जब भी सत्येंद्र दफ्तर में ड्यूटी समाप्त कर साईकिल से डेरे की ओर लौटता तो रास्ते में हमेशा वह सशंकित रहता कि आज न जाने कौन सा लफड़ा हुआ होगा डेरा में। कभी पानी, कभी बिजली, कभी बच्चों के लङाई-झगङे, कभी नाली की सफाई, कभी बाथरूम की गन्दगी… आदि पर अक्सर विवाद होते ही रहते थे क्योंकि उस खपरैल मकान में सभी किरायेदारों के लिए इस प्रकार की बुनियादी सुविधाएं साथ थी, अलग-अलग व्यवस्थाएंँ उपलब्ध नहीं थी।
उस मोहल्ले के लोग आजीज आ गए थे। किरायेदारों में किसी न किसी बात पर महाभारत होता ही रहता था। कभी-कभी तो राहगीरों की टोली उसको देखने के लिए उसके दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी। ऐसी स्थिति में लोग लङाई का आनंद लेते थे, कोई हंँसता था, तो कोई उन पर व्यंग्य-भरी बातें बोलकर उनका मखौल उड़ाता था। टपोरी टाइप के लड़के ताली पीटने से भी बाज नहीं आते थे।
नौकरी लगने के बाद सत्येंद्र डेरे की तलाश में बहुत भटका था, किन्तु हर जगह मकान-मालिकों ने एक ही शर्त रखी कि परिवार साथ रखने पर मिलेगा, बैचलर को नहीं मिलेगा। एक तो नई नौकरी शहर में, उसमें भी तुरंत अपनी पत्नी और बच्चे को बिना समझे बुझे ले आना उसे अनुचित समझ में आता था। जब बहुत प्रयासों के बाद भी डेरा नहीं मिला तो इस मकान में एक खाली कमरा इस शर्त पर मिला कि महीने-दो महीनें के बाद अपना परिवार ले आना है। यह शर्त मकान-मालिक का नहीं था बल्कि वहाँ रहने वाले किरायेदारों का था। मकान-मालिक तो उस मकान में रहता ही नहीं था। उसको सिर्फ किराया से मतलब था।
डेरा क्या था मुसीबतों का गढ़ था। उस खपरैल मकान में समस्याओं और कमियों का भंडार था।
सत्येंद्र किसी कीमत पर अपनी पत्नी प्रमिला और अपने छोटे बच्चे को इस डेरा में नहीं लाना चाहता था। वहांँ के किरायेदार समय-समय पर रखी गई शर्तों को याद दिलाते रहते थे और वह बार-बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया करता था। किन्तु होटल में खाते-खाते उसको जौंडिस(पीलिया) ने धर दबोचा था तब विवश होकर उसने डाॅक्टर के परामर्श का पालन करने के लिए उसने अपनी धर्मपत्नी और छोटे बच्चे को लाना पङा इस प्रत्याशा में कि जल्द से जल्द कोई अच्छा सा डेरा खोजकर उसमें शिफ्ट कर जाएंगे।
प्रमिला मात्र सप्ताह-भर चैन से रही होगी कि उसे तानों उलाहनाओं का सामना करना पङा। कभी बच्चे के मल-मूत्र को नाली में धोने के कारण,कभी पानी के मुद्दे पर। खासकर पानी के कारण आपस में झंझट होते ही रहते थे। डेरा के अन्दर नगरपालिका का मात्र एक नल था जबकि मकान में चार किरायेदारों का परिवार था। किसी को भी यथेष्ट मात्रा में पानी नहीं मिलता था। निश्चित समय पर नल में पानी आते ही आपा-धापी मच जाती थी, कोई बहुत पानी ले लेता था तो किसी को चौंका-चूल्हा के काम भर भी पानी नसीब नहीं होता था। कितने बार लोगों ने नियम बनाए किन्तु कोई नियम अधिक दिनों तक नहीं चल पाता था।
