हम सपरिवार अपने एक रिश्तेदार के पाँच वर्ष के बेटे की बर्थडे पार्टी में गए थे जो एक बड़े होटल में रखी गई थी । हम तो वहाँ की चकाचौंध देखकर दंग रह गए । बड़े से हॉल में स्टेज गुब्बारों से सजा था । रंगीन बत्तियाँ जल रही थीं । गुब्बारों की तरह फूले हुए खिलौने और कार्टून छत से लटक रहे थे । मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं, बचपन में ये सब देखते तो और खुश होते ।
तभी मेरी बेटी अनन्या चहकते हुए बोली “मम्मी, वो देखो ! डोरेमोन, नोविता, छोटा भीम.. कितने सारे कार्टून ! जिसे हम टीवी में देखते थे सब यहाँ हैं !”
“और ये मिनियन कितना प्यारा लग रहा है ।” आशीष भी देखकर खुश हो रहा था ।
मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि खिलौने देखकर इन दोनों भाई-बहन का बचपन आज फिर जाग उठा है । शायद ये सोच रहे होंगे कि फिर से वो बचपन लौट आए, जो खिलौनों से अछूता रह गया था ।
पार्टी खत्म हुई और सभी निकलने लगे । कुछ बच्चों ने खिलौने घर ले जाने की ज़िद की तो सभी बच्चों को खिलौने उतार कर दिया जाने लगा । उन्होंने हमसे भी पूछा तो हमने मना कर दिया ।
“ले लेते हैं न मम्मी” आशीष ने कहा तो मैं चौंक गई ।
“तुम क्या करोगे ?” मैंने पूछा ।
“अरे दो-चार रख लो गाड़ी में आशीष, आखिर बेकार ही जाएगा यहाँ ।” कहते हुए बच्चे की मम्मी ने कुछ खिलौने पकड़ा दिए ।
घर लौटते हुए आशीष ने अचानक ही गाड़ी चौक पर साइड करके रोक दी, जहाँ मूर्ति बनाने वालों के तम्बू लगे हुए थे । इतनी रात गए यहाँ गाड़ी रोकने पर मैं अचंभित थी । मैं कुछ पूछती तब तक आशीष गाड़ी से उतरकर डिक्की से खिलौने निकाल कर तम्बू की तरफ बढ़ गया । जो बच्चे शाम से ही तम्बू में दुबके पड़े थे, खिलौने का नाम सुनते ही एक-एक कर बाहर निकलने लगे ।
हाथों में खिलौने लेकर उछलते बच्चों को देखकर मेरा मन गदगद हो गया और मैं गर्व से अभिभूत हो गई ।
©पूनम वर्मा
राँची, झारखण्ड ।