सुलक्षणा द्वारा “कुमार” के लिए ” अरविंद” कहना, अनुराधा और वीरेश्वर मिश्रा को हैरान कर गया, उन्हें लगा का शायद पुत्र मोह में सुलक्षणा विक्षिप्त सी हो गई है, शायद इसलिए उसे कुमार में भी अरविंद ही दिख रहा था।
तभी कुमार भरे गले से सुलक्षणा की और लपका, बोला माँ तुम और पिताजी यहां पर ?
कहां कहां ढूंढा मैंने आपको!! अपने घर जाकर पता चला कि आप लोग वह नोयडा का घर किराए पर देकर कहीं लखनऊ में “ओल्ड होम्स” में शिफ्ट हो गए है। मैं तो आत्मग्लानि भर गया, एक आई ए एस अधिकारी के माता-पिता ओल्ड-होम्स में अपना बुढापा गुज़ार रहे हैं, इससे शर्मनाक किसी बेटे के लिए और क्या हो सकता है।
मै रोज़ रात को सोते समय आप दोनों को याद करके, सोचता था कि भगवान् मुझे एक मौका तो दो आपसे मिलने का ताकि मै आप दोनों से अपने कर्मो कि माफ़ी मांग लूं, बहुत दुःख दिया है मैंने आपको, कुमार अपनी माँ सुलक्षणा से लिपटकर भावनाओं में बहा जा रहा था, वह तो बिल्कुल बच्चों कि तरह रो रहा था।
उसके पिता भास्कर राव त्रिवेदी उसे आगे बढ़कर छाती से चिपका कर बोले, बेटा “सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भुला नहीं कहते, जो हो गया उसे वापस नहीं लाया जा सकता”, परन्तु जब तुम मिल गए हो, तो सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा।
अनुराधा और वीरेश्वर मिश्रा किनारे खड़े होकर उन तीनों का प्यार भरा मेल मिलाप देख रहे थे, उन दोनों की आँखों में भी खुशी के आँसू थे।
कितना विचित्र संयोग था, कहां तो कुमार अनुराधा से रिश्ते की बात करने आया था, और उसके माता पिता मिल गए। और जो सुलक्षणा कुमार के नाम से चिढ़ते हुए उसके खानदान पर शंका कर रही थी, कुमार तो उसका अपना बेटा अरविंद निकला।
★
यह भावुक समय और भी लंबा चलता यदि, इस बीच अनुराधा कुमार की तऱफ देखकर न टोकती “आप यहां मेरे रिश्ते की बात करने के लिए आए थे”, यदि आपको मै पसंद हूं तो जल्दी बता दो, इन भारी कपड़ों को पहनकर मुझे बिल्कुल “कम्फर्टेबल” नहीं लग रहा।
उसकी बात सुनकर वीरेश्वर मिश्रा, भास्कर राव त्रिवेदी, सुलक्षणा और स्वयं कुमार यानी अरविंद भी हंस दिये, वह बोला कमाल कि लड़की हो तुम, मुझे भी पहले, मेरे माता पिता से पूछने तो दो, कि क्या उन्हें अनुराधा “बहू” के रूप में पसंद है।
वीरेश्वर मिश्रा कहा, ठीक है, हमें भी कोई जल्दी नहीं है, आप लोग अब आराम से बैठ कर यहां वार्तालाप करें, फिर भास्कर राव त्रिवेदी और सुलक्षणा कि ओर देखकर कहा, भाई साहेब और भाभी जी अब अरविंद वर्षों बाद आपको मिला है, इसे आज रात यहीं रुकवा लेना, कुमार ही आपका अरविंद निकला है, इससे अच्छी बात क्या होगी, और हमारी अनुराधा को तो शादी के बाद भी आप दोनों का आशीर्वाद मिलता रहेगा।
सुलक्षणा ने कहा कि जब अनुराधा इंटरव्यू के लिए हमारे यहां रहने के लिए दिल्ली में आई थी, मुझे तो तभी से पसंद थी अपनी बहु के रूप में, उस समय अगर अरविंद मेरे साथ होता तो मै, तभी उसके लिए आपसे अनुराधा को मांग लेती, इसलिए जब जब अनुराधा हमारे सामने कुमार की चर्चा करती थी, मुझे सच में बहुत दुख लगता था, पर हमें क्या पता था कि वह कुमार ही हमारा अरविंद है, बेटा अनुराधा मुझे माफ़ कर दो, मैंने इसी स्वार्थ कि वजह से जाने अनजाने में तुम्हारे हृदय को बहुत दुख दिया है।
अनुराधा प्यार से सुलक्षणा से चिपक कर बोली, वह सब तो ठीक है, पर पता है, इन सबसे बढ़कर मेरे लिए सबसे अच्छी बात क्या है?
