कोई लाख करे चतुराई – पूर्णिमा सोनी   : Moral Stories in Hindi

, पकौड़े और चटनी, समाप्त हो चुके थे।

और थे भी कितने, विद्या जी मंदिर तक गई थीं तो उनकी चार सहेलियां और साथ में आ गई, जो उनके साथ भजन मंडली में शामिल रहती थीं मंदिर में।

घर के भीतर से पकौड़े तलने की तेज खुशबू आ रही थी।

आज ये मम्मी जी मंदिर से जल्दी कैसे घर आ गईं? अब तक तो मैं अपने दोनों बच्चों के साथ , पकौड़े चटनी सफाचट कर चुकी होती।

अब मोहल्ले की आंटियों से मजबूरी वश नमस्ते करने जाना पड़ेगा।

और पकौड़ियां , चटनी भी चाय के साथ देना पड़ेगा नाश्ते में, वरना तो मैं इस बुढ़िया को चाय के साथ बरसात में सीले बिस्कुट टिका देती।

चाय भी तलछट में पड़ी चाय की पत्तियों को दुबारा उबाल कर बना देती… कर भी क्या लेगी?

जब तलक सीताराम जी जीवित थे,उनकी कमाई से ही घर चलता था,तब तो मैंने किसी को कुछ ना समझा,ना सास ना ससुर को, ननदों के साथ भी दुर्व्यवहार करके उनका जीना और इस घर में आना दूभर कर रखा, तो अब बुढ़ऊ ( सीताराम जी) के जाने के बाद,इसको क्यों कुछ समझूंगी?

बहू बबिता ने कुटिलता से मुंह बनाते हुए सोचा।

देवकी जी जो विद्या जी के घर के पास ही रहती थीं,और सभी बातों से भली प्रकार परिचित थीं,कि विद्या जी के पति के जाने के बाद, उनका बेटा,रमेश और बहू बबिता ,उनके पति की पूरी पेंशन हड़पने के बाद भी, उन्हें घर में सम्मान पूर्वक दो रोटी को तरसा रहे हैं,, उन्होंने खाली प्लेट उठाई और किचन में रखने के बहाने पहुंच गई।

बहुत बढ़िया पकौड़ियां थी बहू रानी किस चीज की बनाई थी?

बबिता देवकी आंटी को देख कर हड़बड़ा गई

उसके दोनों बच्चे,आलू प्याज,पनीर के पकौड़े खा रहे थे और उसने मम्मी जी की सहेलियों को धनिया और पालक की बची डंठलों से उटपटांग पकौड़ियां बना कर टिका दिया था।

देवकी जी की पारखी निगाहों और जबान से कुछ नहीं छिपा था।

समझती तो विद्या जी भी सब कुछ थीं मगर पति के बाद किसी तरह अपनी जिंदगी के आखिरी दिन गिन रही थीं।

आश्चर्य की बात है जबकि उनके पति के बनवाया विशाल भवन और पेंशन सब कुछ उनकी थी।

देवकी आंटी ने मुस्कुरा कर कहा

बहू वेस्ट को बेस्ट बना कर  बनाना और परोसना कोई तुमसे सीखे..तुमने खुद चखा कि नहीं.. या सिर्फ हम सासों को ही टिका दिया.. इतने बुरे भी नहीं हैं जितने तुम समझ रही होगी..

बबिता ने भुनभुनाते हुए प्लेट देवकी जी के हाथों से ले लिया

और उसने क्या क्या फुसफुसाते हुए कहा देवकी जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था.. विद्या जी को बहुत समय से मोहल्ले वालों के सामने रो रोकर बहुत कुछ बताते सुना था। उनके पति और स्वयं विद्या जी बहुत ही सज्जन व्यक्तिव के धनी थे, ये बात सर्व विदित थी।

और अब देवकी जी ने ठान लिया था कि विद्या जी की बहू जो अपनी चालों से सास को परेशान कर रही है, उसे दुनिया के सामने एक्सपोज ( उजागर) करना है।

मुझे डरने की क्या जरूरत है? मैं एक भली ( और असहाय) स्त्री का साथ ना दे सकी तो फिर धिक्कार है मुझ पर उनकी सहेली और इंसान होने का..

