घने जंगल में एक खँडहर था। अंदर और बाहर सब तरफ झाड़-झंखाड़ से घिरा हुआ। खँडहर से कुछ दूर से एक कच्ची सड़क गुजरती थी। वह कोई मेन रोड नहीं थी, इसलिए उस सड़क से आने-जाने वाले लोग भी बहुत कम थे। अक्सर बैलगाड़ियां, घोड़गाड़ी या फिर कभी-कभी भूले भटके कोई कार गुजर जाती थी। पर अक्सर खँडहर के पास से बहुत कम यातायात गुजरता था। साँझ ढलने से पहले ही जंगल में वन्य जीवों की डरावनी आवाजें गूँजने लगती थीं और फिर घुप्प अँधेरे में तो वहाँ जंगली जानवरों का एकच्छत्र राज हो जाता था।
रात में खँडहर की टूटी दीवारों के बीच से वन्य जीव बेरोकटोक आते-जाते रहते थे। वह जंगल उनका था, खँडहर उनका ठिकाना था। पर खँडहर को यह सब अच्छा नहीं लगता था। कभी वह इमारत खँडहर नहीं थी। वहाँ कई लोग रहते थे। बहुत लोग आते-जाते थे। खूब गुलजार थी वह जगह। फिर एक रात इमारत में आग लग गई। आग इतनी भयानक थी कि सब कुछ स्वाहा हो गया। वहाँ रहने वाले छोड़कर भाग गए, बड़ी इमारत खँडहर बन गई, फिर तो आसपास रहने वाले भी वहाँ से दूर चले गए। बच गया केवल खँडहर जिसकी जली-फुंकी दीवारें उसके बीते दिनों की कहानी कहती हुई लगती थीं। उसके बाद वर्ष बीतते चले गए-जंगल घना होता गया। मनुष्य गए तो वन्य जीवों ने खँडहर में बसेरा कर लिया। अब वह जगह पशुओं की थी—लकड़बग्घे, तेंदुए, लोमड़ी और बनैले सुअर वहाँ बेरोकटोक आते थे। भला उन्हें कौन रोकता और क्यों? दिनों दिन जंगल और भी घना और बीहड़ होता जा रहा था। खँडहर कभी कभी सोचता, क्या दिन थे वे जब यह जगह गुलजार रहती थी। लेकिन खँडहर क्या कर सकता था। हाँ अपनी दुर्दशा पर दुखी जरूर हो सकता था।
एक दिन की बात, बरसात का मौसम। दिन में भी अँधेरा सा हो गया। एक कार कच्चे रास्ते से जा रही थी। खँडहर से थोड़ी दूर पर कार में खराबी आ गई। कार में बहादुर सिंह अपने परिवार के साथ थे, पीछे मिनी ट्रक था, जिसमें घरेलू सामान लदा था। कार की मरम्मत की कोशिश होने लगी। पर कार ठीक नहीं हो सकी। तब तक रात हो चुकी थी। आगे का इलाका खतरनाक था। वहाँ लूटपाट का डर था। साथ में औरतें और बच्चे भी थे। तय हुआ रात उसी खँडहर में बिताई जाए। पर खँडहर में टिकना आसान न था। सब तरफ झाड़ झंखाड़ और जंगली जानवरों का डर। सबसे पहले आग जलाई गई, ताकि वन्य जीव खँडहर से दूर ही रहें, फिर सब लोगों ने मिलकर खँडहर के एक हिस्से की थोड़ी बहुत सफाई कर डाली।
वहाँ चादर बिछाकर सब आ बैठे। हवा में जंगली फूलों और हरियाली की विचित्र गंध फैली थी और दूर से वन्य जीवों की आवाजें भी आ रही थी। बहादुर सिंह ने कहा-“कभी सोचा भी नहीं था कि मैं परिवार के साथ ऐसी सुनसान, डरावनी लेकिन अद्भुत जगह में रात बिताऊँगा।”
