कुशल तीरंदाज – दर्शना जैन

रक्षाबंधन के बाद चंदर स्कूल गया। दोस्तों की कलाई पर सुंदर राखियाँ बंधी देखी, सभी एक एक करके बताने लगे कि उन्होने अपनी बहन को तोहफे में क्या दिया, कैसे रक्षाबंधन मनाया, बहन के साथ कैसे मस्ती की। दोस्तों की बातों से चंदर का बावरा मन कोई बहन न होने से बेचैन हो उठा।
बावले चंदर ने घर आकर ज्योति से पूछा,”

मम्मी मेरी बहन कहाँ है, वह कब आयेगी?” बेटी की चाह ज्योति को भी थी लेकिन यह कोई अपने हाथ की बात तो है नहीं। कहते हैं कि दिल से कुछ चाहो तो वह चाह भगवान तक पहुँचकर पूरी होती ही है, वैसे भी कहा जाता है कि भगवान के यहाँ देर है, अंधेर नहीं। लंबे इंतजार के बाद बहन की चंदर की हसरत पूरी हुई और ज्योति की बगिया में एक नन्ही कली खिल उठी, नाम रखा गया सुमन।

सुमन दुनिया में क्या आई चंदर को तो मानो जीता जागता खिलौना मिल गया। दिनभर उसे खिलाना, उसके साथ खेलना, उसकी मालिश करना, नहलाकर अच्छे से तैयार करना, उसके रोने पर उसे चुप कराना आदि कई काम चंदर ने अपने जिम्मे ले लिये थे। चंदर का इतना वात्सल्य देख ज्योति बेटे से कहती,” मैं चिंता में थी कि घर के काम के साथ मैं सुमन को संभाल पाऊँगी या नहीं, किसी दाई को रखने का सोच रही थी


पर जैसे तुम ख्याल रखते हो सुमन का वैसा दाई तो क्या मैं भी नहीं रख पाती।”
सुमन स्कूल जाने लगी, चंदर उसे रोज छोड़ने व लेने जाता। चपरासी को कह रखा था कि मेरे आने तक सुमन का ध्यान रखना। सुमन की सहेलियाँ उससे कहती कि तुम्हारे भैया कितने अच्छे हैं, काश ऐसा भाई सबको मिले। इस पर सुमन को स्वयं की किस्मत पर नाज होने लगता।

सुमन की उम्र अपनी गति से बढ़ रही थी किंतु चंदर का बहन के प्रति प्रेम आगे न बढ़ते हुए अभी भी सुमन को बच्ची ही मानकर चल रहा था। सोलह साल की सुमन को भैया का उसके साथ बच्चों की तरह बर्ताव सुहाता नहीं था, भैया के जिस प्यार पर कभी सुमन इतराये फिरती थी अब उसी प्यार से कुछ कतराने लगी थी।

कुछ दिनों से चंदर व्यथित था, बेटे की व्यथा माँ समझ रही थी। हुआ यह था कि एक दिन चंदर ने सुमन से कहा कि चलो, स्कूल छोड़ देता हूँ तब सुमन बोली कि मैं अब छोटी बच्ची नहीं रही, मेरे दोस्त मेरा उपहास उड़ाकर कहते हैं कि इतनी बड़ी होकर भैया के साथ आती हो, अकेले नहीं आ सकती। एक बार चंदर ने बहन के लिये गुलाबी रंग की ड्रेस ली, उसे दिखाई और पूछा कि कैसी लगी?

सुमन ने ठंडा सा जवाब दिया कि ठीक है। चंदर ने कहा,” सिर्फ ठीक है, गुलाबी तो तुम्हारा बचपन से ही पसंदीदा रंग है।” सुमन ने रूखाई से कहा,” भैया वो बचपन की बात थी, मैं बड़ी हो गयी हूँ और उम्र के साथ पसंद भी बदल जाती है।”

चंदर खाने की मेज पर बैठा था, माँ ने आकर कहा कि मैं तुम्हें खिलाती हूँ और फिर एक कौर बेटे को खिलाने लगी। चंदर ने कहा,” मम्मी, क्या हो गया है आपको? कैसा अजीब व्यवहार करने लगी हैं आप। दो दिन से देख रहा हूँ कि कभी मेरे बाल बनाने लग जाती हैं,

कभी मुझे सुलाने लग जाती हैं। मैं अब बड़ा हो….।” चुप हो वह सोचने लगा कि जो अभी मैं माँ से कहने जा रहा था वही तो सुमन मुझसे कहा करती है, जैसे मुझे बुरा लगा उसे भी लगता होगा। माँ ने बेटे के चेहरे के भाव पढ़े और कहा,” लगता है कि जो मैं समझाना चाहती थी वह तुम समझ गये।


” चंदर ने कहा कि माँ, आप तो कुशल तीरंदाज निकली। अपनी समझाइश का तीर क्या सटीक निशाने पर लगाया है।
नया साल आने वाला था, चंदर ने सुमन के लिये तोहफा खरीदा। इकतीस दिसम्बर को सुमन की आँखों पर पट्टी बांधकर चंदर उसे गैरेज में ले गया, पट्टी खोली, सामने एक सुंदर स्कूटी रखी थी। चंदर ने कहा,” यह मेरी ओर से नये साल का उपहार, कैसा है,

कल से तुम इसी से स्कूल जाना।” स्कूटी को कुछ पल निहारने के बाद सुमन ने कहा,” भैया, बहुत अच्छी स्कूटी है। आपको मेरे बारबार यह कहने से कि मैं बड़ी हो गयी हूँ अच्छा नहीं लगता है और इसीलिये आप मुझे स्कूटी से स्कूल जाने को कह रहे हैं, है ना। मैं बोल देती हूँ फिर दु:ख भी होता है, भैया मेरी मंशा कभी आपको आहत करने की नहीं रही।

” चंदर ने बहन के गाल पर हल्की सी चपत लगाते हुए कहा,” अरे पगली, तुम्हारी मंशा पर मुझे कोई संदेह नहीं है।” चंदर ने कह तो दिया पर बहन को न समझ पाने से वह दुखी था।
माँ आयी, दोनों को गले लगाया, गले लगते ही जाने क्या जादू हुआ कि दोनों का दु:ख गायब हो गया। अपने प्रेम को नयी ऊर्जा दे चंदर ने नये साल का आगाज किया।
दर्शना जैन
खंडवा मप्र

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!