क्योंकि बबिता मुहल्ले में अपनी हमउम्र बहुओं से सास और ननदों के बारे में बहुत कुछ अनर्गल बताती रहती है।

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देवकी जी विद्या जी के घर में प्रवेश करती हैं,जानती हैं ये उनके घर के खाना खाने का समय है फिर भी..

विद्या जी , अपनी थाली में खाना समाप्त करके बैठी थीं

उन्हें देखते ही बबिता ने चमक कर कहा

आंटी जी इस समय आ गई आप?

हां, क्योंकि कल शीला जी के यहां भजन का प्रोग्राम है, मुझे पता है ये भूल जाएगी, इसलिए मैंने सोचा,इसकी भजन की काॅपी मैं आज लेकर अपने पास रख लूं.. कभी तुमने अपनी सासू मां से भजन कीर्तन सीखा या नहीं?

मुझे इन फालतू कामों के लिए फुर्सत नहीं है, बबिता ने मुंह बनाते हुए कहा

अच्छा विद्या, खाना बड़ी जल्दी निपट गया तुम्हारा, क्या खाया आखिर, देवकी जी के कहते ही बबिता झट से बोली

जब मैं इस घर में आई थी तो मम्मी जी ने बताया था कि यहां बहुत पतली रोटियां खाई जाती है, वैसी ही बना कर खिला दिया…. बस दो ही रोटियां देती हूं, जिससे मम्मी जी का स्वास्थ ठीक रहे… वरना इन्हें लूज मोशन हो जाते हैं

इतनी पतली पतली रोटियां ??

देवकी आंटी ने हाथ में छुपा कर रखी रोटी, सबके सामने रख दी

नन्ही सी हथेली के बराबर, कागज़ की तरह रोटी थी

अब तक देवकी जी की कुछ और सहेलियां और मुहल्ले वाले भी आ गए थे

ये … ये कहां से मिली.. बबिता के चेहरे का रंग उड़ चुका था

हां सुबह तुम्हारी सास मिली थी.. रोते रोते हाथ में छिपाई रोटी दिखाया,कि बहू ऐसी दो रोटियां देती है सुबह शाम.. बस..

तो मैं क्या करूं? इस घर में शुरू से ही यही था कि पतली रोटियां बनती है तो मेरी वैसी ही आदत बन गई है

बबिता के माथे पर पसीना चुहचुहा आया था

वो भी भीषण सर्दी के दिन में

अच्छा… कहते हुए देवकी जी  डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ी जहां रमेश और उसके दोनों बच्चे खाना खा रहे थे

उन्होंने डोंगा खोला… डोंगा मोटी मोटी, बड़ी रोटियों से भरा था।

बस सासू मां को अलग से नन्हे बच्चे की हथेली के बराबर कागज़ जैसी रोटियां और घर के बाक़ी सदस्यों और अपने लिए तो ऐसा नहीं बनाती.. और उन्हें गिन गिन कर दो रोटियां  देती हो

पतली रोटियां बनाना अच्छी बात है मगर फिर गिन कर नहीं परोसी जाती… किसी इंसान के पेट भरने तक परोसनी चाहिए..

अब तक रमेश भौंचक्का सा खड़ा हो गया था।

मुझे माफ़ करना रमेश बेटा मेरा तुम्हारे घर के व्यक्तिगत मामलों में बोलने का कोई अधिकार नहीं,और यह भी मत सोचना कि मैं तुम्हारी बहू को जांचने आई थी अरे मैं तो अपनी इस सहेली को जांचने आई थी कि कहीं यह झूठ तो नहीं बोल रही है.. आज तो सबके सामने दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो गया।

मैं तो यही सोच रही हूं कि यह बहुत दिनों से कई लोगों को अपनी हथेली में रोटी छिपा कर दिखाती है कि देखो बस ऐसी दो रोटी देती है बहू… सोचने वाली बात है जब एक दिखाने में खर्च कर रही है तो  इसके खाने के लिए बचता क्या है… सिर्फ एक रोटी.. और मैंने  बबिता बहू से बहुत बार पूछा कि तुम्हारे पापा जी के जाने के बाद तुम्हारी सासू मां बहुत दुबली क्यों जा रही हैं तो कहती हैं

