अक्षरा, तुम्हारे जाने के बाद बहुत अकेला हो गया हूँ। तुम क्या गयी जैसे……जिंदगी ही चली गयी। सच है, जब तक तुम करीब थी, तुम्हारी अहमियत नही समझ पाया । बहुत लड़ा हूँ अपने अपने अहम से, अब थक गया हुं अक्षरा । मैं नही जानता मैं इस योग्य हुं कि नही, पर तुम्हारे लौट आने की एक क्षीण सी उम्मीद अभी भी बाकी है, न जाने क्यों…….! आओगी न अक्षरा……… नवीन
पत्र पढ़ने के बाद भावशून्य आंखों में एक भाव लहरा कर रह गया । अभिमानी और तंगदिल नवीन इस तरह का पत्र कैसे लिखने लगे, सोच में पड़ गयी , जरूर कोई मतलब होगा।
अतीत की यादे घेरने लगी। वह आज भी नही समझ पाती थी कि माँ, पापा इतने सुंदर गोरे चिट्टे थे फिर मै क्यों इतनी बदसूरत काली रह गयी …..माँ हमेशा बलैया लेती थी ……परेशान न हो ईश्वर ने सूरत नही दी तो क्या तू अपनी सीरत ऐसी बनाना की हर कोई तेरी तारीफ करे।
ईश्वर हर किसी को कोई न कोई नियामत जरूर बख्शते हैं, सो अक्षरा ने भी सुरीली आवाज पाई थी। राष्ट्रीय स्तर तक शास्त्रीय संगीत प्रस्तुत करती अक्षरा तुच्छ शारीरिक मापदंडों से बहुत ऊपर निकल आयी। एक कंसर्ट कलकत्ता में हो रहा था जहां सितार पर उंगलियां रखते ही सधी हुई आवाज का जादू चल गया और लोग मंत्रमुग्ध से उसे देखते ही रह गए, वहीं पर कोलकाता के देवाशीष शुक्ला एक नामी गिरामी हस्ती भी मौजूद थी और अगले ही दिन वो अपने बेटे नवीन के लिए अक्षरा को मांगने चल पड़े । घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता पाकर माँ, पापा खुशी से बौरा गए और चैट मंगनी पट व्याह हो गया।
शादी के बाद जैसे ही नवीन की नजर पड़ी, उन्होंने मुह मोड़ लिया और पापा से लड़ पड़े। आपको एक काली कलूटी लड़की मेरे लिए कैसे पसंद आ गयी। उन्होंने समझाया, सूरत से बढ़कर सीरत होती है बेटे, उसके गले मे सरस्वती का वास है। और तुझे पता है तेरे उच्छ्रंखल व्यवहार के कारण यहां कोई भी तुझे लड़की देने को राजी नही होता।
इसके बाद हम दोनों एक घर मे रहते हुए भी एक नही हुए। बाबूजी ने कई संगीत आयोजन में मुझे जाने को प्रोत्साहित किया। जिंदगी वही सभागार, वही मंच वही तालियों के बीच जगमगाने लगी। एक दिन इसी समय बाबूजी की आवाज़ उसके कानों से टकराई……बहु नवीन की कार का एक्सीडेंट हो गया है , चलो ल। अक्षरा के सपाट चेहरे पर लेशमात्र भी शिकन न उभरी, अचानक याद आया, नवीन के नाम का सिंदूर चमकता है आज भी उसके मांग में, और वो दौड़ पड़ी । जाकर देखा, तो नवीन और एक युवती बुरी तरह घायल अवस्था मे सड़क पर पड़े है, अस्पताल आते ही युवती ने प्राण त्याग दिए । नवीन के चेहरे और हाथों में कई जगह टांके लगे, एक आंख भी चली गयी । अब अक्षरा पूरी तरह उसकी सेवा में लग गयी, पर उसे नवीन के कई टांके देख कर थोड़ा सुकून भी मिलता था क्योंकि इसी चेहरे पर उसे गर्व था ।
सेवा से नवीन कुछ ठीक होने लगे इसी वक्त मुझे पद्मविभूषण सम्मान के लिए दिल्ली बुलाया गया , और कुछ सालों के लिए दिल्ली में ही रहना पड़ा और आज ये पत्र मेरे पास पहुँचा । पर इतने छोटे से कागज़ पर बरसो की पीड़ा को सहजता से उड़ेल कर रख दिया है उसने । उसका भी मन सबके बीच रहते हुए भी अकेलेपन से ऊब चुका था…….और वो नारी थी…………पिछली बाते भूल के चल पड़ी अपने प्रीतम के पास ।