राणा बचपन से मास्टरजी की बहुत इज्जत करता था, उसके पापा के दोस्त होने के कारण कई बार घर आकर गणित हल कराते थे। उन्ही के कारण वह गणित जैसे कठिन विषय मे पास हो पाता था।
दसवीं बोर्ड पास करके ग्रेजुएशन करने के बाद मजबूरन बाबूजी की दुकान चला रहा था। क्योंकि पढ़ाई के कुछ दिनों बाद ही उसके पापा एक जानलेवा बीमारी में स्वर्ग सिधार गए। घर के पास ही मास्टरजी का घर था पर व्यस्तता के कारण मिलना नहीं होता था।
उसकी मम्मी भी गठिया के रोग से ग्रस्त ज्यादातर बिस्तर पर ही रहने लगी। कई बार कहती, “बेटा कोई पसंद की लड़की हो तो बता न मैं स्वयं तेरी पसंद की ही बहू लाना चाहती हूं।”
पर मैंने सिर्फ न में सिर हिला दिया। वह भी ज्यादा कुछ नही कर पायी, मैं काम मे और उनकी देखभाल में व्यस्त हो गया।
पांच वर्ष पहले उसकी मम्मी भी उसको छोड़ गई।
राणा भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। एकाएक उसे ध्यान आया, कई दिन हो गए, मास्टरजी नहीं दिखे, पहले
रोज सुबह घूमते हुए मास्टरजी दिख जाते थे, पर अब दर्शन ही नहीं हो रहे। अचानक शाम को समय निकालकर उनके घर पहुँच गया।
पता चला बहुत बीमार है, नौकरानी आकर सब काम कर जाती है। दस दिन से बुखार से ग्रस्त हैं। पता नहीं क्यों उसे लगा, ये ज्यादा दिन नही रहेंगे। उनके पास बैठकर पूछा, “विदेश में जो बेटा है, उसका पता दीजिये, तबियत देखने बुला दूं।”
“नहीं राणा, ऐसा करो, वाराणसी में मेरा एक भाई रहता है, मुझसे दो वर्ष छोटा है, उसको बुला दो, मिलने का बहुत मन कर रहा।”
और तीन दिन बाद ही मास्टरजी के भाई शिवनारायण जी आ गए।
उनके साथ मास्टरजी पुरानी गपशप भी करते रहे, थोड़ा खुश रहते थे, एकाएक दो दिन बाद रात को सोये तो सबेरे उठे ही नहीं, माहौल गमगीन हो चुका था।
राणा जानता था, मास्टरजी के परिवार में यहां कोई नही है, पत्नी स्वर्ग सिधार गयी और एक बेटा विदेश में है, जो अपने मे मस्त है। अब सब क्रिया कर्म उसने ही किया।
शिवनारायण अंकल भी अपने बड़े भाई के निधन से बहुत परेशान थे। एक बात और थी पता नही क्यों उनका हाथ पकड़ते ही, उसे लगा कोई अपना सा है। फिर ध्यान से चेहरा देखा तो महसूस हुआ,
शायद बुढ़ापे में मैं बिल्कुल ऐसा ही नजर आऊंगा,और जल्दी से उसे कुछ दिन पहले कि स्वर्गीय मम्मी की डायरी याद आ गयी। नाम शिव का उसमे जिक्र था, एक फोटो भी थी, देखा, पहचान गया।
विचारो में खो गया था, माँ तो ईश्वर को प्यारी हो गयी, देहरादून के एक स्कूल में वो टीचर थी, वहीं कोई एक टीचर शिवनारायण साथ मे कार्यरत थे, दोनो को कोई घर किराए पर नही मिल रहा था,
लोग कुंवारा या कुंवारी को घर नही देना चाहते थे। एक दिन स्कूल में दोनो ने सलाह मशवरा किया, दो कमरे का घर लेते हैं, काम निकालने के लिए थोड़ा सा झूठ बोल देंगे तभी काम बनेगा।
दोनो दोस्त बनकर तीन साल रहे, समय के साथ कब दोस्ती प्यार में बदली पता नही चला। कुछ अप्रत्याशित ऐसा माहौल पैदा हुआ कि उन दोनों ने परिवार में शादी की आज्ञा लेनी चाही,
पर शिवनारायण के ब्राह्मण माँ, पिताजी ने #खानदान_की_इज्जत का हवाला देकर मना किया और उनको वाराणसी बुला लिया। उसके बाद दोनो कभी नही मिले।
राणा को डायरी की एक एक बात याद आने लगी। उसने पूछा, “अंकल, आपके परिवार में कौन कौन हैं?”
“बेटा, मैं सदा से अकेला हूँ, विवाह करने का मन ही नहीं हुआ, फिर मैंने अपने स्टूडेंट्स को पढ़ाने में पूरा ध्यान लगा दिया। अब मैं अकेला कहाँ, हर शहर में मेरे बेटे स्वरूप विद्यार्थी हैं।”
“मुझे भी अपना बेटा ही समझिए, फिर हाथों में हाथ लेकर घर चलने की मिन्नत की, मैं अकेला हूँ, मेरे सिर पर कोई बुजुर्ग का हाथ हो, इससे बढ़िया और क्या होगा।”
और राणा उन्हें अपने घर ले गया। दरवाजे के सामने ही एक महिला की फ़ोटो पर माला पड़ा था।
शिव नारायण जी ने ध्यान से देखते हुए पूछा, “ये तुम्हारी मम्मी की फ़ोटो है, कहीं ये संध्या तो नही?”
“सही पहचाना, अंकल जी।”
“अंकल जी, ये एक डायरी मम्मी छोड़ गयी हैं, गलती से मैंने पूरी पढ़ ली, और उस दिन आपको देखने पर मुझे लगा मैं आईना देख रहा।”
दोनों गले लगकर भाग्य का अजूबा खेल देख रहे थे।
#खानदान की इज्जत
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बैंगलोर
9935215628