सत्येंद्र को इस डेरा में बच्चों का भविष्य भी अनिश्चित और अंधकारमय दिखने लगा। यहांँ रहकर न तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई चल सकती थी और न स्वयं ही शांतिपूर्वक जीवन-यापन कर सकता था।
लाख लङाई-झगङे हों लेकिन जो भटकते हुए इंसान को जो सहारा देता है, उससे लगाव हो ही जाता है चाहे आदमी हो या मकान। उससे आत्मीयता हो ही जाती है। जीवन के ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभवों को हासिल किया था यहांँ। उस डेरा को छोड़ते हुए उसकी आँखें भर आई जब झगड़ालु प्रकृति के मर्दों और औरतों ने कहा कि कम पढ़े लिखे उनलोगों से जाने-अनजाने कोई गलती हो गई होगी तो माफ कर देंगे।विदाई वक्त उनलोगों की आंँखों में भी आंँसू थे। उनलोगों के बर्ताव से सत्येंद्र को घोर आश्चर्य हो रहा था। उसने महसूस किया कि दिल से वेलोग उतने खराब नहीं थे जितना उसने समझ लिया था। शायद संसाधनो की कमियों और सुविधाओं के घोर अभाव ही आपसी मनमुटाव की जड़ थी।
डेरा छोड़ने के पहले दो-चार किराये के मकान को देखा था, जिसमें एक को पति-पत्नी ने पसंद किया था। उसका मकान मालिक कानून का पुलिंदा था। उसने एक किरायानामा के फाॅर्म पर हस्ताक्षर करवाया, जिसमें अनेक शर्तों का उल्लेख था। किराया भी अधिक था। इसके साथ ही बिजली का खर्च भी वहन करना था। उसी वक्त सत्येंद्र और प्रमिला ने निर्णय ले लिया कि खर्चों में कटौती करके बचत की गई धनराशि से थोड़ी सी जमीन ली जाएगी।
आठ-दस वर्ष व्यतीत होते-होते तीन बाल-बच्चों के पिता होने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उतने वर्षों के बाद सरकारी नियमानुसार वेतन में वृद्धि भी हुई। बचत से जमीन खरीदने भर पैसे जमा हो गए। फिर दौर शुरू हुआ जमीन ढूढ़ने की। रविवार और छुट्टियों के दिनों में अपने शुभचिंतकों और जमीन के दलालों से इस मुद्दे पर वह बातें करता। दो सालों तक दौड़-धूप करने के बाद अपनी हैसियत के अनुसार एक जमीन पसंद आई जिसको उसने रजिस्ट्री करवा ली।
बच्चे बड़े होने लगे। विद्यालय में उनका नामांकन करवाया। उनकी पढ़ाई शुरू हो गई।
जिम्मेवारी मनुष्य के आलस्य और लापरवाही को दूर कर उसमें ऊर्जा का संचार करती है। कुछ इसी तरह की बातें सत्येंद्र और प्रमिला के साथ भी लागू हुई। अपने बच्चों के भविष्य के निर्माण के लिए अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित हो गए।
पति-पत्नी प्रतिदन सबेरे तड़के उठते और अपने-अपने कामों में जुट जाते। प्रमिला घरेलू कामों को निपटाती, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती। सत्येंद्र बच्चों को स्कूल पहुंँचाता। वहांँ से लौटने के बाद दफ्तर जाने की तैयारी में लग जाता। बच्चों के स्कूल जाने के बाद प्रमिला घर के शेष कामों कपड़े धोना, बर्तन मांजना घर की साफ-सफाई… आदि करती। सत्येंद के दफ्तर जाने के बाद ही उसे चैन मिलता। घंटे-दो घंटे के लिए उसे राहत मिलती। वह नास्ता करती उसके बाद किचन के काम में लग जाती। फिर शाम से दस-ग्यारह बजे तक बच्चों की पढ़ाई-लिखाई करवाना, भोजन बनाना, फिर सबको भोजन करवाने के उपरांत स्वयं भोजन करके ग्यारह बजे तक बिस्तर पर जाती थी।