दिन भर अनाप शनाप खाती हैं, फिर पचा नहीं पाती,लूज मोशन हो जाते हैं, तो मैं क्या करूं

कमरे में गज़ब का सन्नाटा छाया हुआ था, विद्या जी के बेटे बहू के मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे।

विद्या जी इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से घबराकर रो रही थीं।

बबिता ने चतुराई से पासा फेका 

 अरे पिछले जन्म में ना जाने क्या करके आई हैं जो बुढ़ापे में ऐसी दुर्दशा हो रही है,… ऐसी अभागन औरत

 उसने जानबूझ कर सास पर ताना कसा 

  देवकी जी ने प्रत्युत्तर दिया 

 हां सच कह रही हो बबिता बहू.. इस अभागन का पिछला जन्म तो किसी ने नहीं देखा… क्या करके आई है?… परंतु तुम्हारा ये जन्म और उसके कर्म तो सबको दिख रहे हैं …… मैं सोचती हूं तुम्हारा क्या होगा?

 बहुत समझदार बनती हो कि पिछले जन्म का कर्म फल भुगत रही हैं तुम्हारी सास… अपने इस जन्म के कर्मों का लेखा जोखा भी कभी फुर्सत में बैठ कर कर लो….

 बबिता का मुंह खुला रह गया….. उसे इस तरह आइना किसी ने नहीं दिखाया था..

मैं चाहती तो सब कुछ सुनकर, अनजान बन कर रह जाती, मगर मेरे ज़मीर ने ये गंवारा नहीं किया.औरों की तरह मैं भी यह दुनिया छोड़कर एक दिन चली जाउंगी मगर बहुत कुछ देख कर असमर्थ ( नपुंसक?) जैसा व्यवहार नहीं कर सकती.. जिस पिता के बनाए घर में उन्हीं की पेंशन लेकर,अपना खर्च चलाते हो अपनी मां का ये हाल कर रहे हो?

समय रहते ना चेते… तो पता नहीं किस परिणाम को भुगतने वाले हो,..

आज तुम दोनों पति पत्नी अपने को बहुत चतुर बुद्धि समझ रहे हो…. ऐसा ना हो कि वक्त कल को संभलने और सुधरने का अवसर ही ना दे।

और तुम्हारे जीवन ऐसा हो जाए कि हर कोई तुम्हारे ऊपर धिक्कारे

कोई लाख करे चतुराई

करम का लेख मिटे नही भाई

देवकी जी और मोहल्ले के लोग जा चुके थे….

कमरे के निपट सन्नाटे में बस विद्या जी की सिसकियों की आवाज गूंज रही थी… उनके पति के फोटो के सम्मुख

पूर्णिमा सोनी

कुछ बातों को उठाना चाहती हूं मित्रों आपके समक्ष

अपने कलेजे से लगा कर बच्चों को पालने और अपने से पहले उनकी क्षुधा शांत करने वाली मां और पिता के साथ ऐसा व्यवहार उचित है।

यदि आज वो अक्षम है कमजोर, असहाय हैं तो कभी आप भी ऐसे ही थे,जब नन्हें से शिशु के रुप में दुनिया में आंखें खोली थी।

तब उन्होंने आपकी अपने सामर्थ्य भर सर्वश्रेष्ठ देखभाल की थी,अपना निवाला भी आपको खिलाया था, बिस्तर के गीले वाले हिस्से में स्वयं सोकर, सूखे वाले हिस्से में आपको सुलाया था….

शेष आप सभी स्वयं समझदार हैं

पुनः आपके लाइक, कमेंट और शेयर के लिए अग्रिम आभार

आपकी सखि

 पूर्णिमा सोनी 

स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित 

 #अभागन, कहानी प्रतियोगिता, शीर्षक — कोई लाख करे चतुराई…..

 

2 thoughts on “कोई लाख करे चतुराई – पूर्णिमा सोनी   : Moral Stories in Hindi”

  1. अरे ये नालायक औलाद ऐसे नहीं सुधरती है जब तक उसे उसकी औकात ना दिखाई जाए,पता नहीं कि आप लेखकों क्या हो गया है कि विषय को अधूरा छोड़ देते हो,कहानी को पूरा करो या लिखो ही मत ।

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