भास्कर राव त्रिवेदी ने हंसकर उत्तर दिया, यही कि तुम्हारा कुमार ही हमारा अरविंद है?
अनुराधा ने कहा – नहीं, सबसे अच्छी बात तो यह होगी कि अब तो मुझे आजीवन सुलक्षणा आंटी के हाथों से बना यह स्वादिष्ट सूजी का हलुआ खाने को मिलेगा।
देखते ही देखते पूरा वातावरण सुखमय हो गया।
★
“अनुराधा के लिए लड़का देखने आने वाला है” तो उससे बात करने में जो औपचारिकता होनी चाहिए, वह पता नहीं कब की खत्म हो चुकी थी, अनुराधा और वीरेश्वर मिश्रा अपने विशिष्ट कपड़े बदलकर घर के कपड़ों में आ चुके थे, अरविंद भी, जो एकदम सूट बूट में आया था, अपने पिता से उनका कुर्ता पैजामा लेकर पहन चुका था।
हालांकि वह एक बार आकर चाय पी चुका था, फिर भी अनुराधा की तरफ देखकर बोला, यार वो फॉर्मेलिटी वाली चाय पी कर कुछ मजा नहीं आया था, प्लीज़ मेरे लिए एक कप चाय बनवा दो, मेरे लिए भी एक, वीरेश्वर मिश्रा ने कहा, तो अनुराधा ने भास्कर राव और सुलक्षणा की तरफ़ देखकर कहा, मुझे भी चाय पीने का मूड है, मै आप के लिए भी चाय रख देती हूं, कहकर वह रसोई में जाकर चाय बनाने लगी, तभी अरविंद टेबल पर रखी मिठाई देखकर बोला अरे वाह ” काजू कतली” !!
मेरी फेवरेट मिठाई !! कहकर उसने दो पीस उठा लिए। भास्कर राव त्रिवेदी और सुलक्षणा यह देख कर मन ही मन सोच रहे थे, कि कलैक्टर बन गया है, फिर भी अभी तक इसका भी बचपना नहीं गया है।
तभी अनुराधा ट्रे में चाय और नमकीन ले आई, चाय पीने के बाद भास्कर राव ने अरविंद से पूछा बेटा ये कुमार नाम की क्या कहानी है? तुम नोएडा से ट्रांसफर हो जाने पर कहां चले गए ? और कलेक्टर कब बन गए?
अरविंद ने कहा कि पिताजी आपके उस दिन मेरे यहां से जाने के बाद, जब प्रेस में यह खबर छपी थी कि कलेक्टर “अरविंद कुमार त्रिवेदी” को अपने पिता ” भास्कर राव त्रिवेदी” के जैविक पिता होने पर शक? डीएनए टेस्ट की मांग की, मै विक्षिप्त सा हो गया था, उस पत्रकार ने तो न जाने और भी क्या क्या मिर्च मसाला लगाकर न्यूज पेपर में छाप दिया था, मेरे ऑफिस के सहयोगी तक मुझे अजीब निगाह से देखने लगे थे, मेरे मन में कुंठा बढ़ती जा रही थी, मै शराब के नशे में ख़ुद को बर्बाद करता जा रहा था।
इसी कारण मेरा ऑफिस में व्यवहार भी बहुत चिड़चिड़ा सा हो गया था, मै अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करने लगा था, एक दो कर्मचरियों पर तो मैंने हाथ भी उठा दिया था, इस कारण सरकार ने मेरे ऊपर “दंडात्मक कार्यवाही” करते हुए, मुझे गोरखपुर संभाग के “कुशीनगर” जिले में तबादला करा दिया था।
वहां जाकर भी मेरे व्यवहार में कोई फ़र्क नहीं पड़ा था, बल्कि मैंने आपसे नफ़रत के कारण एक एफिडेविड बनवाकर “नाम परिवर्तन सूचना” देकर सारे समाचार पत्रों में छपवा दिया कि मै, अरविंद कुमार त्रिवेदी यह घोषणा कर रहा हूं कि आज से समस्त सरकारी दस्तावेजों में “ए कुमार” नाम से जाना जाए, मैंने अरविंद को शार्ट करके सिर्फ ए रखा और सरनेम त्रिवेदी हटा दिया, इस तरह अब मेरा नाम ‘ए कुमार “हो गया था।