यह दिनचर्या एक-दो दिन नहीं दशकों तक चलता रहा इस बीच कितने विवादों और बाधाओं की आंँधियांँ आई, जिन्दगी में कितने तूफ़ान आये, उन सबसे उनको जूझना पङा। गांव में रह रहे बुजुर्ग माता-पिता, भाइयों और बंधुओं को अपनी शक्ति के अनुसार आर्थिक सहायता भी कइ बार मुहैया कराना पड़ा। बहनों की शादियों में भी सहयोग करने के मौके मिले। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में भी काफी धन का व्यय होता था, फिर भी अपनी ख्वाहिशों की बलि देकर, त्याग कर, सामान्य जीवन जीकर उसने कुछ धन-राशि की बचत की जिससे एक छोटा सा मकान खरीदी गई जमीन पर उसने बनाया।
अपना घर बनाने के बाद उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उसके मेहनतों और संघर्षों का उपरवाले ने इनाम दे दिया है। उसकी जिन्दगी एक शानदार मुकाम पर पहुंँच गई है। इससे उसे काफी संतुष्टि मिली। उसका स्वाभिमान गर्दिशों के थपेड़ों से जो सुषुप्त अवस्था में पहुंँच गया था, वह जाग उठा। लोग-बाग उसको शहर में जानने लगे।
उसके दोनों लड़के अभिषेक और आदर्श, पुत्री नीरू पढ़ाई के क्षेत्र में सफलता हासिल कर रहे थे।
बड़ा पुत्र अभिषेक एम. ए. करने के बाद सर्विस करने लगा था। आदर्श फाइनल इयर में पढ़ रहा था, जबकि नीरू इंटर में पढ़ रही थी।
जिन्दगी के इस सफर में बुढ़ापा आहिस्ता-आहिस्ता उनकी ओर कदम बढ़ाने लगा था। पति-पत्नी के बाल सफेद होने लगे।
जिन्दगी की इतनी लम्बी दूरी तय करने के क्रम में कितनी बार प्रमिला ने सत्येंद्र को परिभ्रमण करवाने के लिए कहा था लेकिन चाहते हुए भी वह उसकी इच्छा पूरी नहीं कर सका था हर बार कोई न कोई काम या बखेड़ा उसके सामने उपस्थित हो जाता था, कभी दफ्तर का तो कभी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की तो कभी रुपये-पैसे का।
नौकरी भी कुछ साल ही बची थी, जिसमें जिन्दगी का अत्यधिक जरूरी कार्य संपन्न करना बाकी था। वह कार्य था दोनों लड़कों और लड़की की शादी का मांगलिक कार्य।
सेवानिवृत्त होने के वर्ष-भर पहले तक आदर्श को भी बैंक में नौकरी लग गई थी। दोनों पुत्रों और नीरू की भी शादी संपन्न हो गई। पति-पत्नी को महसूस हुआ कि उसके सिर पर जो महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी वह पूरी हो गई।
जिन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा गुजर गया। इस बीच उनलोगों ने अपनी ख्वाहिशों का कई बार दमन किया। अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं का गला घोंटा उसकी गणना करना अब उन्हें अर्थहीन लगने लगा। कितनी बार सत्येंद्र ने सोचा था कि एक सूट सिलवा ले, कीमती चमचमाते नये जूते पहनें, गले में टाई बांधे, एक बाइक खरीद ले लेकिन ऐसा वह कुछ भी नहीं कर सका जब तक उसने नौकरी की