कुछ गुनाहों का प्रायश्चित नहीं होता – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

सीधे सीधे चलते चलते अचानक रोड चारों दिशाओं में बंटने लगी।

इधर देखा उधर देखा कोई साइन नजर ही नहीं आया।

उतर दिशा की ओर बड़ी बड़ी बिल्डिंगे खड़ी थी जिसके गलियारे एकदम शांत थे।

बालकनी से कुछ कुछ बच्चे झाक रहे थे पर आवाज उनकी भी नहीं आ रही थी।

किसी किसी बालकनी से गुटर गु गुटर गु की आवाज गूंज रही थी खाली पड़े रोशन दानों में कबूतरों ने अपना रैन बसेरा बना लिया था।

आलीशान बंगलो की शांति अत्यधिक रसूखदार होने का नमूना पेश कर रही थी।

मन ने कहा ,,;” नहीं नहीं इस रास्ते पर मेरी मंजिल मुझे नहीं मिल पाएंगी।

क्या पता पूर्व की तरफ जाने वाली सड़क मेरी मंजिल तक जाए ?

सोचकर उस तरफ बढ़ चला।

दिशा ने टोका ;” रुको पहले कुछ सोच लो कही बड़ा रास्ता हुआ तो समय लगेगा।

मन मुस्कुराया अरे आनंद दायक रास्ता तो लंबा भी चलेगा मंजिल भी मिलेंगी और जीवन की परम अनुभूति भी।

नहीं नहीं मै तो शॉर्ट कट पर विश्वास करती हु मै तो इसी राह से जाऊंगी।

तुम्हारा रास्ता अलग ओर मेरा अलग।

मेरा मन फिर सोच में डूब गया साथ में जो आनंद आता है वो अलग अलग में कहा?

पर ?

किसकी कौनसी बात मानू किससे सलाह लू?

समझ ही नहीं आ रहा।

पर,कुछ पल रुक पूर्व दिशा की तरफ चल दिया।

कुछ दूर बाद ही रोड पर कुछ बच्चे खेलते मिले अपने में ही मस्त।

उन्हें किसी की परवाह नहीं थी।

हर्षित उल्लसित इधर उधर भागते हुए एक दूसरे को पकड़ रहे थे।

एक के हाथ कोई खाने की चीज होती तो छीन झपट कर खा रहे थे।

जिसके हाथ से रोटी छीनी गई वो भी खुश था जिसके मुंह में रोटी गई वो भी खुश था।

अपनी गाड़ी की गति धीरे कर उस माहौल को जीने लगा क्योंकि इससे मिलता जुलता ही हमारा बचपन था।

वो सयुक्त परिवार दादा,दादी, ताऊ,ताई,चाचा,चाची सब साथ साथ रहते थे।

भाई बहन तो इतने थे की पड़ोसियों के बच्चो की जरूरत ही नहीं थी।

पर ,वो भी दूर कहा थे?

हम में ही शामिल।

क्या खाते,क्या पहनते उस ध्यान नहीं था सिर्फ मौज मस्ती ओर पढ़ाई ।

हा,बड़ों की आज्ञा अनुसार काम ।

किसी का कहना टाल जाए इतनी भी जुर्रत नहीं कर पाते थे।

चाचा से डॉट तो ताऊ जी की थप्पड़ भी खाते थे पर बुरा नहीं लगता था।

तभी एक नन्हा सा बालक जिसका रंग काला शर्ट के बटन टूटे हुए से एक टूटी हुई साइकिल से फुर्ती से रास्ता काट गया

उसमें भी उसे विजयी गर्व महसूस हुआ वो मेरी तरफ देख कर चिल्ला रहा था हुर्रे हुर्रे….।

मैं मुस्कुरा दिया।

मन फिर एक सोच में चला गया।

हम शहर वासी अपने बच्चों को डिब्बा बंद फास्ट फूड की तरह तैयार कर रहे है।

तो उनसे पुरानी तरह की अपेक्षाएं कैसे रख सकते है?

हमे पुराने समय जैसा मान सम्मान चाहिए।

ओर हम उन्हें क्या दे रहे है?

सारी सुविधाएं उपलब्ध करवा कर हम उनसे उनका आत्मविश्वास तो नहीं छीन रहे।

जो उन्हें अपने फ्रेंड्स के साथ मिलता है।

ओर इसीलिए सब बच्चे मरते क्या ना करते इस डिजिटल दुनिया के दानव मोबाइल के गिरफ्त में आ गए।

क्यों?

क्योंकि हमने अपनी आजादी चुनी।

संयुक्त परिवार छोड़ा।

हम बदले।

ओर बच्चो से उनका बचपना छीना।

आजके इस आर्थिक युग में मां _बाप दोनो कमाने लगे क्यों?

बच्चो की भलाई के लिए उन्हें अच्छी सुखसुविधाएं देने के लिए?

उन्हें अच्छी एजुकेशन देने के लिए?

हमने यही सोचा था ना?

सबके साथ रहकर बच्चा अपनी मंजिल तक पहुंचने में बाधा महसूस करेगा।

तो अब ?

जब उसने अपना अकेलापन का साथी मोबाइल को,लैपटॉप को बना लिया?

अब क्या करे?

ये हमारे स्वार्थ के लिए हमारे द्वारा किया सबसे बड़ा गुनाह है

जिसका प्रायश्चित तो पीढ़ियों तक नहीं होगा।

धन है,बहुत है।

पर वक्त?

बच्चो को असली खुशी आपके हमारे वक्त से मिलती है।

दो पल बैठे उनकी सुने ,उनके साथ खेले गर आज समय नहीं निकाल पाए तो कल कोई उम्मीद मत करना।

फिर अचानक अखबार के फ्रंट पेज पर छपी कोटा की घटना याद आ गई एक स्टूडेंट ने सुसाइड कर लिया?

वजह …

कही ना कही हम…….

ख्याल दिमाग में थे पर पसीने से पूरी देह भीग गई।

गाड़ी आगे बढ़ा दी अपने घर की तरफ मन ने ठान ली ” डिब्बा बंद रेसिपी तैयार नहीं करूंगा।

दीपा माथुर

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!