पार्वती अपनी ही धुन में चली जा रही थी। अचानक पीछे से कड़कड़,कड़कड़ बजने की आवाज़ सुनकर वह चिंहुक पड़ी “अहा!!! नयी टेक्नोलॉजी के युग में उसके बचपन वाला ये खिलौना?” उसने पलटकर देखा तो एक वृद्ध पंखे की तरह खिलौने को घुमा रहा था और उससे कड़कड़ की ध्वनि निकल रही थी।
उसके हावभाव देखकर वह वृद्ध बड़ी उम्मीद से उसकी ओर बढ़ा “डुगडुगिया लइ लो बिटिया ,,,”
“नही बाबा,क्या करूँगी लेकर! मेरे घर में इतना छोटा बच्चा नही है और अब इस उम्र में मैं तो खेलने से रही” वह हंस दी।
“अच्छा एक ठो खरीद लेव,,सुबह से एक्को नही बिका,,,जादा मंहगा भी नही है,बस दस रुपिया का है” वह रिरियाये।
“कहा ना,ज़रूरत नही है” मना करते ही वृद्ध का चेहरा उदास देखकर पार्वती को दया आ गई। उसने पर्स से दस रुपए निकाले और वृद्ध की ओर बढ़ा दिया,,”देखो मुझे ज़रूरत नही है लेकिन लो,ये दस रुपये रख लो,,,”
“न न,अइसन कइसे ले लई? ई तो भीख है,,,हमरा पोता बहुत बीमार है। कुछ बिक जाय तो वहि की दवा दारू का इंतजाम होइ जइहे,,,,,”
“वो तो आपके लड़के की ज़िम्मेदारी है,आपकी नही!और वैसे भी ये उम्र आराम करने की है,मारे मारे फिरने की नही,,,”
“आराम,,,?” उनकी आवाज़ भर्रा गई,,,”आराम कहाँ! एकलौता बेटवा,बहुरिया एक दुर्घटना मा खतम होइ गये तो यही अकेल हमरे जिये का सहारा है,,पर एक महीना से बहुतै जादा बीमार पड़ि गवा तो,,,,”
ओह!!!पार्वती का मन भर आया। इतनी गरीबी और परेशानी में भी उसकी खुद्दारी देख वह नतमस्तक हो गई। उसे अपने ऊपर शर्म आने लगी। कुछ भी हो,इनकी मदद तो करनी ही चाहिए,,लेकिन बग़ैर उनके स्वाभिमान को ठेस पंहुचाये!
उसने पर्स से सौ रुपये निकाले और वृद्ध के हाथ में पकड़ाकर धीरे से बोली “बाबा, दस डुगडुगिया दे दो,,,”
#स्वाभिमान
कल्पना मिश्रा
कानपुर