उसी साल की भीषण बरसात में कुशीनगर बाढ़ से तबाह होने लगा था, वहां के रहवासियों का जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया था, कई लोग भूखे मर रहे थे, हजारों लोग बेघर हो गए थे, इसलिए मैंने मानवीय आधार पर खुद ही कई डूबते लोगों को बचाया था, अनेक बेघरों को आश्रय दिया था, कईयों की तो अपने निजी खर्चे से उनके खाने पीने की व्यवस्था भी की थी, इसके अलवा सरकारी संसाधनों और बाढ़ नियंत्रक दस्ते के साथ अच्छे तालमेल बैठाकर, हमने जिले में आईं आपदा को बहुत हद तक सम्हाल लिया था।
★
कई समाचार पत्रों में मेरे कार्य की बहुत प्रशंसा भी हुई, इसी वजह से मुझे उस समय के गोरखपुर कमिश्नर “बी के श्रीवास्तव ” ने सम्मानित करने के लिए गोरखपुर में बुलाया था। चूंकि मै पनिशमेंट ट्रांसफर में उनके कार्यक्षेत्र में आया था, इसलिए मेरे हर एक कार्य और व्यवहार पर उनकी पैनी नज़र थी। उन्हें एक बुरे आचरण वाले व्यक्ति से शायद बाढ़ पीडितों की मदद करने जैसे अच्छे कार्य की उम्मीद नहीं थी, इसलिए उन्होंने मुझे शाम को अकेले बात करने को घर बुलाया।
शाम को जब मै उनके घर पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा कि देखो वैसे तो मै तुम्हारा बहुत सीनियर ऑफिसर हूं, परन्तु आज मै तुम्हें, अपने पद की हैसियत से नहीं, पिता तुल्य होने की हैसियत से पूछता हूं, कि ऐसा क्या हो गया, जो तुम इतने अच्छे त्रिवेदी खानदान से होने के बाद भी अपना सरनेम छुपाना चाहते हो, क्या तुम्हें अपने परिवार पर गर्व नहीं है?
मुझे खुद देखो, तुम्हें मेरा पूरा नाम बी के श्रीवास्तव मतलब ब्रिज किशोर श्रीवास्तव भले ही पता न चले, पर श्रीवास्तव खानदान से हूँ यह तो पता चल जाता है न। मै यह नहीं कहता कि कोई जाती छोटी या बड़ी होती है, परंतु भगवान ने हमें किसी अच्छे उद्देश्य से ही किसी वंश या कुल में भेजा है, भगवान स्वयं भी तो त्रेता युग में क्षत्रिय परिवार में जन्म लेकर राम, और द्वापर युग में यादव कुल श्याम बनकर अवतरित हुए, पर इससे क्या हमारी उनके प्रति श्रद्धा कम हुई, क्या उन्होंने अपने कुल का नाम छुपाने की कोशिश की?
इसलिए हमें अपने कुल और परिवार पर गर्व करना चाहिए, न कि उस नाम को खत्म कर मिट्टी में मिला देना, जैसा तुम कर रहे हो।
उनकी बात सुनकर मज़बूरी में उन्हें धीरेन्द्र पाटिल वाली पूरी बात बताई, यह बात सुनकर तो श्रीवास्तव सर मुझपर तो और भी ज्यादा भड़क गए, बोले तुम्हारी ऐसी बात पर तुम्हें झापड़ नहीं मारा क्या तुम्हारे माता पिता ने? मै होता तो एक झापड़ रसीद देता उसी वक़्त तुम्हारे गाल पर, शर्म नहीं आयी तुम्हें उनसे डीएनए की बात करते हुए?
मैंने शर्मिंदगी से सिर झुकाते हुए कहा, चूँकि मेरे माता पिता ने मुझे मेरे सवाल के जवाब में झापड़ मार कर मुझे चुप कराने की कोशिश की, इसलिए मुझे लगा कि वह कोई बात छुपा रहें हैं, और मैंने उनसे डीएनए टेस्ट कि बात कर बैठा था!
