खुदगर्ज – संध्या त्रिपाठी: Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  :  क्या बात है सुनिधि जी.. कुछ परेशान लग रहीं हैं…… हाँ निखिल जी ..कल मैंने बेटे बहू की आपस की कुछ बातें सुन ली थी …… दिव्य बहू से कह रहा था.. मैंने पहले ही बोला था मां बाबूजी को साफ-साफ बता दो.. हम दूसरे शहर में शिफ्ट होंगे पर तुम्हें तो आदर्श बहू बनना था ना…. और मुझे भी बताने से ये बोलकर मना कर रखा था कि जब का तब देखा जाएगा…!

सच में निखिल…क्या बेटा बहू हमें छोड़कर चले जाएंगे… मैं कितना ध्यान रखती हूं इन लोगों का….. इन्हें यहां किसी बात की कमी या परेशानी ना हो…. पर आजकल कौन सास ससुर के साथ रहना चाहता है ….. जब दिव्य खुद ही हमसे दूर जाना चाहता है तो फिर किसी को क्या दोष देना…।

निखिल मैं दिव्य के लिए इतना करती हूं तो वो भी तो मेरी बीमारियों का बराबर ख्याल रखता है और सच बताऊँ मन में ये संतोष रहता है कि… विपरीत परिस्थितियों में बेटा बहू तो साथ में है ना ……शायद इसीलिए मैं भी इतनी आजाद ख्याल और उदार चरित्र की बन गई हूं ताकि मेरी कोई भी गतिविधि बच्चों को मुझ से दूर ना कर सके …।

तो अब मान लीजिए सुनिधि जी …”आप खुदगर्ज हो गई हैं ” और सबसे बड़ी बात आपने अपने चारों तरफ गलतफहमी की दीवार खड़ी कर रखी है…… मैं इतना करती हूं…. मैं ये ..मैं वो .. अरे कभी सोचा है बच्चों को ये सब चाहिए भी या नहीं….. आप दिव्य के बचपन और तोते वाली बात भूल गईं क्या..? तोते का नाम सुनते ही सुनिधि अतीत की स्मृतियों में खो गई…..

बरामदे में रखे ड्रेसिंग टेबल के शीशे में रोज खुट खुट चोंच मारकर आवाज करती थी गौरैया…… शीशे में दाग ना पड़े सुनिधि एक कपड़े से ढक देती थी ….आज तो कुछ ज्यादा ही आवाज आ रही है धीरे से जाकर देखा एक तोता वहां पर बैठा है… सुनिधि के मन में तोते के प्रति प्यार व पालने की लालसा ने उसे कैद करने की सोची….. और धीरे से दरवाजा बंद कर दिया….. फिर पिंजरा मंगवा कर उसे कैद कर बेटे की भाँति उसकी देखरेख की……! उस समय दिव्य की उम्र महज 9 साल की ही तो थी ……कितनी बातें करता था दिव्य उससे….बिल्कुल एक परिवार के सदस्य की तरह…..। दिव्य कभी कभी पूछा भी करता था मां इसे पिंजरे में क्यों कैद कर रखा है …..? सुनिधि प्यार से समझाती बेटा ये उड़ जाएगा फिर इसकी देखभाल कौन करेगा…? दाना पानी कौन देगा….. पर नन्हे दिव्य को मां की बातें कुछ ज्यादा समझ में नहीं आई …!

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सुनो न: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

एक दिन सुनिधि जैसे ही खाना डालने गई देखा पिंजरे का दरवाजा खुला….. तोता गायब …..सुनिधि जोर से आवाज लगाई.. दिव्य….. डरा सहमा दिव्य सामने खड़ा था…. सुनिधि के हजारों प्रश्न का बस एक ही जवाब……

वो आकाश में उड़ना चाहता था मां और मैंने उसे कैद से मुक्त कर आजाद कर दिया…… दिव्य की भावना समझ सुनिधि ने उसे गले से लगा लिया था..।

फिर क्यों आज दिव्य की भावना समझने में तकलीफ हो रही है दिव्य के लिए ये पिंजरा क्यों नहीं खोला जा रहा है ……वो भी तो खुले आसमान में उड़ान भरना चाहता होगा

कहीं कर्तव्य फर्ज का जामा पहनाकर उसे बंधुआ तो नहीं बना रही….? कहीं मेरी स्वार्थता प्यार रूपी कैंची उसके पर तो नहीं काट रहे हैं ना….. नहीं नहीं दूर रहकर भी फर्ज निभाये जा सकते हैं….. बस निभाने की भावना होनी चाहिए…… निखिल ने ठीक ही तो कहा…. मैं “खुदगर्ज ” तो नहीं हो रही…।

बेटा ये मेरी अटैची भी रख ले ….आज बच्चों को उड़ान भरने के लिए उसकी मां मंजिल तक पहुंचाएगी…! मैं भी तेरी ताकत बनना चाहती हूं कमजोरी नहीं….!

मैं भी देख कर खुश होना चाहती हूं कि… मुझसे भी अच्छे और समझदारी से घर गृहस्थी मेरे बच्चे चला रहे हैं

और सबसे बड़ी बात मैं ही सर्वोपरि हूं मेरे चलते ही घर सुचारू रूप से चल रहा है जैसे भ्रामक मिथ्या से निकलना चाहती हूं…..!

और सच मानो बेटा… जब मां बाप से बच्चे आगे निकलते हैं ना तो सबसे ज्यादा खुशी मां बाप को ही होती है..!

मुस्कुराते हुए पास खड़े निखिल ने बच्चों के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया…।

साथियों मेरी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें…!

श्रीमती संध्या त्रिपाठी

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