” हमारे बीच अब कुछ नहीं बचा… सड़ गया है हमारा रिश्ता… अंदर ही अंदर खोखला… सड़ा हुआ… इस रिश्ते को और कितना निभाऊं …बोलो दीदी… कला और मैं अब कभी नॉर्मल हस्बैंड वाइफ नहीं हो सकते…!”
” पर अनूप… क्या इस तरह बीच राह में एक लड़की का हाथ छोड़ दोगे मेरे भाई… क्या यह सही होगा…!”
अनूप हंस पड़ा…” मैं छोड़ दूंगा… मैंने कब छोड़ा… दीदी छोड़ा तो कला ने… उसने पकड़ा ही इसलिए था कि छोड़ सके…!”
सिर्फ साल भर ही तो हुए थे… अनूप और कला को साथ बिताते… डंके की चोट पर अनूप और कला ने अपने रिश्ते को नाम दिया था…
मोहल्ले की रौनक कला… कितने ही लड़के उसके पीछे पागल थे… पर अनूप उन सबसे अलग था… अनूप ने कभी कला को पलट कर देखा भी नहीं था… अपनी ही धुन में रहने वाला… अपना घर… अपनी मां… दीदी… पढ़ाई… बस यही थे उसकी जिंदगी… इस जिंदगी में हवा के झोंके की तरह कला ने प्रवेश किया…
घर में कमाई का बस एक ही जरिया था… पापा के जाने के बाद मां को मिलता आधा पेंशन…पापा की सारी जमा पूंजी दीदी की शादी के लिए संभाल कर रखी हुई थी… उसमें हाथ लगाना गलत था… इसलिए अनूप ने अपनी पढ़ाई और खर्च उठाने के लिए ट्यूशन पढ़ना शुरू किया…
दो घंटे शाम को यहां वहां से बच्चे इकट्ठे कर ट्यूशन पढ़ाता था… इसी क्रम में कला के सामने वाले घर में अनुज चार पांच बच्चों को साथ में पढ़ाता था… और पूरे समय कला… पागलों की तरह उसे घूरती रहती…पता नहीं क्या चलता था उसके दिमाग में…
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आखिर कितना नजर अंदाज करे… पर अनूप अपने लक्ष्य के प्रति सजग था… पूरे 3 महीने यही क्रम चला… आखिर एक दिन कला पास ही सोफे पर आकर बैठ गई…
कुछ अधिक खूबसूरत तो नहीं थी वह… पर उसका अंदाज ए बयां अलग था सबसे… बोलने का सलीका… चलने का ढंग… या फिर पहनने की नफासत… सब अतरंगी थे…
और जब ऐसी अतरंगी लड़की… एक साधारण से सोच वाले मामूली लड़के को… सीधे आकर प्रपोज कर दे… तो लड़का और कुछ सोचने समझने लायक नहीं रह जाता…
पर अनूप ने कहा कि उसे पहले दीदी का ब्याह करना है… कला इसके लिए भी तैयार थी… साल भर के अंदर ही दीदी की शादी अच्छे से निपटा… अनूप अब तैयार था… कला के लिए…
“कला अभी कुछ दिन और रुक जाते हैं नौकरी लग जाए कोई ढंग की…!”
“कोई बात नहीं… मैं एडजस्ट कर लूंगी…तुम्हारा प्यार जो होगा मेरे साथ…!”
कला की जिद के आगे सबने अपने हथियार डाल दिए… कुछ ही महीने बाद कला और अनूप की शादी भी हो गई… लेकिन यह शादी अनूप के समझ में कभी नहीं आई…
शादी के दूसरे ही दिन से कला ने ताने मारने शुरू कर दिए… “तुम्हारी चार पैसे की आमदनी में मेरा काम नहीं चलेगा… मैं ही कहीं कुछ नौकरी करूंगी…!”
