नरोत्तम जी की पत्नी का देहांत हुए 2 साल हो चुके थे…। बेचारी बड़ी धर्म परायणा पतिव्रता स्त्री थी…. समय रहते परलोक भी सिधार गई…. वरना अधिक उम्र तक जीना तो एक अपराध ही है आज की वास्तविकता….।
भरा पूरा परिवार था… दो बेटे, एक बेटी, सब की शादी हो चुकी थी…. सभी दायित्वों का निर्वहन हो जाने के साथ ही साथ…. अपने एक मुख्य दायित्व पति का साथ देना से मुक्ति लेकर…. अनुराधा जी परलोक सिधार गईं….।
दोनों बहुएं घर में कुछ दिन तो किसी तरह निभाती रही… फिर बंटवारे की आग में घर झुलस उठा….।
घर के बंटवारे के बाद बूढ़े नरोत्तम जी का जीवन अत्यंत कठिन हो गया…. सुबह का नाश्ता बड़ी बहू देती तो दिन का खाना छोटी बहू…. रात के खाने के लिए आए दिन तू तू मैं मैं शुरू हो जाती…।
नरोत्तम जी के लिए जीवन नर्क हो गया था…. अनुराधा के रहते कभी एक गिलास पानी भी नहीं उठाया था… चूल्हा जलाना तो दूर की बात है…।
वह कभी यह सोच भी नहीं पाए एक ऐसा भी दिन आएगा जीवन में… जब दो रोटियां की खातिर इस तरह बेटों बहुओं का मुंह देखना पड़ेगा….आखिर एक दिन बहुओं को बुलाकर कह दिया… “देखो, अब से मैं दो ही वक्त खाना खाऊंगा…. रात को छोटी बहू दे देना… और दिन को बड़ी बहू….।”
अब कहीं जाकर थोड़ी शांति हुई…. अनुराधा के रहते सुबह 9:00 बजे तक जो नाश्ता करने की आदत.… आज 40 वर्षों से हो रखी थी… वह भला इतनी जल्दी कैसे छूटती… एक-दो दिन तो किसी तरह कटे…. तीसरे दिन रहा न गया… बाजार से ढेर सारे फल मेवे उठा लाए… सोचा जब मरने के बाद यह पैसा इन नालायकों को ही मिलेगा तो थोड़ा अपने पर क्यों ना खर्च करूं…।
ठाठ से अनार केले काटकर प्लेट में सजा कर खाने बैठे… तो अनुराधा की बात याद आ गई…. कैसे कहा करती थी कि कभी तो फल वल लाया करो… थोड़ी ताकत आएगी… हमारे नसीब में तो केवल दाल रोटी ही लिखी है…. आंखों में आंसू आ गए…. लेकिन वह भी क्या करते…. अपने खाने-पीने पर खर्च करने का कभी ध्यान ही नहीं गया…. बच्चों को कोई कमी ना हो… बस इसी की सोच में जवानी से बुढ़ापे पर पहुंच गए…।
दो-चार दिन ठाठ से फलों का सेवन करने के बाद उन्हें लगने लगा कि उनके फलों की संख्या कुछ अधिक ही तेजी से कम हो रही है…. एक दिन ध्यान दिया तो पता चला…. नन्हा सौरभ दो उठाकर ले गया…. तो उधर से छोटी अपने फ्रॉक की टोकरी बनाकर सभी फल चुन चुन कर जितना उठा सकती थी भर ले गई….।
नरोत्तम जी को पहले तो थोड़ा गुस्सा आया…. फिर सोचा बच्चों की क्या गलती…. अगले दिन से उन्हें भी साथ-साथ खिलाने लगे…. फल फिर भी कम हो जाते….! अब तो दो दिन से ज्यादा टिकते ही नहीं थे…. इतने पैसे तो उनके पास थे नहीं कि वह रोज-रोज फल ला सकें…. आखिर एक दिन वह भी उन्होंने छोड़ दिया….।
सुबह के 11:00 बजे होंगे नरोत्तम जी नहा धोकर बाहर बैठक में बैठे हुए थे…. बहुत जोरों की भूख लग आई थी…।
अचानक उन्हें अपने आप पर बहुत तेज गुस्सा आया…. यह जिंदगी भी कोई जिंदगी है…. जिन बच्चों के लिए पूरी जिंदगी गंवा डाली वही बच्चे आज उनके तीन टाइम के खाने के पीछे लड़ते हैं…! आज ही निकम्मों को घर से बेदखल करूंगा….. चाहे भूखे ही क्यों न रहना पड़े… अकेला रहूंगा…. यह सोचकर घर घुसे ही थे कि पोते पोतियों के खिलखिलाहट में सारा गुस्सा पिघल गया…. क्या कहते…? कैसे अपने ही बच्चों को दर-दर की ठोकर खाने को छोड़ देते…?
