आज ऑफिस से पिताजी जल्दी ही घर आ गये थे। पूरे घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। माँ ने पिताजी से कहा -” आप हाथ मूंह धोकर बैठ जाइए मैं खाना परोस रही हूँ।”
पिताजी ने मुझे पास बुलाकर पूछा-” बेटा दीदी के बिना तेरा दिल नहीं लग रहा है क्या?”
मैंने सिर हिला कर कहा-” बिल्कुल नहीं…आपने क्यूँ जाने दिया दीदी को? ”
“वह बेचारी तो जाना भी नहीं चाहती थी उस नर्क जैसे घर में जबरदस्ती भेज दिया “-माँ ने मेरा पक्ष लिया।
पिताजी तौलिये से मूंह पोछते हुए बोले-“बेटा शादी- ब्याह गुड्डा-गुड़िया का खेल थोड़े है। सात जन्म का रिश्ता होता है पति -पत्नी का। आज न कल तो जाना ही था उसे। वैसे भी कौन रख पाया है शादीशुदा बेटी को अपने पास।
यह सच है कि थोड़े लालची हैं उसके ससुराल वाले । मैंने कुछ ले दे कर समझा दिया है उन सबको कि अगली बार यदि मेरी बेटी को परेशान किया तो एक- एक को जेल जाना पड़ेगा। देखना सब ठीक हो जाएगा। ”
माँ ने पिताजी के सामने खाना लगाया तभी फोन की घंटी बजी….
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माँ ने मुझसे कहा -” देख तो किसका फोन है?”
मैंने फोन रिसीव किया उधर से किसी ने कहा-” अपने पिताजी से बात कराओ….
मैंने पिताजी की ओर देखा तो उन्होंने खाना शुरू ही किया था। उनके हाथ में खाने का पहला निवाला था। फिर मैंने माँ को देखा…माँ मेरे हाथ से फोन लेकर बोली हैलो….कौन?”
” कहां से बोल रहे हैं आप?”
अचानक से माँ हाथ में फोन लिये चित्कार मारकर रो पड़ी और हम कुछ समझ पाते वह वही पर गिर कर लुढ़क गई।
पिताजी खाना छोड़कर माँ के पास दौड़े। उन्होंने माँ के हाथ से फोन लिया और मुझे माँ को सम्भालने के लिए दौड़ाया। थोड़ी ही देर में जो दुर्घटना घटी थी जो पानी की तरह साफ साफ मुझे समझ में आ गई थी।
ससुराल में हमारी दीदी पंखे से झूल गई थी या झुला दी गई थी। मैं इस हादसे को झेल नहीं पाई मेरा मन क्षोभ से भर गया। मैंने पिताजी की ओर उँगली दिखाते हुए बोला-” आपने मेरी बहन को मारा है…आपने… उसके बाद शायद मैं होश खो बैठी थी।
होश आया तो पिताजी हाथ जोड़े मेरे बिस्तर के सामने बैठे थे। रोते हुए उन्होंने कहा-” बेटा मैं सबसे बड़ा गुनाहगार हूँ ।अपनी औलाद को मैंने मौत के मूंह में झोंका है। मैं जीते जी इसका प्रायश्चित नहीं कर सकता। मुझे कभी माफी नहीं मिलेगी। मैं अपनी बेटी की मौत का गुनाहगार हूँ ।”
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार