“ज्योति से ज्योति जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो। राह में आए जो दीन-दुःखी, सबको गले से लगाते चलो।।” …आज रेडियो से बजते इस गाने का मतलब नहीं समझ पा रही थी अवनि। एक वह दिन था, जब इस गाने ने उसका वजूद बदल दिया था और आज इस गाने को सुनकर वह तय नहीं कर पा रही थी कि उससे गलती कहाँ हुई थी…? मानवता का संदेश फैलाने के लिए उसके द्वारा की गयी प्रेम-सुधा की बारिश तपन घटाने की बजाय कहीं बढ़ा तो नहीं गयी…? ‘नहीं-नहीं अभी तो कुछ दिन पहले ही उसने प्रेम से पड़ोसन सुजाता आंटी का दिल जीत लिया जो उसके इसी नौकर की उद्दंडता के कारण उसे सोसाइटी से निकलवाने की वकालत कर रही थी। आंटी के उबलते क्रोध के लावा को उसने प्रेम की फुहार से ही तो शीतल किया था। आंटी भी उसके व्यवहारकुशलता की मुरीद बन गयी थीं। कहते हैं कि प्रेम में दुनिया को जीतने की ताकत होती है… फिर… यहाँ प्रेम उल्टा क्यों पड़ गया…?
अवनि एकदम से पंद्रह साल पीछे चली गयी। यही तो वह गाना था जिसने अवनि के पूरे जीवन को बदल कर रख दिया था… पंद्रह वर्ष की अवनि। देखने में खूबसूरत तो थी, परंतु साथ ही नकचढ़ी भी उतनी ही थी। उसका अहंकारी व्यवहार कभी-कभी सामनेवाले को अत्यधिक पीड़ा पहुँचा जाता था, पर वह कभी इसकी परवाह नहीं करती थी। शहर में पली-बढ़ी लड़की जब कभी छुट्टियों में गाँव जाती, वैसे वह गाँव को बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थी, परंतु पारिवारिक फंक्शन में नहीं जाने का कोई विकल्प नहीं था उसके पास। वो एक सप्ताह भी उसे अत्यंत ही भारी लगते। स्वयं को विशिष्ट समझकर सबसे अलग-थलग रहती। खासकर घर में काम करने वाले नौकरों से तो दूर-दूर ही रहती। कभी उनके सामने आने पर गुस्से से चीखने-चिल्लाने लगती, क्योंकि उसे उनके कपड़ों से मवेशियों के गोबर की बदबू आती रहती। माँ के लाख समझाने का भी उस पर असर नहीं होता था। एक बार इसी तरह वह गाँव आयी हुई थी।
उस समय तक ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी गाँव वाले घर में भी आ गया था। उस टीवी के सहारे ही वह अपना समय किसी तरह काटती। उस दिन भी अवनि दलान में रखे टीवी में रंगोली कार्यक्रम देख रही थी जिसमें पुरानी फिल्मों के गाने आ रहे थे। घर के बाकी सदस्य अपने-अपने कार्य में लगे हुए थे। घर में चौका-बर्तन करने वाली नौकरानी उस दिन अपने नौ महीने के बच्चे को लेकर आयी थी, जो वहीं दलान में जमीन पर खेल रहा था। किसी ने सब्जी काटकर पहसूल(पुराने जमाने का चाकू) वहीं छोड़ दिया था जिसे उस बच्चे ने खिलौना समझकर उठा लिया था। अवनि की उड़ती नजर तो पड़ी थी उस बच्चे पर, परंतु बच्चे की बहती नाक को देखकर घृणा से मुँह फिरा लिया था उसने। तभी बच्चे की जोरदार चीख सुनकर उसकी माँ दौड़ी आयी तो क्या देखती है कि बच्चे की ऊँगली खून से लथपथ है…।
