आज सुगंधा बहुत खुश थी, बहुत खुश। लेकिन मन ही मन कोई द्वंद चल रहा था शायद सही और गलत का। वह उस में उलझ कर रह गई थी।
आज उसकी बेटी नेहा को बहुत अच्छे विद्यालय में नौकरी मिल गई थी। नेहा का फोन आने के बाद से, सुगंधा उसी के इंतजार में बैठी थी और बैठे-बैठे अब वह अतीत के पन्ने पलटने लगी ,उसे खुद भी पता नहीं चला।
वर्षों पहले जो मैंने किया, वो सही था या गलत? क्या ईश्वर मुझे क्षमा करेंगे, क्या मैं आज तक खुद को क्षमा कर पाई हूं? मैंने जो कुछ किया नेहा के लिए किया, फिर भी अपराध बोध क्यों?
सुगंधा का पति महेश किसी कारखाने में सुपरवाइजर था। दिनभर बड़ी मेहनत से काम करता और शाम होते ही उसे ना जाने क्या हो जाता और वह दोस्तों के साथ खूब नशा करता और शराब पीता। अब तो उसकी सेहत भी खराब हो रही थी और आर्थिक तंगी भी होने लगी थी।
सुगंधा जब भी उसे समझाने की कोशिश करती, वह सुगंधा को बहुत मारता पीटता। कभी बेल्ट से उसकी चमड़ी उतार देता ।कभी बर्तन फेक कर मारता, कभी अपनी लातो से उसे लहूलुहान कर देता और बालों से खींच कर पटक देता।
कभी सुगंधा का सिर फूट जाता तो कभी नाक और होंठ खूना खून हो जाते।ये रोज का तमाशा देख देख कर अब तो पड़ोसियों ने भी बीच-बचाव करना छोड़ दिया था।
उस समय नेहा दो ढाई वर्ष की थी। पैसों की तंगी के चलते 1 दिन सुगंधा ने महेश से पूछा-“अगर आप कहो तो, मैं कोई नौकरी कर लूं?”
महेश ने उसे घूर कर देखा और उठ कर खड़ा हो गया। उसने अचानक पास बैठी बच्ची नेहा को उठा लिया और चिल्लाया-“अगर नौकरी की बात करेगी तो इसे मार कर फेंक दूंगा। औरत है औरतों की तरह घर के अंदर रहे। सुगंधा ने बच्ची को लेना चाहा, तो महेश ने उसे जोरदार लात मारकर गिरा दिया।
उसके बाद महेश ने उस अबोध बच्ची को सचमुच दूसरी मंजिल से नीचे फेंक दिया। सुगंधा की तो जान ही निकल गई और उसका दिल मानो हलक में अटक गया। वह पागलों की तरह चिल्ला कर नीचे की तरफ भागी। इतनी जोर की चीख सुनकर सारे पड़ोसी भी आ गए। सबने देखा कि बच्ची की फ्रॉक पेड़ की डाल में अटक गई थी और वह इस कारण नीचे गिरने से बच गई थी लेकिन डर के मारे जोर जोर से रो रही थी।
लोगों ने कोशिश करके नेहा को पेड़ से सुरक्षित उतार लिया और महेश को समझाने की बहुत कोशिश की।
कुछ दिन बाद महेश ने घर की छत पर अपने दोस्तों के साथ शराब पीने का प्रोग्राम बनाया और अपने चार दोस्तों को बुलाया। महेश ,सुगंधा से ्् कभी नमकीन मंगवाता, कभी पकोड़ो की फरमाइश करता, कभी कहता पानी लाओ और कभी बर्फ मंगवाता। सुगंधा बेमन से सब कुछ लाकर दे रही थी। महेश को अपनी बेटी नेहा के साथ बुरे बर्ताव का कोई अफसोस नहीं था।
रात के 12:30 बज चुके थे। महेश के दोस्त अपने अपने घर जा चुके थे। सारे पड़ोसी भी सो चुके थे। महेश छत से उतर कर अपने कमरे की तरफ आ रहा था। सुगंधा दूर से देख रही थी कि नशे के कारण उससे चला भी नहीं जा रहा है। वह सीढ़ी से उतर कम रहा था और लड़खड़ा ज्यादा रहा था। वैसे तो सुगंधा उसे सहारा देकर अंदर तक ले आती थी लेकिन आज वह चुपचाप दूर से देखती रही।
तभी अचानक उसने देखा कि महेश के पैर एक दूसरे में उलझ गए और वह सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ, नीचे जा गिरा। तब सुगंधा का मन नफरत से भर उठा और वह उसे उठाने की बजाए अंदर कमरे में जाकर बैठ गई और रोने लगी। नेहा उसके पास ही सोई हुई थी। रोते-रोते ना जाने कब उसकी आंख लग गई और सुबह जब नीचे से आवाज आई-“भाभी जी, भाभी जी, इधर आइए, देखिए महेश गिर पड़ा है।”तब उसकी आंख खुली।
सुगंधा जल्दी से बाहर आई और डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने बताया ” ये रात को ही अपना दम तोड़ चुके हैं।”
बहुत सुगंधा बहुत रोई और अपने आप को दोषी मानने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने सही किया या गलत।
उसके बाद सुगंधा ने छोटी-मोटी नौकरी करके नेहा को पढ़ा लिखा पर काबिल बनाया। सुगंधा हमेशा सोचती रहती थी कि मैंने कभी महेश का बुरा नहीं चाहा। तो उससे तलाक भी मांगा था। तब महेश ने उसे धमकी दी थी कि”अगर तुमने मुझसे अलग होने के बारे में सोचा भी तो मैं नेहा को कहीं पर बेच आऊंगा और तुम जिंदगी भर उसे ढूंढ नहीं पाओगी।”तब सुगंधा अपनी बच्ची के कारण चुप हो गई थी।
सुगंधा की रूह कांप गई थी कि एक पिता ऐसा भी हो सकता है। इन सब बातों में सुगंधा खोई हुई थी कि तभी अचानक दरवाजे पर घंटी बजी। सुगंधा ने दरवाजा खोला तो देखा कि सामने मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए नेहा खड़ी है। नेहा ने तुरंत सुगंधा का मुंह मीठा करवाया और अपनी मां के गले लग गई। सुगंधा उसे खुश देख कर सब कुछ भूल गई और खुशी के आंसुओं से भरी आंखों से नेहा को देखा और सोचने लगी कि शायद मैंने गलत नहीं, सही किया था।
स्वरचित काल्पनिक
गीता वाधवानी दिल्ली