बहु..! मेरे कमरे के मेज पर 4 साड़ियां रखी हुई है… ज़रा वह ले आना..
कमला जी ने अपनी बहू प्रीति को आवाज लगाई…
प्रीति के साड़ी लाने के बाद…
कमला जी: यह ले मीना…! यह साड़ियां तेरे लिए ही निकाल कर रखी थी कब से…
मीना खुश होकर: शुक्रिया दीदी..! बस तुम लोगन का ही तो सहारा है…. वरना हम लोगन का इतना बढ़िया साड़ी पहने को कहां नसीब..?
फिर मीना ने साड़ी को किनारे रखते हुए कहा…. कहो दीदी..! कौन-कौन सी सब्जियां दे दूं..?
कमला जी: आज तो तू बड़े दिनों के बाद आई है… मेरे बेटे की भी शादी हो गई.. तेरी मिठाई और शगुन बाकी रहा…. कल परसों दे दूंगी… अब जो भी सब्जियां है तेरे पास, सब एक-एक किलो तोल दे..!
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यह सारी बात पीछे खड़ी प्रीति, सुन लेती है और वह कहती है… मम्मी जी..! ज़रा अंदर आइए… कुछ काम है…
कमला जी मीना को ठहरने को कहकर अंदर प्रीति के पास चली जाती है…
प्रीति: मम्मी जी…! एक सब्जी वाली से इतना मेल मिलाप अच्छा नहीं… पता है हमारे मोहल्ले में ऐसे ही एक नौकर ने, जो अपने मालिक के यहां पिछले 15 सालों से काम कर रहा था… कुछ पैसों के लिए अपने मालिक को ही मरवा डालता है….
यह गरीब लोग भरोसे के लायक ही नहीं होते… यह अमीर लोगों से मीठी-मीठी बातें करके, उनसे घर का भेद लेते हैं और फिर उनके ही पीठ पर छुरा घोंप देते हैं…
कमला जी हंसते हुए: अरे बहू..! मीना वैसी ना है… पर इसमें तेरी गलती भी नहीं है… ज़माना आजकल भरोसे के लायक है ही नहीं… इसलिए हम अच्छे लोगों पर भी भरोसा नहीं कर पाते… पर बहू..! जहां भगवान है, वहां शैतान भी तो होंगे ही ना..? यह तो हम पर हैं, हम कैसे, कितना और किस पर विश्वास करें..?
प्रीति: मम्मी जी..! यह सब्जी वाली अच्छी ही है, इसका आपको कैसे पता..?
कमला जी: यह बाल मैंने धूप में सफेद नहीं किए हैं बहु…! तजुर्बा भी कोई चीज़ होती है…
प्रीति: पर मुझे इस पर ज़रा सा भी भरोसा नहीं…
कमला जी मुस्कुराते हुए: ठीक है फिर, तुम अपनी अलमारी को लॉक करके रखना…
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प्रीति: पर मम्मी जी..! कल ही तो हम इतनी सारी सब्जियां खरीद कर लाए हैं… तो फिर आज इतनी सब्जियां क्यों लेना..? वैसे भी इसकी सब्जियां महंगी भी है और ताजी भी नहीं… लुट रही है या आपको…
कमला जी: बस यही कारण होता है कि यह लोग लुटेरे बन जाते हैं…!
प्रीति: मतलब मम्मी जी..?
कमला जी: मतलब, यह कि हम लोग हमेशा इनको इनके मेहनत का फल मोल भाव करके देते हैं…. ऊपर से इन्हें ही लुटेरा कहते हैं…. हम कल बाजार जाकर भीड़ में धक्के खाकर, गर्मी और धूल में पस्त होकर, जो सब्जियां ले आए… यह वह घर बैठे ही दे रहे हैं, तो वह बाजार से कुछ तो ज्यादा लेंगे ना..! हां पर हमारे दो पैसे ज्यादा गए, हमें बस वह दिखेंगे, हमें आराम से घर पर ही सब्जी मिल गई.. वह नहीं दिखेंगी…
यह दो पैसे अपने मेहनत के लेते हैं… कौन सा उन पैसों से इनके महल बन जाएंगे..? पर नहीं… हम मोल भाव तो इन गरीबों से ही कर सकते हैं… सुपर मार्केट में ऐसी वाले दुकानों में मोलभाव करने से हमारी बेज्जती होगी… भले ही वह हमें लुटे…. पर हम इन्ही को लुटेरा बताकर इनके मान को आहत जरूर करेंगे…
और फिर एक दिन यह आहत होते होते सच में लुटेरे बन जाएंगे… पर इसमें सिर्फ दोष क्या इनका ही है..? क्या हमारा इन लुटेरों को जन्म देने में कोई हाथ नहीं…?
मैं यह नहीं कहती कि, सभी अच्छे या सभी बुरे हैं… पर इतना जानती हूं कि कभी कोई बुरा पैदा नहीं होता… और बहु सबसे बड़ी बात… हम जैसे, सामने वाला वैसा… हम अगर बुरे के साथ, अच्छे से पेश आएंगे, तो वह हमारा बुरा करने से पहले एक बार के लिए भी जरूर सोचेगा… और जब हम अच्छे के साथ बुरा बर्ताव करेंगे… तो वह तंग आकर एक दिन ना एक दिन हमारा बुरा ज़रूर करने की सोचेगा… इसलिए अपना कर्तव्य निभाते चलो, अच्छा या बुरा जो भी होगा…. देखा जाएगा…
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प्रीति अब खामोश थी… सच ही तो है इतनी गहरी बात, आज तक ना किसी ने कही थी उससे और ना ही किसी ने सोची होगी… आज ऐसे एक घर की बहू बनकर, प्रीति खुद को खुशकिस्मत समझ रही थी… और अब वह भी सबके साथ हमेशा ही अच्छे से पेश आने की ठानती है, फिर चाहे वह कोई भी हो…
धन्यवाद
मौलिक/स्वरचित/अप्रकाशित#मासिक_कहानी_अप्रैल
रचना 3
रोनिता कुंडू