बच्चे को तो तुरंत गाँव के अस्पताल में ले जाकर मरहम पट्टी करवा दी गयी, परंतु अवनि बुत बनी हुई स्वयं से संघर्ष कर रही थी। वह स्वयं को कोस रही थी कि यदि उसने थोड़ी देर के लिए भी अपनी घृणा को परे रखकर बच्चे के हाथ से पहसूल लेकर दूर रख देती तो वह हादसा टल सकता था। टीवी का वह गाना… “राह में आए जो दीन-दुःखी, सबको गले से लगाते चलो… प्रेम की गंगा बहाते चलो.. उसके अंतर्मन को गहराई से छू गया था। अब उसका हृदय इस तरह परिवर्तित हो चुका था कि अब उसमें गंदगी की बदबू को भी खुशबू में बदलने का भाव जागृत होने लगा। जहाँ कहीं मौके मिलते सबकी सहायता करने को सदा तत्पर रहने लगी। यहाँ तक कि अपना जन्मदिन भी वह अक्सर किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम में जाकर मनाती। तथाकथित वैसे कमजोर वर्गों के लोगों में प्रेमपूर्वक खुशियाँ बाँटने लगी । लोग दुआएँ देते। उसकी माँ तो फूली नहीं समाती थी, बेटी में आए इस परिवर्तन को देखकर। कालेज में भी एक संवेदनशील मददगार छात्रा के रूप में उसकी ख्याति फैल गयी थी। एक बार तो मेट्रो स्टेशन से निकलकर सड़क पर आते समय एक आदमी चलती गाड़ी से टकरा गया।
कई तमाशबीन भी इकट्ठे हो गए थे। कोई विडियो बनाने में मशगुल तो कोई थोड़ी ताक-झाँक के बाद कंधे उचका कर निकल पड़ने को त्पर। परंतु किसी ने कोई आवश्यक कदम नहीं उठाया। अवनि के आँखों के सामने इस तरह की घटना हो, तो वह पीछे कैसे हट सकती थी। तुरंत 108 नंबर पर काॅल कर दिया और एंबुलेंस आने तक उस आदमी को अपने बैग से पानी की बोतल निकालकर पिलाने की कोशिश करती रही। कुछ लोगों ने बिन माँगे सलाह भी देनी चाही… “अरे मैडम! क्यों पुलिस के पचड़े में पड़ रही हो?” अवनि को घर पहुँचने में काफी देर हो गयी थी। उसकी मम्मी का फोन आने लगा। फोन रिसीव कर जब उसने मम्मी को वस्तुस्थिति बतायी तो उसकी मम्मी का भी यही जवाब था… “तुझे क्या पड़ी जो इस झंझट में पड़ रही है। और भी तो लोग होंगे वहाँ पर…? ” माँ की बातों से अवनि हतप्रभ रह गयी।उसने सिर्फ इतना ही कहा, “इस आदमी की जगह मैं भी तो हो सकती थी… क्या तब भी आपका यही जवाब होता?” सही कहा गया है कि किसी को तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक उसका अंतर्मन स्वयं उसे न उकसाए बदलने के लिए। उस दिन अवनि उस गाने को पुनः गुनगुना उठी, जिसने उसकी सोच ही बदल डाली थी… ” राह में आए जो दीन-दुःखी, सबको गले से लगाते रहो… ।”
हालाँकि ऊँच-नीच का भेद संबंधी विचारों में परिवर्तन आया था अवनि के, किंतु इसका मतलब यह कतई नहीं था कि वह सादगीपूर्ण जीवन जीने लगी थी। वह एक फैशनेबल लड़की थी। उसके फैशन में कोई कमी नहीं आयी थी। हाँ इतना अवश्य था कि यदि उसका दिल करता तो किसी भिखारी को महंगे कपड़े देने में भी नहीं हिचकती थी। उसकी सोच थी कि यदि मैं अफोर्ड कर सकती हूँ तो क्यों न उसके मन की इच्छा भी पूरी करूँ? उसका भी तो मन करता होगा माॅल के कपड़े पहनने की…! उसका कहना था कि किसी को वो खुशी दो, जिसकी मिलने की उसे आशा न हो…! इसी तरह जिंदगी हँसते-मुस्कुराते कटने लगी। अवनि की शादी हुई। पति भी उदार विचारों वाला मिला। यूँ ही हँसी-खुशी दो साल बीत गए। अवनि और उसके पति ने एक बड़ा-सा बंगला लिया किराए पर। उसकी देखभाल के लिए एजेंसी से एक केयर-टेकर भी रख लिया। अपनी आदत के मुताबिक उस केयर-टेकर का भी दोनों पति-पत्नी खूब ध्यान रखते। उसकी सभी जरूरतों का ख्याल रखती अवनि। जो भी फर्माइश करता, आनलाइन आर्डर कर देती। कभी कहता, “मैडमजी! मुझे एक लाल रंग का तौलिया मँगा दीजिए, बिल्कुल साहब के जैसा…।” अवनि कुछ सोचती, इससे पहले ही उसका पति बोल उठता… “अगर इसी में इसकी खुशी है तो क्या लगता है,