श्रीवास्तव सर ने कहा, बेटा मैंने मनोविज्ञान से ही पढ़ाई की है, मै जानता हूं कि कोई भी सच्चा इंसान ऐसे सवालों पर इसी प्रकार की प्रतिक्रिया देगा, शक तो तब होता कि तुम्हारी ऐसी बात पर तुम्हारे माता पिता तुम्हें प्यार से पुचकार कर समझाने के लिए कोशिश करते। और यदि तुम उनके सगे बेटे नहीं भी होते तो भी तुम्हे उनका अहसानमंद होना चाहिए था,कि उन्होंने ही तुम्हारा पालन पोषण करके, तुम्हें इस काबिल बनाया था, कि तुम डिप्टी कलेक्टर बन सके। लानत है तुम पर, जिस माता पिता ने तुम्हें 20 साल पढ़ा लिखा कर लायक बनाया, उन्हें भूल कर तुम धीरेन्द्र पाटिल जैसे धूर्त आदमी की बात में आकर इतनी बड़ी भूल कर बैठे।
उनकी बात सुनने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कितनी गलत सोच थी मेरी, मेरी आँख में आँसू आ गए थे, मैंने श्रीवास्तव सर से क्षमा मांगी तो वह बोले कि, जब तुम्हारे माता पिता तुम्हें क्षमा कर देंगे तो समझ लेना कि मैंने भी क्षमा कर दिया है।
इसलिए मै उसी रात की ट्रेन पकड़कर नोएडा आ गया, आप दोनों से माफ़ी मांगने, जब घर आया तो पता चला कि आपने वह घर किसी को किराए पर दे दिया है, उन लोगों ने मुझे आपका जो पता दिया कि आप लोग लखनऊ में किसी “ओल्ड होम्स’ में रहतें हैं, मुझमें ऐसी हिम्मत नहीं बची थी कि मै उन्हें अपना परिचय देकर कहता कि मै अरविंद हूं, भास्कर राव त्रिवेदी जी का बेटा।
वहां से वापस आकर जब मैंने श्रीवास्तव सर को सारी बात बताई, तो वह भी मेरे साथ साथ आप लोगों के बारे में पता लगाने के लिए प्रयास करने लगे। मै अपने लेवल पर आपके सभी संभावित जगहों, रिश्तेदारों से आपकी मालूमात करता रहा, पर मुझे आप लोगों का कुछ पता नहीं चला।
श्रीवास्तव सर मेरे लिए “गॉडफादर” बन चुके थे, उनके मार्गदर्शन में मैंने एक एग्जाम दिया और उसे क्लियर करके कलेक्टर बन कर गोरखपुर में ही श्रीवास्तव सर के अधीन ज्वाइन कर लिया।
बाद में जब श्रीवास्तव सर का तबादला मेरठ संभाग में हुआ, तो कुछ समय बाद उन्होंने मुझे भी यहां पर बुलवा कर, अपने अधीन गाजियाबाद में ज्वाइन करा दिया। चूंकि मै यहां पर मैंने “ए कुमार” नाम से ही ज्वॉइन किया था इसलिए अन्य कोई भी मेरे असली नाम और अतीत से परिचित नहीं था।
अरविंद कि सारी बातें उसके माता पिता के साथ साथ, वीरेश्वर मिश्रा और अनुराधा भी सुन रहे थे, उसे अब समझ में आ गया था, कि कुमार उर्फ अरविंद में मन में कितना दर्द था।
इसके बाद वीरेश्वर मिश्रा ने अरविंद को उसके पिता भास्कर राव त्रिवेदी और माँ सुलक्षणा के उनके साथ लखनऊ आने की सारी बात विस्तार से बताई।
कुछ देर बाद सुलक्षणा और अनुराधा ने सबके लिए खाना लगा दिया, खाना खाने के बाद एक बार फिर से वह सभी लोग चर्चा में जुट गए।
रात के 12.30 हो चुके थे,पर कोई भी बातें ख़तम करने में मूड में नहीं था, मानो सारी रात, बातें करके ही काटनी हो, आखिर में भास्कर राव त्रिवेदी ने ही कहा, कि चलो अब बाकी बातें सुबह करेंगे, और वह सब सोने को चले गए।
दूसरे दिन अरविंद सुबह जल्दी उठ गया, और माँ से बोला, माँ मुझे जल्दी मथुरा के लिए निकालना पड़ेगा, वहां घर जाकर नहाकर ऑफिस जाना है। तुम और पिताजी भी मेरे साथ चलो तो, मुझे बहुत अच्छा लगेगा।
तब तक अनुराधा और भास्कर राव भी उठ चुके थे, वह बोले बेटा तू नहीं था, तो हमने इस घर को ही अपना घर मान लिया था। अब एक बार तुम लोगों का रिश्ता तय कर दें, फ़िर देखते हैं कहां रहना है, बेटे के साथ या बहू के साथ।
चाय और नाश्ता करके अरविंद कार से मथुरा की ओर निकल पड़ा, वह आया तो ए कुमार बनकर था, पर जाते समय अरविंद कुमार त्रिवेदी बन कर जा रहा था, उगते हुए सूर्य की लालिमा उसके जीवन में भी नई रोशनी भर रही थी, आते समय अरविंद के मन में जो बरसों से दबी एक टीस सी थी, वह दूर हो चुकी थी, अरविंद को बहुत हल्का महसूस हो रहा था .. और वह अपनी अतीत कि यादों में गोते लगाते हुए तेज़ गति से मथुरा की ओर जा रहा था।
अगला भाग
कुटील चाल (भाग-15) – अविनाश स आठल्ये : Moral stories in hindi
स्वलिखित
सर्वाधिकार सुरक्षित,
अविनाश स आठल्ये