“मन्या! दो कप चाय लाओ! साथ में गर्म नाश्ता” बच्चू जोर से चिल्लाया! उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसकी प्रिय शिक्षिका वझे बाई (तब मैडम कहने का चलन नहीं था) उस के सामने खड़ी है! वह तपाक से उठा और उसने उनके पैर छुएँ और उन्हें कुर्सी पर बैठने की विनती की और वह पास में खड़ा रहा
आज्ञाकारी विद्यार्थी सा! स्मृतियों की रंग-बिरंगी तितलियाँ मन-उपवन के मुस्कुराते फूलों पर मण्डराती और होले से किसी पुष्प पर पल भर के लिए ठहर जाती! कैसे भूल सकता था pबच्चू वो पल जब माँ उसे वझे बाई के घर ले गई थी, चौथी कक्षा में अनुत्तरणीय होने के बाद! माँ के आँखों में आँसू थे और वझे बाई के शब्दों में आत्मविश्वास! आज भी बच्चू को वह स्पर्श याद था
जब वझे बाई ने उसके बालों में ऊँगलियां घुमाते हुए माँ को कहा था, “आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए, मैं पढ़ाऊंगी इसे! कितना प्यारा, भोला-भाला है यह सागर! मैं प्यार से समझाऊंगी इसे!”
बेशक़! यह उनका प्यार ही था जिसने बच्चू यानि की सागर के मन में आत्मविश्वास जगाया था और उसकी ऊर्जा को सही दिशा की ओर मोड़ दिया था!
आज वह शहर का नामचीन वकील और विधायक बन गया था!
ननद एक बड़ी बहन जैसी…. – अमिता कुचया : Moral Stories in Hindi
वझे बाई के हाथ थरथरा रहे थे और होठों में कम्पन था! आँखों में आँसू की बुँदे चमक रही थी और होंठ कुछ कहने के लिए उतावाले थे!
तभी मन्या चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर आया और बीच में रखे टिपॉय पर रख कर दूर खड़ा हो गया! बच्चू ने वझे बाई को नास्ता लेने की विनती की और थोड़ी देर के ना-नुकर के बीच चाय का कप बड़ी विनम्रता से उनके हाथ में थमा दिया! वझे बाई के साथ-साथ वह भी चाय की चुस्कीयाँ लेते-लेते बतियाने लगा!
उसने विनय पूर्वक पूछा, ” क्या बात है? आप इतने तनाव में क्यों हो?” वझे बाई मन्या की तरफ देखने लगी! बच्चू समझ गया! अनजान आदमी के सामने कैसे खोलेंगी वह दिल की परतें? उसने मन्या को इशारा करते ही वह चला गया! बच्चू ने फिर वझे बाई की तरफ देखा!
वह बोल रही थी और आँखों से अश्रुधारा बह रही थी स्वच्छन्द झरने की तरह! थरथराते अधरों पर व्यथा आ ठहरी थी कोमल तितली सी, काँटों से बचते-बचते ! “बेटा! क्या बताऊँ? मानसी.. मेरी पोती! चार-पांच दिनों से कॉलेज नहीं जा रही! बेटा! बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछा तो उसने बताया कि उस मोहल्ले का एक गुंडा उसे रोज परेशान करता है!
कभी चुनर खींचने की कोशिश करता है तो कभी फब्तीयां कसता है! चार-पांच टपोरी भी साथ में होते हैं! मेरा बेटा तो कश्मीर में तैनात हैं और यहाँ मैं, बहूँ और पोती रहते हैं!
बेटे को कहूँगी वो भी चिंतित हो जायेगा! अब कहूँ तो किससे कहूँ! ग्रेजुएशन का अंतिम वर्ष है, परीक्षा मुँह पर है और मुसीबत.. वो होते हैं चार-पांच लोग.. है तो बहादूर बाप की बेटी! मगर वो खामोश हैं हमारे लिए …”
बच्चू उठ खड़ा हो गया! क्या नाम बताया कॉलेज का… अच्छा! कल सुबह अपनी पोती मानसी को कहना, कॉलेज जाने को! वो फोटो देना मुझे उसका! बाकी मैं संभाल लूंगा! कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ मेरी बहन की तरफ आँख उठा कर देखने वाला,
चुनर को छूने वाला! उसके पिता हमारी रक्षा के लिए सीमा पर चौड़ी छाती कर खड़े हैं तैयार गोली खाने के लिए और हम यहाँ उनकी बेटी की रक्षा नहीं कर सकते असामाजिक तत्वों से?
आप निश्चिन्त हो कर घर जाईये! “ए मन्या! वझे बाईना नीट घरी पोहचवून ये गाड़ी ने अन तो मोबाइल दे जरा मला”
उसने उठ कर प्रणाम किया और वह हाथ पकड़ कर वझे बाई को दरवाजे तक छोड़ आया!
बच्चू का एक कॉल जाते ही रास्ते की गन्दगी साफ़ कर दी गई और अनेक बेटियां निश्चिंत हो कॉलेज के परिसर में चिड़ियोंसी चहचहाने लगी! मानों आज हो वह रक्षा बन्धन का त्यौहार मनाने की तैयारी कर रही थी!
बच्चू की जीवन-शिल्पकार वझे बाई के आँखों की झील में कमल मुस्कुरा रहे थे, पंखुड़ियों पर कृतज्ञता की मोती चमक रहे थे!
स्वरचित तथा मौलिक,
कुसुम अशोक सुराणा, मुम्बई, महाराष्ट्र।