किराए का घर – तृप्ति शर्मा

सारा घर पोटली बने हूए सामान से घिरा हुआ था तभी राघव की आवाज़ आई,

“जानवी ओ जानवी समेट लिया घर, बांध लिया सारा सामान तुमने?,”

जानवी सोचती रह गई, “समेट लिया घर”  ये वाक्य उसके दिमाग में बार बार आता जाता रहा। अभी जैसे कल की ही बात हो वह अपने पति और दो नन्हीं बच्चियों के साथ रहने आई थी इस घर में। बढ़ी बेटी कुल पांच वर्ष की, कुछ समझ में आता कुछ समझने की कोशिश में रहती थी वो मासूम, और एक साल की नन्हीं जिसे इस घर की देहली बहुत भाई थी

हमेशा वहीं बैठी वो आने जाने वालों को देख खुश होती रहती थी। जानवी को भी बहुत भा गया था ये घर, हर तरफ़ रौनक ही रौनक, अब तक कितने मकान बदल डाले थे, जानवी और राघव ने। जब तक उस मकान को वो अपना घर बना पाती वो दोबारा मकान बन जाता और जानवी फिर किसी दूसरे मकान को घर बनाने में जुट जाती।

यही तो होता है न किराए के घर में। पर क्या सच में उसमें रहने वालों के लिए किराए का मकान कभी घर नहीं होता क्यूं, क्यूंकि उसका हकदार कोई और होता है? पर जानवी ये सब अब सहन नहीं कर पा रही थी। उम्र, तजूर्बे और भावनाओं के मेल से सजे इस घर में उसने बीस साल बिताए थे।

उसकी पांच साल की नासमझ जिया अब बढ़ी हो गयी थी सब समझती थी जानवी को भी समझा देती थी उसकी नासमझियां भी पल बढ़कर समझदार हो गयी थी इस घर में।


एक साल की नन्हीं दिया का बचपन भी इस घर में कूदते फांदते कब बढ़ा हो गया पता ही नहीं चला। उसके टूटे फूटे शब्द आज भी दिवारों पर अंकित हैं, जो आज भी आभास कराते हैं बचपन की मीठी यादों का। एक दीवार पर मां की ऊंगली थामें जिया

तो दूसरी पर पापा की गोद में दिया, बालसुलभ मन ने कितनी खूबसूरती से सजाई थीं ये दीवारें। उसकी बेटी जिया नन्हें नन्हें कदमों से चारों तरफ़ घूमती रहती थी इस घर में, वो अब ब्याहने लायक हो गयी थी।

इन सबके साथ ही उसके और राघव के बीच स्नेह, झड़प और मनुहारों के कितने ही किस्से भी तो थे इस घर में। अपने जीवन का शुरूआती सफ़र आज रह रह कर याद आ रहा था उसे। कभी न भूलने वाली उसकी तीसरी संतान मिष्ठी की किलकारियाँ और उसके जाने का रूदन भी तो यहीं दफ्न है,

वो असहनीय पीड़ा सांत्वना बन जाती है जब जब उसकी यादें चलचित्र की तरह इस घर के चारों कोनों में चलती हैं। ऐसा महसूस होता है जैसे वो आसपास ही हो। पर अब सब छूट रहा है इस घर की तरह, खुशियों और मायूसियों की मिली जुली छाप भी तो इस घर की दिवारों पर है।

कलेजे से खींचकर बाहर निकाल रहा हो  जैसे कोई सबकुछ। अपनी अल्हड़ता और परिपक्वता तक का सफ़र आज उसकी आंखों से अश्रु बन कर झलक रहा है। राघव की आवाज से वो जीवन के धरातल पर वापिस आ जाती है।

राघव उत्साहित और प्रसन्न हैं क्योंकि उन्होंने अपनी अथक मेहनत से जानवी को मकान से घर देने का वादा जो पूरा कर दिया था आज। राघव को चहकता देख वो फिर एक बार और खुद को समझा लेती है कि अब जो वो घर बसाएगी उसे इस तरह बार बार पोटलियों में नहीं समेटना पड़ेगा। इस घर की यादें तो उसके मन में कैद हैं हमेशा के लिए जब जी चाहे उन्हें जी लेगी फिर से, आश्वस्त कर रही थी जानवी खुद को।

अपनी गीली आंखों को सबसे छुपाती हुई जानवी आखिरी बार घर को निहारती है और जाते जाते सोचती है कि कहीं किसी दीवार पर यादों का कोई बिछौना टंगा हुआ तो नहीं रह गया, क्या इस घर का मोह छूट पाएगा मुझसे। अपना नया घर भी क्या इसी तरह भा जाएगा मुझे।

तृप्ति शर्मा

 

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