1
थोड़ी देर में चांद निकल आया। खँडहर की टूटी छतों और दीवारों से होकर चांदनी अंदर फैल गई। देखकर सब मुग्ध हो गए। भोजन साथ में था, सबने मिलकर खाया। नींद आ रही थी, पर सोने की हिम्मत नहीं थी। मन में कहीं डर था कि कोई जंगली जानवर खँडहर में आकर हमला न कर दे। तय हुआ कि कुछ लोग बारी बारी से जागकर पहरा देंगे। इस तरह जागते और सोते हुए रात जैसे तैसे बीत गई।
चिड़ियों की चह चह और चूं चिर्र से नींद जल्दी टूट गई। जंगल खामोश था, केवल परिंदे बोल रहे थे। सब तरफ जमीन पर, पेड़ पौधों पर ओस की बूंदें दिखाई दे रही थीं। बहादुर सिंह और उनकी पत्नी रमा खँडहर में घूमते फिरते रहे। तभी अपने पीछे आहट सुनकर मुड़े तो देखा उनके दोनों बच्चे अनिल और रश्मि खड़े हैं।
बच्चे हँस रहे थे। अनिल ने कहा—“पापा, हम भी आपके साथ रहेंगे।”बहादुर सिंह और रमा ने कहा—“बच्चो, पता है यह खँडहर कितना डरावना है। यहाँ सब तरफ जंगली जानवर घूमते रहते हें।”
“यह खँडहर डरावना नहीं सुंदर है। देखिए कितने सुदंर फूल खिले हैं।” रश्मि के संकेत पर सब नजरें एक कोने में जा टिकीं, वहाँ हरी घास से भरी धरती के टुकड़े पर सुंदर फूल खिले हुए थे। वे चारों फूलों के निकट जा खड़े हुए। सचमुच बहुत सुंदर थे फूल। रमा और बहादुर सिंह झुककर नीचे बैठ गए। वे फूलों को धीरे-धीरे सहला रहे थे।
अनिल और रश्मि ने कहा—“सावधान, कहीं फूलों को तोड़ मत लेना, वरना जंगल नाराज हो जाएगा।” बहादुर सिंह ने कहा—“हाँ, बच्चो, हम फूलों को केवल छू रहे हैं, उन्हें तोड़ने की गलती कभी नहीं करेंगे।” इस तरह चारों खँडहर के बीच झाड़ झंखाड़ और मलबे के ढेर से बचते हुए, सामने दिखाई देती टूटी-फूटी सीढ़ियों पर संभल-संभलकर कदम रखते हुए ऊपर पहुँच गए। ऊपर जाकर पता चला कि बाहर से छोटी दिखाई देने वाली खँडहर इमारत काफी बड़ी थी। उसकी छत जगह-जगह से टूटी हुई थी। खँडहर के पिछवाड़े की धरती पर जैसे हरी घास का गलीचा सा बिछा हुआ, जो ढलान पर उतरता हुआ काफी दूर तक चला गया था। वहीं थी एक नदी…ये चारों मंत्रमुग्ध से उस दृश्य को देखते रह गए।
\कुछ देर चारों खँडहर की छत पर घूम-घूमकर सब तरफ के दृश्य देखते रहे। नीचे कार ठीक कर ली गई थी। इधर-उधर फैला सामान उसमें रखा जा रहा था।
2
सीढ़ियों से उतरते समय रमा ने कहा—“मेरा मन है हमें कभी यहाँ दिन में आना चाहिए ताकि जंगल में घूमा-फिरा जा सके।
कुछ देर बाद सब कार में जा बैठे। रश्मि और अनिल ने कहा—“हम फिर आएँगे।”
“यह किससे कहा तुमने?” रमा ने पूछा।
“खँडहर से, जंगल से, यहाँ उगे पेड़-पौधों से। आप कहते हैं न सब में जीवन है।”
