भावना बेतहाशा निर्जन, जंगलों, पहाड़ों की ओर दौड़ी चली जा रही थी रोती-कलपती हुई। उसकी आंँखों के आगे बलात्कारी का वीभत्स चेहरा अभी भी घूम रहा था। उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था, बस उसके जेहन में एक ही बात चक्कर काट रही थी कि वह अपने को मिटा देगी। कालिख लगे हुए चेहरे को लेकर वह घर नहीं जा सकती है। अपने माता-पिता की बेइज्जती से अच्छा है अपने को विनष्ट कर देना। जब उसकी इज्जत ही लुट गई तो वह जीकर क्या करेगी?… उसके दिल में अथाह दर्द और पीड़ा तो थी ही किन्तु पथरीली मार्ग पर दौड़ने के कारण उसके पैर भी घायल हो गए थे उसकी परवाह किए बिना ही वह सुनसान स्थान में स्थित पहाड़ पर वह चढ़ने लगी।
भावना के पिताजी प्राइवेट कंपनी में साधारण मुलाजिम थे। उसकी माँ पार्वती गृहणी थी। उसकी दो बहनें और भाई हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। पिता हरिप्रकाश अपने सीमित वेतन में मुश्किल से घर-गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे थे, लेकिन अपने पुत्र और पुत्रियों को पढ़ाने में जरा भी कोताही नहीं बर्तते थे। भावना उसकी सबसे बड़ी लड़की थी। हाल ही में इंटर पास करने के बाद स्नातक में नामांकन करवाकर वह नियमित काॅलेज में क्लास कर रही थी।
उसके पिताजी को वेतन के अलावा आमदनी का कोई अतिरिक्त जरिया भी नहीं था। उसका विचार था कि उसके जैसे गरीब के बच्चे शिक्षा की बदौलत ही तरक्की कर सकते हैं क्योंकि व्यवसाय करने के लिए पूंँजी चाहिए जो उसके वश के बाहर की बात थी। इसी सोच को ध्यान में रखकर वह जीवन में संघर्ष कर रहा था, लेकिन समाज में छिपे हुए राक्षस भी हैं जो ऐसे सामान्य लोगों को उनके लक्ष्य को प्राप्त करने के रास्ते में बाधाएं उपस्थित करते हैं, उनके सपनों को चकनाचूर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। ऐसे दानव जब तक अपना वेश बदलकर घूमते रहेंगे तब तक न तो बहू-बेटियों की इज्जत सुरक्षित है और न सज्जन लोगों की मान-मर्यादा।
ऐसे ही दरिंदों के हवस की शिकार हो गई, जब वह काॅलेज से क्लास करके लौट रही थी अपनी तीन सहेलियों के साथ। जब उसकी दोनों सहेलियाँ अपने-अपने घर चली गई तो वह अकेली पड़ गई। उसका घर लगभग कस्बे के अंतिम छोर पर था। काॅलेज की दूरी उसके घर से दो-तीन किलोमीटर थी। रास्ते का कुछ हिस्सा एकांत, सुनसान और लम्बी-लम्बी झाड़ियों से परिपूर्ण था।
उसी एकांत व निर्जन स्थान का फायदा उठाकर उस कस्बे के दबंग का आवारा और रंगदार बेटा नीलकंठ अपने एक साथी के साथ बाइक से आया और उसके साथ जबरन बलात्कार किया। उसने भावना को अपने चंगुल से मुक्त करते हुए अंत में चेतावनी दी थी, “उसका नाम नीलकंठ है याद रखना, किसी के सामने मुंँह खोलेगी तो वह उसके पूरे परिवार के लोगों को गोलियों से भूंज देगा…”
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इस घटना के बाद वह घर नहीं जाकर अपनी जिंदगी को मौत के हवाले करने की नीयत से दौड़ पड़ी उस जंगली इलाके में स्थित पहाड़ की ओर। उसकी कानों में हमेशा गूंँज रही थी,
” नीलकण्ठ नाम है मेरा….. परिवार को गोलियों से भूंज दूंँगा। “
पहाड़ की चढ़ाइयों पर वह आवेश में चढ़ती जा रही थी। पहाड़ पर उगी हुई नासूर की तरह झाड़ियों से उसका बदन जहाँ-तहाँ छिल रहा था। उस पर बिना ध्यान दिये हुए वह आगे बढ़ती जा रही थी। उसका उद्देश्य मात्र पहाड़ की चोटी पर पहुंँचना था। कुछ समय तक चढ़ाई चढ़ने के बाद उसे चोटी दिखलाई पड़ने लगी थी।जहाँ उसकी जिन्दगी का अन्तिम पड़ाव बनने वाला था।
उस पड़ाव पर पहुंँचने के पहले ही अचानक एक बलिष्ठ युवक जो पर्वतारोही की पोशाक में था, उसके सामने आकर खड़ा हो गया उसका रास्ता रोककर। रोती-कलपती वह भी ठिठक कर खड़ी हो गई। उसने रास्ता से उसे हट जाने के लिए कहा। दो-तीन बार कहने के बावजूद भी जब वह नहीं हटा तो भावना ने चीखकर कहा, “तुम मेरे सामने से हट जाओ मुझे आगे जाने दो!…”
