किस्मत से लड़ाई – मनीषा सिंह : Moral Stories in Hindi

“राजस्थान “के ‘जयपुर’ में “रामगढ़” नाम का एक छोटा सा’गांव’ था—। उसी गांव में मदनेश्वर नाम का लड़का अपनी बुढ़ी मां “सरला” और पत्नी “दिव्यांगना” के साथ हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रहा था— । पुरखों की थोड़ी बहुत जमीन थी जिससे उनका गुजारा ठीक-ठाक से हो जाता–।

 अम्मा जी खाना लगाती हूं— रात काफी हो चुका है यह जब आएंगे तब मैं खा लूंगी– आप ना इतनी देर जागो—  !

 “दिव्यांगना सरला जो बेटे की बाट जोहते हुए दरवाजे पर खड़ी थी, से बोली । 

अरे- बिंदनी—-!” क्या करूं– आदत से लाचार हूं जब तक छोड़ा– घर ना आ जाता मुझसे रोटी का एक निवाला भी नहीं घोटा जाएगा– । वो तो ठीक है अम्मा जी— परंतु जीजा सा को वह  छोड़ने पास के गांव गए हैं– घंटे दो घटे तो लग ही जाएंगे–! आप कब तक यहां बैठी रहोगी–? 

मैं हूं ना–! इनके लिए–! हंसते हुए दिव्यांगना बोली ।

 “चल दे दे रोटी—! मेरी तो आदत ही खराब है छोड़ा के साथ ही खाने का— और जब तक उसे देख ना लूं आंखों में नींद कहां–! ठीक है–ठीक है– अम्मा जी–! अभी खा लो जाकर बिस्तर पर लेट जाना जब वो आएंगे तब सो जाना– !दिव्यांगना सरला के हाथ को प्यार से सहलाते हुए बोली सरला भी बहू के प्यार को स्वीकारते हुए सर पर हाथ फेरा और खाना खाने उसके साथ अंदर चली गई । मां को खिला पिलाकर उनका बिस्तर लगाकर सुलाते हुए उनका पैर दबाने लगी और अपने अतीत में खो गई  ।

15 साल की थी जब उसका विवाह हुआ।

” मां-बाप  तो बचपन में ही गुजर गए–! चाचा चाची के छत्रों-छाया में पलने-बढ़ने लगी परंतु चाची– का रूखा व्यवहार देखकर चाचा ने दिव्यांगना की शादी जल्द ही एक जमींदार परिवार में कर दी । देखने में सुंदर तथा  स्वभाव से  चंचल होने की वजह से  दिव्यांगना जल्द ही अपने ससुराल वालों की चहेती बन बैठी  ।

पति मनोहर भी दिव्यांगना से बहुत प्यार करता जैसे उसे कोई खिलौना मिल गया हो—!

परंतु—-

” शादी के 4 महीने ही गुजरे थे कि उस गांव में “प्लेग” जैसी भयानक महामारी फैल गई कितने ही आदमी इस बीमारी की चपेट में आ गए हर तरफ लाश की लाश नजर आने लगी बदकिस्मती से मनोहर भी इस बीमारी की चपेट में आ गया और इस दुनिया को अलविदा कह गया—- । 

बेचारी दिव्यांगना की जिंदगी एक बार फिर से विरान हो गई—-।

वह अब काफी गुमसुम सी रहने लगी— । बच्ची की बिगड़ती स्थिति को देख चाचा “दयाशंकर जी” ने वापस “अपने घर” बुला लिया परंतु चाची के ताने—- “करम जली” कहीं की, कहीं भी खुशियां टिकने नहीं देती जन्म लेते ही मां-बाप को खा गई और अब पति को—! दिन रात मुझे यह डर बना रहता है कि न जाने कब हम लोगों को भी यह निगल जाएगी– । मनहूस कहीं की— ।

 दिन-रात के ताने सुन-सुन कर दिव्यांगना के मन में हीनता की भावना घर कर गई । गांव वाले भी बात बनाने से पीछे नहीं हटते।

 फलस्वरुप दिव्यांगना ने घर से निकलना ही छोड़ दिया सारा दिन अपने आप को एक कमरे में बंद रखती और अपनी किस्मत को कोसा करती– ।

एक दिन दिव्यांगना की चाची के दूर के रिश्ते में बहन का लड़का मदनेश्वर का किसी काम से इस शहर में आना हुआ।

 चाची ने भी अपने बहन-बेटा की इज्जत करने में कोई कमी नहीं छोड़ी– ।

 दिव्यांगना के प्रति रूखा व्यवहार और उस पर कलंकन्नी का आरोप सुनकर उसे काफी दुख पहुंचा– । बहुत ही सोच समझ तथा हिम्मत कर—“एक दिन—” मौसा जी” मुझे आपसे दिव्यांगना के बारे में कुछ बात करनी है—! 

यदि आप इजाजत दे तो—?

 हां बेटा—  बोलो—! 

“अगर आप बुरा ना माने तो ‘मैं दिव्यांगना से शादी करना चाहता हूं—!

 क्या कह रहे हो बेटा—ऽऽऽ—? क्या तुम्हें उसके पिछली जिंदगी के बारे में पता नहीं—?

” जी मौसा जी” मैं सब कुछ जानता हूं इसके बाद ही मैंने ये फैसला किया है मुझे दिव्यांगना बहुत पसंद है—!

  “उसकी हालात पर रहम खाकर नहीं—  बल्कि उसकी कोमल मन और मासूमियता ने मेरे दिल को जीत लिया है—!”

मदनेश्वर की बात सुनकर, दयाशंकर जी के आंखों में खुशी के आंसू निकल पड़े—!