वह अपना गमछा कांधे पर डालकर निकल पड़े…. पता नहीं कहां…. चलते-चलते स्टेशन आ गया तो ट्रेन पकड़ ली…. कौन सी ट्रेन थी…? कहां जा रहे थे…? कुछ ना सोचा….!
अचानक जो ट्रेन रुकी तो उन्हें झटका लगा…. अरे घर तो बहुत दूर निकल गया… यह क्या किया…? ऐसी भी क्या नाराजगी…? तीन-चार स्टेशन निकल चुके थे…!
स्टेशन पर उतरकर पता किया तो वापसी की ट्रेन में भी तीन-चार घंटे लगने वाले थे…. भूख से तो बुरा हाल हो रहा था… पास कुछ लेकर भी नहीं निकले थे…. सोचा आज व्रत ही कर लेता हूं… घर पहुंचूंगा तो खाना तो मिलेगा ही…. वहीं एक प्रतीक्षा कुर्सी पर बैठ गए….
थोड़ी देर बाद उनकी नजर एक छः सात साल लगभग की लड़की पर पड़ी… जो अकेली पेड़ के नीचे बैठी हुई थी…. घंटे भर बीत जाने पर भी लड़की वहां से तनिक भी हिली नहीं… वही बैठी रही…उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ कि यह बच्ची ऐसे क्यों बैठी है… इसी तरह घंटे भर और बीत गए…. पास ही एक खोंमचे वाला खड़ा था…. उसकी नजर भी उस लड़की पर गड़ी हुई थी….
नरोत्तम जी खोंमचे वाले को गौर से देखने लगे…. वह बड़ी बुरी नजर से बच्ची को घूर रहा था…. 3 घंटे बीतने को हुए थे…. नरोत्तम जी ने पलट कर देखा… अब लड़की रो रही थी… उसकी आंखों से झड़ झड़ आंसू बह रहे थे…. और वह खोंमचे वाला अब उसके नजदीक बैठा था… नरोत्तम जी को लगा कि कुछ गड़बड़ है… वह उठकर बच्ची के पास गए…. कुछ पूछते उससे पहले ही खोंमचे वाला लड़की का हाथ पकड़ कर बोला…” चलो, घर चलो”… लड़की हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रही थी…. लेकिन हाथ पर पकड़ इतनी मजबूत थी कि वह हाथ छुड़ा नहीं पा रही थी…. वह जोर से रोने लगी… नरोत्तम जी ने पूछा…” क्या हुआ…?”
खोंमचे वाला बोला….” कुछ नहीं जी, मेरी बच्ची है…. आप जाइए…”
बच्ची रोती-रोती बोली…” झूठ बोल रहा है…. गंदा आदमी “…
नरोत्तम जी में पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत आ गई… एक हाथ से खोंमचे वाले को धक्का दे डाला…. और चिल्ला कर बोले…” मेरी पोती है…. तू कौन है रे….?” इतना सुनना था कि वह हड़बड़ा कर भाग खड़ा हुआ… बच्ची ने नरोत्तम जी का हाथ कस के पकड़ लिया… वह लगातार रोती ही जा रही थी…. थोड़ी देर में उसका रोना थमा… तो नरोत्तम जी बोले…” चल गुड़िया कहां है तेरा घर…? छोड़ा आऊं ….!
