खेल खेल में -कहानी-देवेंद्र कुमार

अंजू नाराज है और उदास भी। नाराज इसलिए कि रमा ने एक सप्ताह की छुट्टी देने से साफ़ मना कर दिया और कह दिया कि कहीं और काम देख ले। अंजू की माँ गाँव में बीमार है। छुट्टी के साथ वह कुछ एडवांस भी लेना चाहती थी लेकिन अब… अब क्या करेगी अंजू। वह जल्दी से काम निपटा कर गाँव के लिए चल देना चाहती है। मन में एक ही बात घूम रही है—पता नहीं अब माँ कैसी होगी। उसने सोच लिया है कि चलते समय वह रमा से कोई बात नहीं करेगी, बस भड़ाक से दरवाजा खोल कर बाहर निकल जाएगी। लेकिन तभी दरवाजे की घंटी बजी, पता नहीं कौन आया था।

अंजू ने बढ़कर दरवाजा खोल दिया। बाहर तीन महिलाएं बच्चों के साथ खडी थीं। वे थीं रमा की सहेलियां—जया, दीक्षा और सपना। रमा अपनी सखियों को अन्दर ले गई। वह बहुत खुश थी। तीनों सहेलियां बहुत दिन बाद मिल रही थीं। रमा का बेटा अजय कंप्यूटर गेम खेल रहा था। रमा ने उसका परिचय जया और दीक्षा और सपना के बच्चों रजत, महेश और विभा से करवा दिया। चारों बच्चे जल्दी ही घुल मिल गए। उनकी उछल कूद और खिल खिल से पूरा घर गूंजने लगा।

अंजू असमंजस में उलझी खड़ी थी। मन कह रहा था कि तुरंत दरवाजा खोल कर बाहर निकल जाये पर फिर न जाने क्या सोच कर रुक गई। रसोई में जाकर चाय बनाई और रमा के पास ले गई। रमा सखियों के साथ गप्पों में मगन थी और ड्राइंग रूम में बच्चों की उछल कूद चल रही थी। तभी एक चीख उभरी, फिर बच्चे चिल्ला उठे—‘देखो रजत को चोट लग गई। इसके माथे से खून निकल रहा है।’

चारों सखियाँ भागती हुई ड्राइंग रूम में आईं तो रजत को देख कर घबरा गईं। उछलकूद में रजत का माथा मेज के कोने से टकरा गया था। उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाना जरूरी था। रजत की माँ जया तो रोने लगी। रमा ने तुरंत रजत के माथे पर रूमाल बाँध दिया फिर उसे गोदी में उठा कर दरवाजे से निकलती हुई अंजू से बोली-‘ जरा बच्चों का ध्यान रख लेना। हम रजत की पट्टी करवा कर लौटते हैं।’ अंजू कुछ कह ना सकी। पर मन हुआ कि तुरंत घर से निकल जाए। उसे हुक्म देकर चली जाने वाली रमा पर मन क्रोध से भर उठा। उसने बच्चों की ओर देखा जो एकदम चुप बैठे थे। उनके चेहरों पर घबराहट और उदासी के भाव थे। वे आपस में खुसफुसा रहे थे—‘पता नहीं रजत कैस

होगा। उसका खून रुक तो जाएगा न।’ अंजू ने कहा—‘सब ठीक हो जायेगा। तुम क्यों घबरा रहे हो, चोट ज्यादा नहीं है। एक बार मेरे बेटे को भी इसी तरह चोट लग गई थी। बहुत खून बहा था। पर डाक्टर ने जल्दी ही ठीक कर दिया था ।’




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‘अब कैसा है आपका बेटा?’-विभा ने पूछ लिया। अंजू ने बच्चों की घबराहट दूर करने के लिए झूठमूठ की कहानी सुना दी थी। ‘ एकदम ठीक है ।’—उसने हँसते हुए कहा। अंजू ने देखा कि अब बच्चों की घबराहट दूर हो रही थी। उनके होंठ मुस्करा रहे थे। उस ने बच्चों के बाल सहला दिए, बोली—‘बच्चे हँसते खेलते हुए ही अच्छे लगते हैं।’

‘हम तो खेल ही रहे थे।’ –महेश बोला।

‘हाँ, बहुत मजा आ रहा था,पर तभी रजत को चोट लग गई।’– विभा बोली।

‘मैंने कहा न चोट मामूली है। डाक्टर ने अब तक तो ठीक भी कर दिया होगा।’—अंजू ने बच्चों को फिर से आश्वस्त किया। इस समय वह अपना गुस्सा भूल गई थी और कोई ऐसा उपाय सोच रही थी जिससे बच्चे फिर से हंसने- खेलने लगें। एक अलमारी में अजय के खिलौने रखे हुए थे, जिनसे अब वह खेलना बंद कर चुका था। ‘ हो सकता है इन खिलौनों से कोई मदद मिल जाए। —यही सोच कर अंजू कई खिलौने बच्चो के पास ले आई। उनमें ड्रम,बांसुरी, पीपनी, गुड्डे-गुडिया और दूसरे कई खिलौने थे। अजय ने हंस कर कहा-‘अब मैं इन खिलौनों से नहीं कंप्यूटर से खेलता हूँ।’