 चाची ने शादी रोकने की बहुत कोशिश की परंतु—” मदनेश्वर ने उनकी एक न सुनी अपनी मां की उपस्थिति में चाचा जी ने दोनों की शादी कर दी और एक बार फिर से दिव्यांगना की आंचल खुशियों से भर गई ।

 अपनी सोच में डूबी ही थी कि— तभी– दरवाजे पर दस्तक सुन उसका ध्यान टूटा।

 लगता है यह आ गए–!

” अरे बहु देख छोरा आया होगा जा जल्दी से दरवाजा खोल दे—! “हां अम्माजी अभी जाती हूं—! “अरे अम्मा तु अब तक सोई नहीं—? मुझे पतो था कि बिना मेरे आए तू सो नहीं पाएगी—! अम्मा के बाल सहलाते हुए मदनेश्वर बोला ।

 बेटे का स्पर्श और प्यार वाली बातें सुनकर बुढ़िया का कलेजा गदगद हो उठा ।

 जा बेटा—! हाथ-मुंह धो कर खाना खा ले— और आराम कर— थक गया होगा मेरा बच्चा—!

हां हां खा लूंगा तू  पहले सो जा–!

 चादर उढाते हुए और मां की पैर दबाते हुए बोला ।

 मां के सोते ही–

” दिव्यांगना तुम भी जल्दी-जल्दी खाना खा लो—!

 क्यों आप नहीं खाओगे—?

 नहीं मैं तो जीजासा के यहां ही खा लिया  ।

खाना-वाना खा, रसोई साफ करके जब दिव्यांगना कमरे में सोने आई तब  मदनेश्वर पेटी खोल कर पासबुक और जमीन की कागज देखने में व्यस्त था दिव्यांगना को देखते ही बोला— ये जमीन की रसीद है जो मैंने मां के इलाज के समय गिरवी रखी थी परंतु  परसों ही मैंने घनश्याम बाबू के यहां से जमीन को  गिरवी मुक्त करवा दिया था सो इसके कागज तथा डाकखाना में  हमारे भविष्य के लिए मैंने कुछ पैसे जमा किए थे वो पासबुक भी इसी पेटी में रखे हैं जितने भी काम के कागज हैं  वो इसी पेटी में रखे हैं । और—!

 और क्या—? यह सब आप मुझे क्यों बता रहे हो—? क्या कहीं जाना है आपको—?

यह सुनते ही मदनेश्वर की आंखें भर आई ।

 नहीं—- चल अब सो जाते हैं— अपना और अम्मा का ध्यान रखना–!

 ध्यान रखना—? आपको कहीं जाना नहीं फिर ये ध्यान रखना क्यों बोल रहे हो—?

 चल पगली सो जा माथे पर एक प्यार वाली थपकी लगाते हुए मदनेश्वर बोला—- ।

 सुबह 5:00 बजे जब दरवाजे की दस्तक सुनकर दिव्यांगना की नींद खुली तो अपने बगल में मदनेश्वर को न पाकर– शायद शौच के लिए गए होंगे—! सोचते हुए दरवाजा खोला  तो  मदन भैया तथा भूषण काका को देख, दिव्यांगना चौक गई।

 बेटा— वो हम तुझे कुछ बताने आए हैं— हिचकिचाते हुए काका बोले ।

  हां काका बोलिए—!

  कल रात लौटते समय सड़क  दुर्घटना में मदनेश्वर की मौत हो गई—- हमें अभी-अभी यह जानकारी मिली है कहते हुए काका फूट फूट कर रोने लगे  अभी उसका पार्थिक शरीर एंबुलेंस से आता ही होगा  ।

 ये सुनते ही दिव्यांगना हंस पड़ी । क्यों काका— आप लोग सुबह-सुबह मुझसे इतना गंदा मजाक करने चले आए ऐसा  मजाक दोबारा मत कीजिएगा– क्योंकि– ये किसी की जिंदगी का सवाल है थोड़ी गुस्से में बोली ।

” रात में ही वह घर आ गए थे । देखिए अभी बुलाती हूं शायद वह शौच के लिए गए होंगे कहते हुए शौच के पास ‘अजी सुनते हो– जल्दी बाहर आओ देखो ये लोग क्या बोल रहे हैं आपके बारे में—! कहते हुए  दिव्यांगना हंस पड़ी कुछ आवाज ना पाकर दरवाजा खोला तो देखा कोई नहीं है सारा कमरा छान मारा ,आवाज सुन अम्मा जी भी जाग गई– आपने देखा अम्मा जी इन्हें—?

 ना बेटा क्यों क्या हुआ—-? भूषण काका वाली बात बताई तो अम्मा बाहर आई तब तक मदनेश्वर की पार्थिक शरीर एंबुलेंस से आ चुकी थी । देखते-देखते गांव वालों की भीड़ उमड़ पड़ी ।

  अब दिव्यांगना को मदनेश्वर तथा उसके बीच हुई घटना और वार्तालाप समझ में आ चुकी थी । उधर अम्मा छाती पीट-पीटकर रोने लगी इधर दिव्यांगना एक बार फिर से भाग्यहीन होने पर अपने आप को कोसते हुए अम्मा को संभालने में लग गई ।

दोस्तों इस कहानी में 80% सच्चाई है जो की राजस्थान के किसी गांव में घटित हो चुकी है अगर आपको मेरी यह कहानी पसंद आई हो तो प्लीज इसे लाइक, शेयर, और कमेंट जरुर कीजिएगा  ।

धन्यवाद ।

मनीषा सिंह

#भाग्यहीन

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