। “भैया के सामने ज्यादा चटर-पटर मत करना कहीं बुरा मान गया तो।”
आते ही वो बाऊजी से मिलने चला गया। बेटियाँ वहीं चाय-पानी ले गयीं। कमरे से निकलने वाले ठहाकों का शोर मेरे कानों तक पहुँच रहा था। ये दोनों लड़कियाँ मेरा कहा सुनतीं कब हैं। लग गयीं होंगी हंसी-ठट्ठा करने। पता नहीं क्या सोचेगा?
खाना खाने से पहले वो हाथ धोने नल पर आया। पीछे से मैनें उसे नाम लेकर दो बार पुकारा।….सुना ही नहीं। बेटी ने उसे इशारा किया। पीछे मुड़ कर मुझे देखा। “हम आवाज़ दे रहे तुमने सुना ही नहीं।” मैनें जरा झेंपते हुए कहा।
” कैसे सुनता? आपने मुझे मेरे नाम से जो नहीं पुकारा।” आँखे मटकाते हुए बोला।
“विदेस में कोई नया नाम रख लिये क्या?” थोड़ी सी खिंचाई मैनें भी कर दी।
“नहीं लड्डू की मामी। नाम तो आपने रखा था ना मेरा, लड्डू।”
“अरे नहीं बच्चा, वो तो हम तुम्हें छुटपन में चिढ़ाया करते थे। अब तो तुम बड़े हो गए हो।”
“अपने बड़ों से भी कोई बड़ा होता है क्या? अभी भी बच्चा ही हूँ आपका…..बड़ा बच्चा।” कहते हुए गोबर लिपे आँगन में जलते चूल्हे के पास मेरे बगल में धम्म से आकर बैठ गया।
देखो तो भला मैं भी ना जाने क्या-क्या सोच रही थी इसके बारे में ये तो निकला एकदम मीठा …..और प्यार, अपनेपन में बँधे लड्डू जैसा। ……..होगा औरों के लिये वो सर, साहब। मैं तो अब लड्डू को अपने हाथ से लड्डू खिला रही थी।
मीनाक्षी चौहान