साईकिल से ही ड्यूटी पर वह हमेशा गया एक साधारण सर्ट-पैंट पहनकर। उसकी भी तमन्ना थी कि देश के बड़े-बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलोर… आदि शहरों के ऐतिहासिक स्थलों का परिभ्रमण करे, वहांँ के मंहगे होटलों में लजीज व्यंजनों का आनंद ले, समुद्र के तटों पर सूर्योदय और सूर्यास्त के प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन करे, लेकिन जब भी कोई प्रोग्राम बनता, बाधा उपस्थित हो जाती थी, कभी पढ़ाई के मद में खर्च की, कभी मकान निर्माण की , कभी शादी-विवाह के कारण व्यय की। तब उसने सोचा कि सेवानिवृत्त होने के बाद समय ही समय होगा और पैसे भी होंगे।
निश्चित तिथि पर सत्येंद्र सेवानिवृत्त हो गया।
उस दिन सत्येंद्र ने प्रमिला को कहा कि अगले रविवार को दिल्ली,आगरा मुंबई,गोवा… आदि शहरों के परिभ्रमण पर निकलेंगे, अभी एक हप्ता समय है तैयारियाँ शुरू कर दो। कल वह टिकट कटवाकर ले आएगा। पर्यटन पर जाने की बातें सुनकर प्रमिला का मन-मयूर खुशी से नाच उठा। तैयारी में वह जुट गई।
रात में जब सत्येंद्र, प्रमिला के साथ अपने कमरे में बैठकर बात-चीत कर रहे थे कि अभिषेक कमरे के दरवाजे के पास आकर ठिठक गया।
सत्येंद्र ने कहा, ” क्या बात है अभिषेक!… अंदर आओ, उदास दिख रहे हो?”
वह कमरे के अंदर आकर खड़ा हो गया। कुछ पल तक मौन रहने के बाद संकोच के साथ उसने कहा, ” पापा!… वसु का शहर के सबसे अच्छे स्कूल में नामांकन के लिए चयन हो गया है”
” यह तो बहुत खुशी की बात है बेटा!… जो हमलोग नहीं कर सके उसको तुम कर रहे हो” प्रमिला ने कहा।
उसकी बातों का सत्येंद्र ने भी समर्थन किया।
फिर अभिषेक मौन होकर अपने पिताजी का चेहरा देखने लगा।
सत्येंद्र ने कहा,” क्या बात है?… कौन सी बाधा है?… जिसके कारण तुम चिंतित हो। “
” पापा!… नामांकन करवाने में बहुत रुपये लग रहे हैं, मेरे पास उतने रुपये नहीं है, नौकरी भी नई है।”
कुछ क्षण तक सन्नाटा छाया रहा। सत्येंद्र कुछ पल तक प्रमिला का चेहरा देखता रहा फिर उसने कहा,” कितने रुपये देने से काम हो जाएगा। “
” कम से कम साठ हजार रुपये और कुछ खर्च आएगा उसकी व्यवस्था हम कर लेंगे। “
” ठीक है, चिन्ता मत करो!… चेक मैं लिख देता हूँ, मेरे खाते में इतने रुपये होंगे। सुबह चेक ले लेना।”
पति-पत्नी की सारी खुशियाँ काफूर हो गई।
सत्येंद्र ने प्रमिला को आशांवित करते हुए कहा,” परिभ्रमण से ज्यादा जरूरी है पोते का शिक्षित होना। हमलोग दो माह के बाद पर्यटन पर निकलेंगे।
अभिषेक आश्वस्त होकर चला गया।
“हमलोगों की यही जिन्दगी है।… चार-पाँच वर्षों के बाद शरीर की शक्ति भी खत्म हो जाएगी, पर्यटन पर जाने के लाइक भी नहीं रहेंगे। “
” ऐसा क्यों कहती हो प्रमिला?”
“ऐसे ही प्रोग्राम टलते रहे तो एक दिन परलोक के परिभ्रमण पर अवश्य निकल पड़ेंगे।”
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
#ज़िंदगी
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)