खाने का डिब्बा – सीमा वर्णिका

नंदू दरवाजे की ओट से अम्मा बाबू की बातें सुन रहा था ।

“नंदू के बाबू तुम एक खाने का डब्बा ..काहे नांहि लै लेत ..रोज खाना लिये बिगैर काम पर जात हौ “अम्मा कह रही थीं।

” अरे काहे पाछै परी रहती हो.. घरै से खाके तो जात हैं,” बाबू ने जवाब दिया ।

” कानी कौड़ी बचती नहीं डब्बा लई लो ,” बड़बड़ाते हुए नंदू का बाबू घर से बाहर निकल गया ।

थोड़ी देर में नंदू भी सड़कों पर घूमने लगा ।

” का करूं पल्ले नहीं पड़ता..पइसा कमाय लागूं, ” नन्हा नंदू उधेड़बुन में लगा था ।

उसे दूर एक लड़का एक आदमी का जूता साफ करता दिखा कुछ सोच कर उसकी आँखों में चमक आ गई । उसने फुर्ती से अपनी कमीज़ उतारी ।


” साहब जूता साफ करा लो,” नंदू गिड़गिड़ाया।

“भाग यहाँ से.. नहीं साफ कराना जूता,” आदमी ने दुत्कारते हुए कहा ।

नंदू निराशा में डूबा फिर भटकने लगा । कुछ दूर एक गाड़ी आकर रुकी वह उधर लपका ।

“बाबूजी ! गाड़ी साफ कर दे ,”वह दयनीय स्वर में बोला ।

“अरे रे.. नहीं करानी साफ ..,”झल्लाकर कार मालिक बोला ।

नंदू की आँखों में ऑंसू आ गए  । यह देख साथ बैठी महिला को दया आ गई ।

” आओ साफ कर दो गाड़ी,” वह नंदू से बोली ।

नंदू उत्साह से गाड़ी साफ करने लगा ।

दस का नोट बढ़ाते हुए महिला बोली,” अब खुश” ।

नंदू मुस्कुरा दिया ।


दिन भर वह जुगत लगाता रहा.. उसकी अम्मा परेशान उसे ढूँढती ढूँढती वहाँ आ गई ।

“क्यों रे ..खाना-वाना नहीं खावन का है का.. कब से राह देखत हैं तोहार .. ससुरा यहाँ बोराया घूम रहा.. घरै चल ,” अम्मा गुस्से में बोली ।

नंदू अपनी जेब संभालते हुए अम्मा के पीछे पीछे चल दिया ।

उसने घर में किसी को कुछ नहीं बताया अभी उसके पास पचास रूपये हुए थे । उसे अभी कुछ और रुपए चाहिए थे । अब रोज ही नंदू धीरे से बाजार निकल जाता और छोटे-मोटे काम करके पैसा जोड़ता ।

चार पाँच दिन बीत गए ।

” भैया खाने का डब्बा लेना था,” उसने डरते डरते दुकानदार से पूछा ।

“क्या चाहिए ..डब्बा,” दुकानदार ने उसे घूरते हुए पूछा

” सौ रूपये का है पैसे लाए हो,” दुकानदार ने नंदू की ओर देखते हुए कहा ।

” हाँ भैया.. यह लो..,” कहते हुए नंदू ने टुड़े  मुड़े दस बीस के नोट उसे पकड़ा दिए ।

नंदू डब्बा लेकर बहुत खुश था । वह दूसरी दुकान पर गया ।

” भैया अम्मा के लाने धोती लेनी थी,” वह धीरे से बुदबुदाया।

“कित्ती वाली चाहिए,” दुकानदार ने लापरवाही भरे लहजे में पूछा ।


नंदू ने अपनी मुट्ठी के सारे पैसे दुकानदार के सामने रख दिए ।

“इत्ते ही हैं भैया.. एक धोती दे दो.. अम्मा की धोती फट गई है ,”कहकर सुबह पड़ा नंदू ।

दुकानदार ने पैसे गिने डेढ़ सौ के करीब थे । उसने एक रंगीन धोती नंदू को थमा दी ।

नंदू उत्साह से तेज तेज कदम चलते हुए घर जा पहुँचा ।

अम्मा बाबू बैठे कुछ बात कर रहे थे।

“अम्मा.. अम्मा ..बाबू ..देखो हम का लाएँ हैं तोहार खातिर ,” नंदू खुश होकर बोला ।

उसने सारा सामान उनके सामने रख दिया ।

एक झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर पड़ा वह अकबका गया ।

“काहे चोरी करना सीख गया बे,” बाबू चिल्ला रहे थे ।

“तभी सारा दिन सड़क पर मारा मारा फिरता था ,”अम्मा ने सुर मिलाया ।

नंदू फूट-फूट कर रो रहा था । तभी पड़ोस वाले तिवारी उधर से निकले

“अरे ! काहे मार रहे हो लड़के को,” वह चिल्लाए ।

“अरे ! तिवारी बाबू ..हम दिन भर जान होमते अउर  यह लरका चोरी करना सीख रहा,” सामान की ओर इशारा करते हुए नंदू का बाबू बोला ।

नहीं भाई ..पगलाओ न.. यह तुम्हारा लड़का चोर नहीं हीरा है,”तिवारी बोले ।

पिछले चार दिनों से भूखा प्यासा बाजार में छोटे-छोटे काम करके पैसे जोड़ रहा था..कहता था अम्मा बाबू के लिए कुछ जरूरी सामान लेना है और तुम ..


हे भगवान!हम नाशपिटे ठहरे ..अपन फूल से बचवा पर हाथ छोड़े,”पछताते हुए नंदू का बाबू सिर पकड़ कर बैठ गया ।

अम्मा ने नंदू को बाहों में भर लिया ।

आज नन्हा नंदू बड़ा हो गया था अब उसे मार का दुख नहीं हो रहा था बल्कि खुशी की कि उसके बाबू  अब खाना ले जा पाएंगे और अम्मा को फटी धोती नहीं पहननी पड़ेगी ।

सीमा वर्णिका

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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