काफी पहले की बात है, मै पार्लर के काम से फ्री होकर, बाहर सब्जी वाले से सब्जी ले रही थी, अचानक पड़ोस में काम करने वाली, सावित्री आई, बोली भाभी, ये झाबुआ से आई है मेरी सहेली, आपको जरुरत हो तो काम करने के लिए लगा लीजिए, मैने कहा अभी तो मुझे जरुरत नहीं, पर मुझसे मिलती रहना, कहीं न कहीं जरुर लगवा दूंगी, बस उस दिन से रोज वो शाम को घर आती, बैठ जाती, और मुझे देखती रहतीं, शुरु शुरु में तो मुझे थोड़ी झुंझलाहट सी हुई, क्या ये रोज रोज आ जाती है पर पता नहीं मैं कुछ बोल नहीं पाती।
इक दिन जब वो आई मैं उस समय फ्री थी, उससे उसका नाम पूछा तो बोली कसना है मेरा नाम, मैंने कहा ये कैसा नाम है तो बोली मैं बचपन में कस कस के रोती थी तो मां ने कसना नाम रख दिया, मैंने हंसते हुए कहा, आज से तुम्हारा नया नाम मैं रखती हूं: कृष्णा: वो खुश हो गई, उस दिन हमने साथ चाय पी और हमारी मजबूत दोस्ती हुई जो आज २३ साल बाद भी कायम है ।
उसके चार छोटे बच्चे थे और २८ साल की छोटी सी उम्र में वो विधवा हो चुकी थी, भाई झाबुआ ले गए साथ पर पांच लोगो को खिलाना भारी पड़ने लगा उन्हें, फिर मार पीट शुरु हो गईं, हारकर वो अपने किसी रिश्तेदार के साथ इंदौर आ गई, उन्हीं के साथ अस्थाई झोपड़े में रहने लगी, उस दिन से मेरे काम में ये काम भी शामिल हो गया, कृष्णा के लिए काम ढूंढना। पार्लर में सभी से कहा, आखिर उसे धीरे धीरे बहुत काम मिलने लगा, एक दिन रोती हुई आई,
पूछने पर मुश्किल से बताया कि रिश्तेदार ने गलत हरकत करने की कोशिश की ओर उसे बच्चों के साथ झोपड़े से निकाल दिया, वो तो थी ही परेशान, मैं भी चिन्ता मे आ गईं कई जगह फोन लगाकर कमरा किराए पर लेने की बात की पर नौकरानी को कमरा वो भी अच्छी कॉलोनी में कोई तैयार ही नहीं हो रहा, आख़िर एक भाभी को मनाया ओर ५०० रूपये में एक कमरा बहुत सारी हिदायतो के साथ मिल ही गया, उसके साथ मैने भी राहत भरी सांस ली।
जरुरत के बर्तन खुद दिए, बत्ती वाला स्टोव, कुछ दिनों का राशन अरेंज कराया, आख़िर एक गरीब
को सिर छुपाने को जगह मिल ही गई।
मेरा अपना घर बनकर तैयार हो गया था मैंने कृष्णा से कहा, मैं पास ही बन रहे अपने घर में शिफ्ट हो रही हूं, क्या मेरे घर काम करेगी, वो एकदम बोली, जीजी मैं आपके लिए अपनी जान भी दे सकती हूं, मैने उसे अपने घर एक काम को
रखा
, धीरे धीरे पूरा घर उसके हवाले होता गया,
चारो बच्चों को कालोनी के छोटे स्कूलों में एडमिशन करवाया, भील जाति के थे, कम फीस और स्कॉलरशिप के फार्म भरवाए गए, बच्चे पढ़ने लगे, बेटी भी सहारा देने लगी, मशीन की तरह सुबह से लेकर शाम तक बिना रुके काम करती, पर कभी शिकायत नहीं करती, मेरी तो पक्की सहेली बन गई, घर में काफी सामान जुटा लिया उसने, मेरे घर की पूरी जिम्मेदारी उसने उठा ली, मुझे भी उसके बिना बिलकुल अच्छा नहीं लगता ,14 साल उसने मेरा साथ दिया, उसके बाद हम सभी ने उसकी आर्थिक सहायता करके, एक प्लॉट लिया और उसका घर बनाया,
आज़ उसकी तीन बहुएं, बेटे पोता पोती हैं, बेटी दामाद बच्चे भी पास ही रहते हैं
मिल तो नहीं पाती दूरी के कारण फिर भी बहुत
याद करती है मुझे और याद आती भी है , इश्वर उसे हमेशा खुश रखे। उसे आश्वासन दे रखा है, कभी भी जरुरत पड़े मेरे घर आ जाना,
नजदीक रिश्तों से भी नजदीक हो जाते हैं ये अनजाने रिश्ते, जो कोई रिश्ता न होते हुए भी अपनो से भी अपने हो जाते हैं।
प्रीती सक्सेना
इंदौर