मँगा दो…” पति के कहने पर वह मँगा दिया करती थी। यहाँ तक कि टी-शर्ट और बरमूडा का रंग भी साहब के कपड़ों से मिलने लगा तो वह नौकर मन-ही-मन स्वयं को साहब की जगह कल्पना करने लगा। इधर उसकी मनोदशा से अनजान दोनों पति-पत्नी उसे खुशी देने के ख्याल से खुश होते रहे। मुश्किल से तीन-चार महीने बीते होंगे कि एक दिन घर में एक मेहमान आया जिसके साथ आए दिन सैर-सपाटा होते रहने से नौकर की तरफ ध्यान कम जाने लगा। हालाँकि वे जब भी बाहर जाते, नौकर को बोल देते कि अपने लिए खाना बना लिया करे। वह इस बात पर जोर देता कि आपलोग बाहर मत खाया करो, सेहत के लिए अच्छा नहीं होता। आपको जो भी चाहिए, घर पर ही बन जाएगा। सभी लोग उसकी काफी तारीफ करते कि कितना केयरिंग है। किसी को अंदाजा नहीं था कि उसके मन में क्या खिचड़ी पक रही है। एक दिन उसने पिज्जा बनाया। सबने ऊँगलियाँ चाटकर खायी और प्रशंसा के पूल भी बाँधे। अवनि ने नौकर से कहा, “आप भी गरम-गरम खा लो, नहीं तो ठंडा होने पर बेस्वाद लगेगा।” “मैडमजी मैं तो नौकर ठहरा, बाद में खा लूँगा।” “अरे! ऐसा क्यों सोचते हैं? हमारे घर में कोई भेदभाव नहीं होता। पिज्जा को क्या पता कि इसे कौन खा रहा है…” अवनि की इस हल्की-फुल्की बात का उसने गलत मतलब निकाल लिया। उसे लगने लगा कि मैडम उसके प्रति आकर्षित हैं। वह पचपन साल का नौकर जिसकी शादी नहीं हो पायी थी, पता नहीं क्या कारण था, जाने कैसा ख्वाब बुनने लगा था। किसी-न-किसी बहाने मैडम के आसपास मँडराने लगा।
यहाँ तक कि साहब की उपेक्षा करने लगा। कभी-कभार तो खुलेआम बोलता कि मुझे मैडम बहुत मानती हैं, मैं मैडम की वजह से ही इस घर में हूँ और केवल उन्हीं का काम करूँगा… मैडम के बिना मैं जी नहीं पाऊँगा… आदि-आदि। अब तो अवनि का माथा ठनका। उसने उसे काम पर से हटा दिया जिस पर उस नौकर ने काफी तमाशा किया कि मर जाएगा, किंतु यहा से नहीं जाएगा। उससे छुटकारा पाने के लिए पुलिस तक बुलानी पड़ी। वह सोचने लगी कि वह तो प्रेम की गंगा बहाने चली थी मानवता के नाते… यह क्या हो गया? उसे अपनी नानी की कहावत याद आ गयी जो वो अक्सर हिदायत स्वरूप कहा करती थी… “ना अति बरखा, ना अति धूप। ना अति बोलता, ना अति चुप।।” तब तो वह न उसका अर्थ समझ पाती थी और न ही समझने की कोशिश करती थी, पर आज अचानक से उसे यह कहावत अपने ऊपर पूरी तरह से फिट बैठती प्रतीत हुई। वह आत्ममंथन करने लगी… ‘उसने सचमुच अतिशयोक्ति तो नहीं कर दी!
जिसकी जो जगह है वो तो कभी बदली नहीं जानी चाहिए। यही सोचते-सोचते एक और बात याद आ गयी, जो उसकी ताईजी कहा करती थीं… ‘पाँव की जूती कितनी भी कीमती हो, वह पाँव में ही पहनी जाएगी, उसे सर पर नहीं बिठाया जा सकता’… आज यह कहावत भी बिल्कुल सटीक लगने लगी उसे। मनुष्य का मस्तिष्क एक बक्से की तरह होता है। लोगों की बातें, उनके विचार, व्यवहार सभी अचेतन रूप से बक्से में इकट्ठे होते जाते हैं और जब-जब जिस प्रकार की आवश्यकता होती है, स्वतः बाहर निकल आते हैं। इसीलिए पुराणों में सद्संगति का बहुत महत्व बताया गया है। बचपन से ही नैतिक शिक्षा की भूमिका बहुत सशक्त होती है किसी भी चरित्र को गढ़ने में। अवनि को अपनी भूल का अहसास तो हुआ ही, साथ ही उसमें उपयुक्त पात्रता की समझ भी अंकुरित होने लगी। रेडियो से बजता गाना… “प्रेम की गंगा बहाते चलो”… जैसे एक सजग चेतावनी-सा प्रतीत हुआ। उसे अपनी चूक समझ में आने लगी कि उससे गलती कहाँ हुई! —
गीता चौबे गूँज
बैंगलोर