पंद्रह दिन गुजरते गुजरते कला ने होटल में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कर ली… अब दिन हो या रात कला किसी की मोहताज नहीं थी…हर दिन नए बनाव श्रृंगार के साथ नौकरी करना… किसी की कोई परवाह न करना… बात-बात पर अनूप को ताने देना… उसकी मां को तो टोकना भी नहीं…ऐसे जैसे वह मुफ्त की कामवाली हो घर में…हर दिन की बात हो गई…
धीरे-धीरे तो हालात इतने खराब हो गए कि कला के लिए घर बस कपड़े बदलने की जगह भर रह गई… वही कला जिसकी खुशबू से ही अनूप का मन खिल उठता था… अब उस खुशबू की आहट भर से उसका दम घुटने लगता था…
वह रोज दूसरों के साथ घर आती थी… कोई ना कोई दोस्त… साथ काम करने वाला… उसे रोज घर तक लिफ्ट देता… पिछले 5 महीनों से तो कला और अनूप के बीच में बात तक नहीं हुई थी…
एक घर में रहते हुए दोनों अजनबियों की तरह थे… अनूप अपनी परीक्षा की तैयारी में जी जान से लगा था… और कला को एक सीधा-सादा घर और परिवार मिल गया था… अपनी मन की करने के लिए…
यहां उसे रोकने या जबरदस्ती करने वाला कोई नहीं था… जब तक पिता के पास थी… उन्होंने उसे कभी इस तरह काम करने की इजाजत नहीं दी… इसलिए शायद उसने शरीफ लड़के को… जिसकी औकात ही नहीं थी उसके सामने गुर्राने की… उसे चुना था अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए…
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आज रेखा आई थी… डेढ़ साल बाद मायके… फोन पर तो कुछ खास बातें नहीं हुई थी… पर यहां के हालात देख उसका मन चिंतित हो उठा… इसलिए जब उसने अनूप से कहा कि “अपने रिश्ते को संभाल ले मेरे भाई…!” तो अनूप फट पड़ा…” दीदी अब कुछ नहीं हो सकता… मेरी जिंदगी बर्बाद हो गई है…!”
उसी शाम कला ड्रिंक करके घर आई… यहां वहां पर्स… कपड़े… सैंडल… फेंकती चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर लुढ़क गई… रेखा अब तक जाग रही थी… उसके लिए यह सब बिल्कुल नया था… पर इतना नहीं कि अपने घर को बर्बाद होते देखती रहे…
दूसरे दिन रेखा ने कला से बात करने की कोशिश की तो सीधा जवाब था…” आप लोगों की सोच ही बिल्कुल थर्ड क्लास है… मुझे कुछ ना ही कहें तो ठीक है…!”
रेखा पूरे हफ्ते भर यह देखती रही… फिर उसने फैसला ले ही लिया… अपने भाई को आजादी दिलाने का… इस फफूंद से रिश्ते से…
रेखा ने अपने पति के साथ मिलकर अनूप को तलाक के लिए तैयार किया…
कला को जब तलाक के पेपर मिले तो उसे जैसे एक झटका लगा… अनूप के अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई…
कला ने तुरंत अपनी पुरानी चाल चली… इतने आराम से अनूप के पास पहुंच गई… आंखों में आंसू भरकर… जैसे कुछ हुआ ही नहीं… “अनूप क्या मैं इतनी बुरी हूं… तुम मुझे तलाक दोगे… यह सब दीदी का किया कराया है… मैं तुम्हें तलाक नहीं दूंगी… मुझे तुमसे कोई अलग नहीं कर सकता… हम फिर से प्यार से रहेंगे…!”
” पर कला हम… हम तो कभी हुए ही नहीं ना… तुम तुम हो… और मैं मैं… तुम और मैं कभी हम नहीं हो सकते… यह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी… हमारा नजरिया ही अलग है… कुछ रिश्ते एक गलती होते हैं जिनमें वापस लौटना कभी मुमकिन नहीं होता…!”
कला ने अपने सारे हथियार आज़मा लिए… फिर समझ गई कि अब उसकी घर वापसी नामुमकिन है…
दोनों का तलाक हो गया…
आज 5 साल हो गए हैं इस रिश्ते को खत्म हुए… अनूप ने नौकरी भी कर ली… दूसरी शादी भी की… दीदी की पसंद से… आज दो बच्चों का पिता भी है… मां भी खुश है… इज्जत देने वाली… घर संभालने वाली… बहू को पाकर…
गाहे-बगाहे कला से नजरें टकरा जाती हैं… तो वह आज भी उसी शोख अंदाज में नौकरी कर रही है… अकेली रहती है… कई लोगों का आना-जाना… वह भी जिंदगी में खुश है… अपनी शर्तों पर जी कर… पर क्या होता है ऐसी खुशी का परिणाम… क्या इसे खुशी कहते हैं…?
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा
घर वापसी