वह डबडबाई आंखों से उनकी ओर देखकर बोली…” नहीं जाना…”
“क्यों… क्या हुआ…?”
नई मां बोली…” अब वापस मत आना… जाकर मर जा…!
नरोत्तम जी को जैसे झटका लगा…” क्या कहती हो…? ऐसे भी कोई बोलता है…!
लड़की बांह उठाकर, फ्रॉक हटाकर ,अपनी चोट दिखलाने लगी…” देखो यहां मारा, ऐसे मारा, धक्का दिया, बाल नोचे…..!
नरोत्तम जी चिंतित होकर बोले….” तो तू कहां जाएगी…?
“मरने ही तो जा रही थी….! अपने झोले में से निकाल कर दो बिस्कुट के डब्बे उन्हें दिखा कर बोली…” बस यह खा लूं फिर मरूंगी….!
नरोत्तम जी की आंखें और गाल दोनों ही भर्रा आए बोले…” गुड़िया रानी यह किसने दिया…”
“चाचा ने…”
“तो चल… तुझे चाचा के पास पहुंचा दूं…!
“नहीं चाचा ने कहा है…. किसी को बताना नहीं कि मैं तेरा चाचा हूं…. और मेरे घर आना भी नहीं… ले बिस्किट ले और जा….!
मैं बिस्किट खा लुंगी…. फिर ट्रेन आएगी… तो रात को जब सब सो जाएंगे… तो मैं पटरी पर सो रहूंगी….!
नरोत्तम जी आंखें फाड़ कर बोले….” यह किसने कहा…” बच्ची भोलेपन से बोली…” चाची ने कहा कि रात को जब सब सो जाएं…. तब पटरी पर सो जाना…. दिन में सोएगी तो कोई बचा ले जाएगा…. इसलिए तो मैं यहां बैठी हूं….!
नरोत्तम जी क्रोध से तमतमा उठे….” कैसे लोग हैं….? एक छोटी बच्ची को ऐसी सीख देकर… हाथ में बिस्किट पकड़ा कर भेज दिया है….
हे भगवान !उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था…. क्या करें…?
तभी उनकी ट्रेन आ गई…. फिर उठकर जाने को हुए… तो बच्ची ने उनका हाथ पकड़ लिया बोली…” दादू मुझे भी ले चलो ना…. मैं मरना नहीं चाहती….!
नरोत्तम जी का मन रो पड़ा… उन्होंने खींच कर बच्ची को गले से लगा लिया… कहा…” चल !आज से हम दोनों ही अकेले नहीं हैं…!
ट्रेन में बैठकर लड़की ने बिस्किट खोला… एक पैकेट दादू की तरफ बढ़ाकर बोली… “लो दादू …! एक तुम खाओ… एक मैं खाती हूं… तुम्हें भी तो भूख लगी होगी….!
नरोत्तम जी को हंसी आ गई… बिस्किट तोड़कर मुंह में लिया तो लगा… जैसे कोई अपना मिल गया… अब उनका ध्यान रखने वाला भी कोई था अपना…।
अपनों की भीड़ में कोई उतना अपना नहीं था जितना एक अनाथ बच्ची अपनी हो चुकी थी…. इसे किस्मत का खेल नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे….?
नरोत्तम जी को परिस्थितियों से लड़ने का जोश और जज्बा दिलाने के लिए…. एक नई जिम्मेदारी मिल चुकी थी……।
भाग 2
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा
सोनभद्र, उत्तर प्रदेश
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी कहानी ।
Absolutely
Beautiful❤❤❤ lovely story
Bakwaas, ise hatao