“हाँ, यही बात है।” बहादुर सिंह बोले—“इसीलिए तो हम कहते हैं, पेड़ पौधे मत काटो, फूल मत तोड़ो, पशु-पक्षियों का शिकार मत करो।”
दोनों वाहन खँडहर से आगे निकल आए। सब तरफ सन्नाटा छा गया। जो खँडहर कुछ देर पहले तक आवाजों से गूँज रहा था, वहाँ एकदम मौन छा गया। ख्ंडहर की ख़ुशी फिर से उदासी में बदल गई। वह सोच रहा था—“रात में कितना अच्छा लगा था, लेकिन अब…फिर वही जानवरों का बसेरा और खामोशी…
लेकिन यह सन्नाटा ज्यादा दिन नहीं रहा। कुछ दिन बाद एक बस आकर खँडहर के सामने रुकी। बस में बहादुर सिंह का परिवार था, तथा थे उनके कई मित्रों के कुटुम्ब। बहादुर सिंह ने शहर जाकर अपने कई मित्रों से खँडहर के सौंदर्य का वर्णन किया था। रमा ने अपनी सहेलियों को बताया था और रश्मि और अनिल ने भी आसपास के बच्चों को सुनाया था वहाँ के विषय में।
प्रोग्राम बन गया। एक बड़ी टूरिस्ट बस में बैठकर सैलानी आए थे—साथ में एक मिनी ट्रक था। उसमें भोजन सामग्री, और दूसरी जरूरी चीजें थीं। वे खँडहर में रात बिताने आए थे। प्रोग्राम था कि दिन भर खँडहर के आसपास के जंगल में भ्रमण किया जाए और रात में खँडहर की छत पर संगीत का कार्यक्रम हो।
बहादुर सिंह साथ में जेनरेटर लेकर आए थे। साथ में थे रसोइए। रात में पूरा खँडहर रोशनी में नहा उठा। खँडहर के बीचोंबीच एक विशाल अलाव जला दिया गया। शाम ढली, जंगल में वन्य जीवों की आवाजें गूँजने लगीं-पर सब तरफ रोशनी थी, इसलिए कोई वन्य जीव निकट नहीं आया।
शाम को खुले में भोजन करने के बाद सब छत पर जा पहुँचे। वहाँ भी रोशनी का प्रबंध था। बहादुर सिंह बहुत मीठी बांसुरी बजाते थे। रमा अच्छी गायिका थी। उनके कई मित्रों को गाने बजाने का शौक़ था।
3
काफी रात खँडहर की छत पर गाना बजाना चलता रहा। संगीत लहरियाँ जंगल में गूँजती रही। जंगल में मंगल हो गया था।बहादुर सिंह व उनके मित्रों के परिवार खँडहर में दो दिन तक रहे। इस बीच उन लोगों ने खँडहर का चप्पा-चप्पा छान मारा था। सचमुच पूरा क्षेत्र बहुत सुंदर था।
दो दिन वहाँ बिताने के बाद सैलानी बस वहाँ से चली गई। खँडहर में फिर सन्नाटा छा गया। खँडहर का मन फिर उदास हो गया—पर खँडहर को पता नहीं था कि बहादुरसिंह और उनके मित्रों ने वहाँ आते रहने का मन बना लिया था।
बहादुरसिंह द्वारा खँडहर की खोज की खबर फैलते देर न लगी। अब तो वहाँ हर मौसम में सैलानी आने लगे थे। खँडहर का अकेलापन दूर हो गया था।
बहादुर ने एक बोर्ड खँडहर के बाहर लगवा दिया था, उस पर लिखा था—”खँडहर आपका स्वागत करता है। फूल न तोडें, पेड़-पौधों को नुकसान न पहुँचाएँ और जाते समय अपना कूड़ा साथ में ले जाएं। “
खँडहर अब अकेला नहीं था, वह खुश था।(समाप्त)