“क्या बात है?… बोलिए तो सही, आगे इस खतरनाक दुर्गम पहाड़ की चोटी पर क्यों जाना चाहती हैं।”
“क्यों बताऊंँ, क्या करूंँगी? आप कौन होते हैं मेरे, मैं आगे जाकर मरूंँ या जीऊंँ इससे आपको क्या मतलब है?… कुछ करने की क्षमता है आपमें? “
कुछ क्षण तक सन्नाटा छाया रहा। वास्तव में वह युवक धर्मवीर एक पर्वतारोही दल का सदस्य था। जिसका घर उसी इलाके में था। वह अक्सर इस पहाड़ पर अभ्यास किया करता था। उसे समझ में आ गया था कि इसके साथ कोई हादसा हुआ है। इसे नहीं रोकने पर कुछ भी हो सकता है।… उसके सामने एक गंभीर चुनौती थी।
कुछ पल के बाद भावना ने ही कहा,” मुझे आप क्यों रोकना चाहते हैं? हटिये मेरे सामने से, इस धरती पर अब मैं किसी को मुंँह दिखाने लाइक नहीं रही। मेरा क्या कसूर था, मैंने उसका क्या बिगाड़ा था?… मेरी इज्जत लूट ली। मुझे बर्बाद कर दिया, मैं जीकर क्या करूँगी।… मुझे मत रोकिए मैं चोटी पर से छलांग लगाकर जान दे दूंँगी, एक नरपिचाश ने मेरे जीवन पर दाग लगा दिया, ऐसी जिन्दगी किस काम की “कहते-कहते वह रोने लगी।
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उसके दिल में उसके प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी। उसने उसको एक समतल चट्टान पर बैठाया। उसकी आंँखों के आंँसूओं को पोंछते हुए कहा,” आप खुदकुशी करने का विचार त्याग दें। आप आज भी उतना ही पवित्र हैं जितना पहले थी। गुनाहगार आप नहीं बलात्कारी है, दंड उसको मिलना चाहिए और आप स्वयं को दंडित करना चाहती हैं। यह कहांँ की अंधेरगर्दी है। सोचिये जरा!… चोरी कहीं होती है तो चोर दोषी होगा या जिसकी चोरी गई है वह होगा। स्पष्ट है चोर दोषी होगा।”
उसने अपने बैग से पानी का बोतल निकाल कर पानी पिलाया। झाड़ियों और पथरीली रास्तों के कारण पैरों और शरीर के अन्य हिस्से छिल गये थे, उसका उपचार फर्स्ट ऐड बाॅक्स से किया।
भावना ने रोना बन्द कर दिया था।
धर्मवीर ने आगे कहा,” बलात्कार से पीड़ित लड़कियाँ आत्महत्या करती हैं तो अपराध को बढ़ावा मिलेगा क्योंकि अपराधी प्रमाण के अभाव में छूट जाएंगे। क्योंकि पीड़िता खुद मुख्य और प्रभावशाली गवाह होती है।”
“अब मैं क्या करूँ?… कैसे कालिख लगे चेहरे को लेकर घर जांँएं।”
“आप हीन भावना मत पालिए। आपकी आत्मा पवित्र है, आपकी भावना पवित्र है। इसलिए आपको कहीं कोई दिक्कत नहीं होगी। और फिर घर जाने कीभी बात अभी नहीं है। उस दरिंदे को सबक सिखाने के लिए पहले हमलोगों को फैसला लेना होगा कि पीड़िता खुदकुशी करेगी या कानूनी जंग लड़ेगी उसके विरोध में। “
” मैं तो कानूनी जंग लड़ने के पक्ष में हूँ, किन्तु जब उस भयानक दरिंदे से किसी को बातें करने तक की हिम्मत नहीं है तो मुझे कौन मदद करेगा उसको कैसे सजा होगी? “
” एक पर्वतारोही के पास डर जैसी कोई बात नही होती है। खतरों से खेलना ही उसका पेशा होता है। उसमें बड़े से बड़े जोखिम उठाने की क्षमता होती है। मैं समझूँगा कि यह भी मेरे लिए एक चुनौती है, जिसमें लड़कर मुझे सफलता हासिल करना है।… घबराओ नहीं भावना मैं हर तरह से तुम्हारे साथ हैं। “
” आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए कि अब मैं क्या करूंँ? हमलोग कौन कदम उठाएं। “
” हमलोग सीधे यहांँ से पुलिस स्टेशन चलेंगे, उस दरिंदे के खिलाफ एफ. आई. आर. करेंगे। उस पर मुकदमा चलेगा, मैं गवाही दूँगा, घटना-स्थल के इर्द-गिर्द गवाह की तलाश करेंगे। वह जेल की सीखचों में बन्द होगा। उसको सजा दिलाएंगे। उसे जेल में सड़ाकर बता देंगे कि गुनाहगार का चेहरा काला होता है। तुम्हारा नहीं। “
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भावना और धर्मवीर पुलिस-स्टेशन चलने के लिए पहाड़ पर से नीचे उतरने लगे यह कहते हुए कि तुम्हारे पापा को वह मोबाइल से खबर करके थाने में ही बुला लेगा। नीचे मेरा बाइक रखा हुआ है, उसी से हम दोनों निकल जाएंगे।
मासिक कहानी प्रतियोगिता
तीसरी कहानी
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)