तभी महेश ने पीपनी होंठों से लगा ली। फिर उसे देख कर अजय भीं ड्रम बजाने लगा। विभा गुड्डे गुडिया को हाथ में लेकर देखने लगी। अंजू ने विभा से पूछा—‘ कभी सहेलियों के साथ गुड्डे गुडिया की शादी का खेल खेला है?’ विभा ने कहा—‘ हाँ यह खेल तो कई बार खेला है मैंने।’ और उसके होंठ मुस्कराने लगे। महेश और अजय पीपनी और ड्रम बजाते हुए गोल गोल घूमने लगे। हवा में मीठा शोर गूंजने लगा। अंजू भी ताल देने लगी। वह भी बच्चों में बच्चा बन कर खुश थी। बच्चों की उदासी दूर करने की उसकी तरकीब काम कर गई थी।

‘तो क्यों न आज फिर से गुड्डे गुडिया की शादी का खेल खेला जाए।’—अंजू बोली।

‘किसके साथ?’—विभा ने कहा।

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‘हम सब मिलकर खेलेंगे।’ कह कर अंजू ने महेश और अजय की और देखा जो पीपनी और ड्रम के खेल में मस्त थे। ‘ लेकिन उसके लिए तो बहुत कुछ करना होगा।’—विभा बोली।’नन्ही नन्ही पूरी, मिठाई और भी न जाने क्या क्या।’

‘वह सब हो जाएगा।’—कहती हुई अंजू विभा को रसोई में ले गई। उसे अपने बचपन के ऐसे कई खेल याद आ रहे थे जिन्हें वह अपनी सहेलियों के साथ खेला करती थी। क्या आज भी वैसा कुछ हो सकता है। शायद हाँ शायद…।पर इस सोच को बीच में ही रुकना पड़ा। क्योंकि दरवाजे की घंटी बज उठी। रमा रजत के साथ लौट आई थी। रजत के माथे पर पट्टी बंधी थी, वह् मुस्करा रहा था। रमा की सखियाँ अभी दरवाजे पर ही खड़ी थीं।रमा ने अंदर चलने को कहा तो जया बोली—‘ नहीं अब जायेंगे,’ और रमा के बार बार रोकने पर भी जया,दीक्षा और सपना अपने बच्चों के साथ चली गईं।




बच्चों के जाते ही घर खामोश हो गया। अजय फिर से कंप्यूटर गेम खेलने लगा। अंजू चुपचाप एक तरफ खड़ी थी।अब बस बहुत हो गया—सोच कर उसने दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाये। तभी रमा ने पुकार लिया—‘ बहुत थक गई हूँ। अंजू,एक प्याला चाय बना दो, अपने लिए भी बना लेना।’ अंजू ने देखा रमा फर्श पर बिखरे खिलौनों के पास ही बैठ गई थी। उसने कहा—‘मैंने बच्चों को उदास देखा तो खिलौनों से उन्हें बहलाने की कोशिश की थी। इसीलिए ये फर्श पर बिखरे हुए हैं। इन्हें अलमारी में रख देती हूँ।’

‘नहीं इन्हें ऐसे ही रहने दो।इन खिलौनों ने जैसे मुझे मेरे बचपन में पहुंचा दिया है।कुछ समय मैं अपने बचपन की गलियों में ही घूमना भटकना चाहती हूँ।’—रमा ने कहा।“बड़प्पन की उलझन में हम अपने बचपन को भूल ही जाते हैं।’

अंजू अचरज से रमा की बातें सुनती रही। तभी रमा ने कहा—‘ मेरे माथे का यह निशान देख रही हो।’अंजू ने देखा कि रमा के माथे पर घाव का पुराना निशान था। रमा कहती रही—‘बचपन में एक दिन मैं सहेलियों के साथ खेल रही थी तभी एक बंदर हम पर झपटा। मैं बचने के लिए भागी तो गिर पड़ी और माथा घायल हो गया,’ कह कर वह हंसने लगी।’ मैं जब दर्पण के सामने खडी होती हूँ तो यह निशान बरबस बचपन की याद दिला देता है। तुम्हारे बचपन की भी ऐसी यादें जरूर होंगी।’

अंजू चुप खड़ी रही फिर कहा—‘ मैं चलती हूँ।’

‘हाँ ठीक है। तुम्हारी माँ बीमार हैं न गाँव में। जब वह ठीक हो जाएँ तो आ जाना।और हाँ शायद कुछ पैसों की भी जरूरत पड़ेगी।’ कहते हुए रमा ने सौ के कई नोट अंजू की और बढ़ा दिए।अंजू को अपने कानों और आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था।रमा का यह नया रूप उसे चकित कर रहा था। यह सचमुच सच था अथवा भ्रम—समझ में नहीं आ रहा था। उसने संकोच के साथ नोट ले लिए। फिर धीरे धीरे दरवाजे की ओर बढ़ गई। रमा अभी देर तक अपने बचपन की गलियों में भटकने वाली थी।

बस स्टैंड की ओर बढती हुई अंजू एक ही बात सोच रही थी—आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे। क्या बचपन में ले जाने वाले खिलौनों का जादू था या कोई और बात थी।इसका जवाब भला कौन दे सकता था. खेल खेल में एक नया खेल हो गया था। (समाप्त)

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